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Budget 2023: टॉप 1% अमीरों पर उपभोग सेस से कम होगी अमीर-गरीब के बीच की खाई

Budget 2023: सरकार को 2047 नहीं अगले दो-तीन साल को ध्यान में रखकर भी आर्थिक नीतियां बनानी चाहिए

दीपांशु मोहन
आम बजट 2022
Published:
<div class="paragraphs"><p>Budget 2023: टॉप 1% अमीरों पर उपभोग सेस से कम होगी अमीर-गरीब के  बीच की खाई</p></div>
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Budget 2023: टॉप 1% अमीरों पर उपभोग सेस से कम होगी अमीर-गरीब के बीच की खाई

(फोटो- क्विंट हिंदी) 

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(Union Budget 2023 से जुड़े सवाल? 3 फरवरी को राघव बहल के साथ हमारी विशेष चर्चा में मिलेंगे सवालों के जवाब. शामिल होने के लिए द क्विंट मेंबर बनें)

2022 की ऑक्सफैम (Oxfam Report) की असमानता रिपोर्ट ने सरकार को आईना दिखाने का काम किया है. रिपोर्ट ने देश में मौजूद गैर बराबरी की तरफ इशारा करते हुए कहा है कि अमीरों और गरीबों के बीच की खाई लगातार चौड़ी होती जा रही है.

‘सर्वाइवल ऑफ द रिचेस्ट’ नाम की इस रिपोर्ट में स्पष्ट रूप से बताया गया है कि कैसे “2021 में भारत के टॉप 1 प्रतिशत अमीर लोग, देश की कुल संपत्ति के 40.5 प्रतिशत से अधिक के मालिक हैं, जबकि नीचे की 50% आबादी (70 करोड़) के पास कुल संपत्ति का लगभग 3 प्रतिशत है. जब से कोविड-19 महामारी शुरू हुई है, तब से नवंबर 2022 तक भारत में अरबपतियों की दौलत में 121 प्रतिशत या वास्तविक रूप से प्रति दिन 3,608 करोड़ रुपए की वृद्धि देखी गई है (लगभग 2.5 करोड़ रुपये प्रति मिनट).”

रिपोर्ट बताती है कि कैसे क्रमिक कर उपायों के जरिए भारत में गैर बराबरी को काबू में करने में मदद मिल सकती है.

अमीरों पर उपभोग कर क्यों लगाया जाना चाहिए

पिछले तीन सालों से हर केंद्रीय बजट से पहले हम यह प्रस्ताव रख रहे हैं कि अल्ट्रा-रिच, यानी बहुत अमीर लोगों पर उपभोग कर लगाया जाए (तीन से पांच वर्षों के रोडमैप के साथ पहले टॉप 1 प्रतिशत पर, और फिर इसे टॉप 5-10 प्रतिशत दौलतमंद लोगों पर लगाया जा सकता है).

अल्ट्रा-रिच लोगों पर 'उपभोग-आधारित' कर लगाना, न सिर्फ 'सामाजिक-आर्थिक न्याय', बल्कि वितरण आधारित हिस्सेदारी के लिहाज से भी मुनासिब है. यह केंद्र सरकार की वृहद राजकोषीय वास्तविकताओं के हिसाब से भी व्यावहारिक है.

केंद्र सरकार का प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष कर राजस्व आधार विषम है (वह अप्रत्यक्ष करों पर बहुत अधिक निर्भर है. राजकोषीय घाटा बढ़ रहा है. उसके पास कर-गैर कर राजस्व के पर्याप्त स्रोत उपलब्ध नहीं हैं. इसके चलते घाटे के वित्त पोषण के लिए उसे पिछले कुछ वर्षों में ज्यादा उधारियां लेनी पड़ रही हैं.  

आइए, इन मुद्दों पर बारीकी से नजर दौड़ाते हैं.

भारत का आर्थिक माहौल

केंद्र सरकार की अपनी आर्थिक स्थिति काफी चिंताजनक है. पिछले कुछ वर्षों में सरकार के कर और गैर कर राजस्व (विनिवेश की लक्ष्य आधारित प्राप्ति) में कमी आई है. और इसी से, सरकार का ऋण जीडीपी स्तर भी तेजी से बढ़ा है.

केंद्र सरकार के खर्च में बढ़ोतरी के लिए कम (राजकोषीय) गुंजाइश है (यही वजह है कि मैंने हाल ही में तर्क दिया था कि आगामी बजट से बहुत उम्मीद नहीं रखनी चाहिए).

जीडीपी के अंग के रूप में अधिकांश सरकारी व्यय ऋणों के जरिए पूरा किया जा रहा है (जैसा कि नीचे के रेखाचित्र में देखा जा सकता है), और यह परेशानी का सबब है.

