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दिसंबर 2015 में मैंने एक ब्लॉग लिखा, ‘दुल्हन के पिता के नोट्स’. शादी के आयोजन के लिए क्या करना है और क्या नहीं करना है, इसे लेकर इसमें एक माता-पिता की बुनियादी बातें थीं. अपनी बेटी की शादी से सीखा हुआ, उस पर आधारित यह हमारा अनुभव था.
शादी रूपी इस मनमोहक संस्थान के विभिन्न आयामों से जुड़े कराधान के बारे में खासतौर पर मुझसे लगातार सवाल हुए हैं. कुछ ने (दुर्भाग्यपूर्ण आत्माओं ने) तलाक समझौतों से जुड़े टैक्स अदायगी के भी सवाल उठाए.
संबंधित लोगों की चिन्ता से जुड़े लगातार पूछे जाने वाले सवालों की यह सूची है:
सबसे पहले कानून उपहारों पर टैक्स लगाता है. रकम के रूप में उपहार हो (अगर कुल रकम 50 हजार से ज्यादा हो) तो पूरी रकम पर टैक्स लगता है. ऐसे उपहारों पर भी टैक्स लगता है (अगर उसका बाजार मूल्य 50 हजार से ज्यादा हो) और अचल सम्पत्ति पर भी पूरा टैक्स लगता है (अगर स्टाम्प ड्यूटी का मूल्य 50 हजार से ज्यादा हो).
बहरहाल रकम या ऐसे ही रूप में या फिर अचल सम्पत्ति के तौर पर उपहार प्राप्त करना एक व्यक्ति के लिए खास परिस्थितियों में टैक्स फ्री होता है. मगर इस समय दो ऐसी परिस्थितियों पर चर्चा प्रासंगिक रहेगी. पहला, अगर उपहार रिश्तेदार से मिला हो, तो इसके लिए किसी अवसर की जरूरत नहीं है.
दूसरा, अगर उपहार व्यक्ति की शादी के मौके पर मिला हो. बाद वाले मामले में उपहार केवल रिश्तेदारों द्वारा नहीं दिए जाते. रिश्तेदार, मित्र, कॉलेज, कारोबार के सहयोगी या अन्य कोई भी उपहार दे सकता है, तो ये बहुत अच्छी खबर है.
कई लोगों से जुड़ा पहला मुद्दा यह है कि अगर मां-बाप अपने बच्चे की शादी के मौके पर उपहार के तौर पर रुपया (नकद या चेक) लेते हैं और उपहार को अपने पास रखने का फैसला करते हैं, तो क्या उन पर टैक्स की कोई देनदारी बनती है? कई मां-बाप शादी के खर्च को आंशिक रूप से वहन करने के लिए ऐसा करते हैं, इसलिए इस मामले में कोई धारणा न बनाएं (हमने तो सबकुछ अपनी बेटी को दे दिया).
लेकिन मुझे आशंका है कि अगर रुपये के रूप में उपहार 50 हजार से ज्यादा है, तो उस पर टैक्स लगेगा, चाहे वह दोनों में किसी भी पक्ष के माता-पिता के पास हो. चेक पर जिसका नाम लिखा होगा और जिसे नकद हाथों में दिया गया होगा, उसकी देनदारी होगी.
अदालती फैसलों के हिसाब से कानून बहुत स्पष्ट है- केवल वही व्यक्ति जिसकी शादी हो रही है, टैक्स फ्री रकम उपहार के तौर पर स्वीकार कर सकता है.
‘व्यक्ति विशेष की शादी’ वाला भाव अपने आपमें स्पष्ट है और वह स्वीकार नहीं करता कि अपने बच्चों की शादी में उसके मां-बाप ने कोई रकम उपहार के तौर पर स्वीकार की है. अगर कानून का मकसद मां-बाप को शामिल करना होता, तो जरूरी शब्द डाले जाते.
अगर मां-बाप रकम के तौर पर उपहार स्वीकार करते हैं और उसे अपने बच्चों के सुपर्द कर देते हैं, चाहे वह प्रत्यक्ष रूप में हो (नकद के मामले में) या फिर अपने बैंक अकाउंट में जमा करने के बाद उसे अपने बच्चों के खाते में ट्रांसफर करने के रूप में हो, मां-बाप पर टैक्स नहीं लगेगा.
जो उपहार मां-बाप अपने पास रख लें, उस मामले में क्या हो? एक बार फिर यह कर योग्य है, अगर उसका बाजार मूल्य 50 हजार रुपये से ज्यादा है. मान लें कि पिता ने 1 लाख रुपये मूल्य का उपहार हासिल किया और उन्होंने तय किया कि वे उसका स्वयं इस्तेमाल करेंगे, तो पूरी रकम ही कर योग्य हो जाएगी.
बेशक अगर शादी कर रही संतान उसे प्राप्त करती है, तो यह टैक्स फ्री है. अगर मां-बाप इसे बच्चे को हस्तांतरित करते हैं, तब उन्हें कोई टैक्स चुकाना नहीं होगा.
उस मामले में क्या हो, जब उपहार शादी के दिन न लिए जाएं, बल्कि उससे पहले संगीत या मेहंदी की रस्म पर लिए जाएं? अदालत ने कहा है कि अगर उपहार का संबंध शादी के अवसर से है या फिर उस गिफ्ट की वजह शादी है, तो इसे ‘शादी के अवसर पर’ माना जाएगा.
क्या हो अगर उपहार शादी के बाद दिए जाएं, मान लिया कि शादी के अगले दिन विदाई का मौका हो? अदालत ने व्यवस्था दी है कि ‘शादी के अवसर पर’ का मतलब सिर्फ शादी का उत्सव नहीं होता बल्कि वे उत्सव भी होते हैं, जो शादी के बाद दुल्हन के घर से दुल्हा-दुल्हन के विदा हो जाने के बाद हुआ करते हैं.
वास्तव में अदालतों ने सामान्य तौर पर यह व्यवस्था दी है कि चूंकि कई सालों तक उपहार दिए जाते हैं, इसलिए वे भी कर में छूट के दायरे में आएंगी. मगर इसके लिए यह संतोषजनक तरीके से साबित करना होगा कि दिए गये उपहार का संबंध शादी के समय उपहार दिए जाने के वादे से है या फिर यह साबित करना होगा कि कि किसी अच्छे और संतोषजनक कारणों से उपहार तब नहीं दिया जा सका था.
सगाई के समय उपहार? ओफ! वे करमुक्त नहीं हैं! अदालतों ने व्यवस्था दी है कि सगाई शादी का हिस्सा नहीं है. शादी और सगाई दो अलग-अलग व्यवस्थाएं हैं.
सगाई, निस्संदेह शादी की दिशा में एक कदम है लेकिन इसका शायद ही कोई मतलब रह जाता है अगर शादी टूट जाती है. जैसा कि पहले कहा गया है बेशक रिश्तेदारों से स्वीकार किए गये तोहफे सगाई समेत सभी अवसरों पर कर मुक्त हैं. लेकिन जब होने वाली सास अपनी होने वाली बहू को नकद या गहने के रूप में उपहार देना चाहती है, तो क्या होता है. दुर्भाग्य से यह कर के दायरे में है.
शादी के उत्सव से पहले इन दोनों के बीच कोई वैधानिक संबंध नहीं होता है. यहां तक कि इनकम टैक्स एक्ट में जो ‘रिश्तेदार’ की परिभाषा व्यापक रूप से है उसमें संभावित रिश्तेदार शामिल नहीं हैं. इसलिए भावी बहू को भावी सास का उपहार कर के दायरे में आएगा (अगर मान लिया जाए कि यह रकम 50 हजार से ज्यादा है.)
ऊपर के सभी मामलों में यह जरूरी है कि उपहार का संबंध देने वाले की वित्तीय स्थिति और दूल्हा-दुल्हन या परिवार के साथ उसके संबंध पर निर्भर करता है.
अगर एक ड्राइवर को 1 लाख 11 हजार रुपये देने थे, तो यह आपत्तिजनक बात होगी. इसी तरह अगर कोई अनजान व्यक्ति जो भले ही वित्तीय रूप से मजबूत हो, बहुत बड़ी रकम उपहार देता है, तो वह भी मुश्किल का कारण बन सकता है.