सरकार चाहती है कि वृद्धि के लिए वह पूंजीगत व्यय (कैपेक्स) बढ़ाए, लेकिन 65 प्रतिशत से अधिक बजट राजस्व व्यय के लिए है (उच्च ब्याज भुगतान की लागत और सरकारी वेतन, समाज कल्याण की जरूरतों के कारण).

राजस्व के अन्य स्रोतों (गैर कर) को देखें तो नरेंद्र मोदी सरकार साल-दर-साल खुद के निर्धारित विनिवेश लक्ष्यों को पूरा करने में लगातार नाकाम रही है.

भारत में अप्रत्यक्ष-प्रत्यक्ष कर आधार विषम है

अगर हम टैक्स के आंकड़ों को बारीकी से देखें तो पाएंगे कि पिछले एक दशक में भारत में निजी कैपेक्स में जान फूंकने और एक सतत 7-8 प्रतिशत की दर हासिल करने की कोशिशें बेमायने रही हैं, जैसा कि इन बातों से साफ पता चलता है, (क) निवेश और बचत दरों में लगातार गिरावट हो रही है, (ख) बेरोजगारी बढ़ रही है, और (ग) तीन वर्षों की सीएजीआर पर वास्तविक जीडीपी वृद्धि में 2-3 प्रतिशत की गिरावट देखी जा सकती है.  

हाल की एक पॉलिसी स्टडी में कहा गया है कि, “बैंकिंग क्षेत्र और कॉरपोरेट बैलेंस शीट्स को पुनर्जीवित करने के लिए नीतियां बनाई गई थीं और राजस्व व्यय को सीमित करते हुए राजकोषीय कंजरवेटिज्म और उच्च पूंजीगत परिव्यय ने ब्याज दरों को कम किया, और उदार वित्तीय स्थितियों को सुनिश्चित किया. कॉरपोरेट टैक्स के कम होने (जीडीपी का 2.9 प्रतिशत) से निजी पूंजीगत व्यय को बढ़ावा मिला जिसके कारण प्रत्यक्ष कर/जीडीपी अनुपात गिरकर 5.4 प्रतिशत हो गया जिसमें उदारीकरण के बाद वित्त वर्ष 2008 में 7.3 प्रतिशत का उछाल आया था.”

इसके साथ ही हाल ही में ईंधन पर करों में वृद्धि और जीएसटी में बुनियादी उपभोग की वस्तुओं को शामिल करने के कारण अप्रत्यक्ष कर या जीडीपी अनुपात वित्त वर्ष 2010 में 8.8 प्रतिशत के निचले स्तर से बढ़कर 11 प्रतिशत हो गया.

इसने वित्त वर्ष 2009-10 के दौरान अप्रत्यक्ष और प्रत्यक्ष करों के कन्वर्जेंस को उलटकर रख दिया, जिनमें अप्रत्यक्ष करों में गिरावट देखी गई और प्रत्यक्ष करों के बढ़ने के कारण करों में जबरदस्त उछाल आया.

इस प्रकार हाल के वर्षों में क्रमिक व्यवस्था पलट गई है. मांग पक्ष को बाधित करते हुए आपूर्ति पक्ष की तरफ ज्यादा ध्यान दिया जा रहा है.

मोदी सरकार ने ‘आपूर्ति पक्ष में आर्थिक दखल’ बढ़ाने की कोशिश की है, और यह पहल बुरी तरह नाकाम रही है क्योंकि कॉरपोरेट जगत अपने मुनाफे पर ध्यान देता है, खासकर जब घरेलू और विश्व स्तर पर लगातार झटके लग रहे हों और अनिश्चितता का दौर हो.

आगे बढ़ते हुए, वैश्विक विकास में मंदी, मुश्किल वित्तीय स्थितियों और निजी निवेश के न होने के कारण अपर्याप्त निजी पूंजीगत व्यय ने विकास को चुनौतीपूर्ण बनाया है. इसलिए सोचा जा सकता है कि भारत को कुछ अलग आर्थिक रणनीति बनाने की जरूरत है.

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बजट के दिन वित्त मंत्री के सामने चुनौतियां

  • ठीक है, शुरुआत के लिए, समस्या (या समस्याओं) की जड़ को समझें और समाधान तलाशें.

  • पिछले केंद्रीय बजट के दौरान वित्त मंत्री के भाषण में इस बात का कोई जिक्र नहीं था कि मांग के कारण संकट पैदा हुआ है (या कोई संकट है भी).

  • इसके अलावा वेतनभोगी वर्ग के लिए निजी आय की कर दर, औसतन, उस दर से बहुत अधिक है जो कॉरपोरेट वर्ग चुकाता है. नई निजी आयकर व्यवस्था ने औसत वेतनभोगियों को इस बात के लिए प्रोत्साहित नहीं किया है कि वह नई व्यवस्था को अपनाएं और पुरानी व्यवस्था को छोड़ दें.

  • कॉरपोरेट टैक्स में कटौती, जैसा कि पहले तर्क दिया गया था, अर्थव्यवस्था में जोश भरती है. निवेशक मुस्कुराते हैं, भले ही छोटी अवधि में अस्थायी रूप से. वे स्टॉक खरीदते हैं जिससे स्टॉक व्यापारियों और भारत के वित्तीय बाजार में खुशी की लहर दौड़ती है. इस प्रकार उत्पादन के पूंजी गहन माध्यमों में दूसरे लोग निवेश करेंगे जोकि कुछ समय के लिए वृद्धि दर को बढ़ा सकता है लेकिन इसका रोजगार बढ़ने या अधिक वेतन भुगतान के अवसर पैदा होने से कोई ताल्लुक नहीं है.  

  • कुछ मूर्त आर्थिक उपायों के लिहाज से देखें तो उपभोक्ता (अप्रत्यक्ष) करों और व्यक्तिगत (प्रत्यक्ष) आय कर में कमी से कुछ वर्गों में व्यय योग्य आय बढ़ सकती है. यह उपाय निम्न आय वर्ग के लोगों के लिए मुख्य रूप से किया जा सकता है. यह वर्ग महामारी के कारण ऋण और उधारियों से अधिक परेशान रहा है. इस वर्ग की उपभोग की मांग अब भी अमीर (शहर आधारित) वर्ग के खर्च के मुकाबले बहुत कम है.

‘उपभोग सेस’ (टैक्स) कैसे मदद कर सकता है

टॉप आय वर्ग (यानी टॉप 1 प्रतिशत) पर सबसे पहले ‘उपभोग सेस’ लगा जा सकता है जो वैसे उपभोग कर ही होगा. इसे कुछ इस तरह उचित ठहराया जा सकता है कि इसे हाल के वर्षों में महामारी के कारण पैदा हुए वित्तीय दबाव के कारण लगाया जा रहा है.  

ऐसे उग्र सुधारवादी प्रस्ताव को अधिक ‘सामान्य’ समय में काफी कठोर आर्थिक उपाय माना जाएगा, लेकिन महामारी के मद्देनजर, और जैसे बहुसंकट इसने पैदा किए हैं, उसे देखते हुए इस विचार पर गंभीरता से सोचा जा सकता है.

उपभोग कर (या सेस) एक ऐसा कर है जो ‘उपभोग’ पर लगाया जाता है, और यह भुगतान करने की क्षमता, जोकि आय होती है, से संबंधित उपायों से बहुत अलग है.  

भारत में खपत-आधारित सर्वेक्षणों (घरेलू स्तर पर भी) पर हमारे डेटा और उनके रुझानों को विभिन्न प्रकार की असमानताओं को समझने और उनका विश्लेषण करने की एक प्रमुख पद्धति के रूप में देखा गया है, और इसलिए नीति निर्माता ‘उपभोग कर’ के बारे में सोच सकते हैं जिसके तहत उच्च उपभोक्ता-उत्पादकों से आय अर्जित की जाती है. इसे ‘संपत्ति कर’ कहना, काफी घिसा-पिटा होगा और इससे संकट के दौर में निवेश करने वाला टॉप वर्ग हतोत्साहित हो सकता है.  

इसके अलावा आने वाले बजट में मोदी सरकार को तीन से पांच वर्ष की आर्थिक योजना की जरूरत पर जोर देना चाहिए, जैसे वित्त वर्ष 2021-2023 से, बजाय इसके कि वह 2047 की योजना (भारत के 100 वर्ष) के बारे में सीधे ही बोलने लगे.

छोटी से मध्यम अवधि की राजकोषीय नीति के रोडमैप से उसकी अपनी प्राथमिकताएं तय हो सकती हैं और व्यवसायों, परिवारों, बाहरी निवेशकों, सभी को सरकार की कार्य योजना पर अधिक स्पष्टता मिल सकती है और वे समझ सकते हैं कि किस रास्ते पर चलकर आर्थिक स्थिति सामान्य हो सकती है.

(केंद्रीय बजट 2023 पर हमारी स्पेशल सीरिज़ का यह तीसरा भाग है. भाग 1 और 2 को यहां पढ़ें. लेखक ओपी जिंदल ग्लोबल यूनिवर्सिटी में इकोनॉमिक्स के एसोसिएट प्रोफेसर हैं. वह इस समय कार्लेटन यूनिवर्सिटी के इकोनॉमिक्स डिपार्टमेंट में विजिटिंग प्रोफेसर हैं. उनका ट्विटर हैंडिल @Deepanshu_1810 है. यह एक ओपिनियन पीस है और ऊपर व्यक्त किए गए विचार लेखक के अपने हैं. द क्विंट न तो इसका समर्थन करता है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)

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