इसके अलावा उपहार स्वैच्छिक होने चाहिए. शादी हो इसके लिए उपहारों की मांग की शर्त दहेज विरोधी कानून के दायरे में आती है. उस स्थिति में दुल्हे और उसके मां-बाप के लिए कर छोटी समस्या होती है.
हालांकि हम प्रार्थना करते हैं कि सारी शादियां मरते दम तक बनी रहें, लेकिन तलाक एक वास्तविकता है. मानो दंपति का परेशान होना ही काफी नहीं हो, उन्हें वैसे टैक्स भी देने होते हैं, जो अब तक सामने नहीं आए थे. इसके लिए पास में पर्याप्त दलील होनी चाहिए.
तो कहें कि पत्नी तलाक से गुजाराभत्ता पाती हैं. गुजाराभत्ता एकमुश्त हो सकता है या फिर समय-समय पर दी जाने वाली राशि या फिर दोनों का समन्वय. आम तौर पर अदालतों ने इसे यह एकमुश्त अदायगी मानते हुए इसे पूंजी बताया है, इसलिए यह टैक्स के दायरे से बाहर है. तर्क ये है कि यह उपहार नहीं है.
तलाक के मामले में एकमुश्त राशि के रूप में यह मुआवजा ही शादी का खत्म होना मान लिया जाता है. इसलिए ऐसी अदायगी उपहार नहीं कही जा सकती. इस वजह से इस पर टैक्स नहीं लगता.
बहरहाल, दुर्भाग्य से मासिक गुजारा भत्ता तलाक के बाद नियमित और एक समय के अंतराल पर देय राशि होती है, जिसे टैक्स के दायरे में रखा गया है. यह गलत है क्योंकि दोनों परिस्थितियों में मौजूदा सिद्धांत एक जैसे हैं.
किश्तों में हासिल की गयी रकम पर भी टैक्स नहीं लगना चाहिए. ऐसा लगता है कि ऐसे भेदभाव की ओर ध्यान खींचने वाला कोई भेदभाव नहीं होता. इससे अलावा पूर्व पत्नी को दी गयी मासिक रकम उसके गुजारे के लिए होता है, इसलिए यह उसकी आमदनी नहीं होती. यह व्यक्तिगत प्राप्ति होती है न कि आय के रूप में.
विडम्बना ये है कि मासिक गुजाराभत्ता देने के बजाए अगर पूर्व पति कुछ खर्चों को वहन करता है जैसे बच्चों की पढ़ाई पर खर्च या मकान का किराया या फिर दूसरे खास खर्चे, तो उस पर कोई टैक्स देय नहीं होता है. गुजारा भत्ता देने वाले पति के लिए ऐसा कोई प्रावधान नहीं है, जो उसे अपनी आमदनी से ऐसी अदायगी पर कर-कटौती का लाभ दिला सके.
संपत्ति के बारे में क्या? एकमुश्त गुजाराभत्ता की तरह तलाक की शर्त के अंतर्गत संपत्ति की एक मुश्त प्राप्ति पूंजीगत प्राप्ति है. इसलिए यह टैक्स के दायरे से बाहर है. यहां यह बात भी जोड़ना जरूरी है कि पति से पत्नी की ओर प्रवाहित गुजाराभत्ता बस एक उदाहणरभर है. दूसरे तरीके से भी यह हो सकता है.
बात यहीं खत्म नहीं होती. तलाक से पूर्व उपहार में दी गयी किसी भी संपत्ति से होने वाली आमदनी पति की आय के साथ तब तक जुड़ी रहेगी, जब तक शादी बरकरार रहेगी. तलाक के बाद पूर्व पत्नी के हाथ में ऐसी किसी भी संपत्ति से होने वाली आमदनी पर टैक्स लगेगा. चलो एक बार फिर से अजनबी बन जाएं हम दोनों ...यह भावनात्मक गीत अलग होने वाली जोड़ी के लिए भावनात्मक और वित्तीय दोनों रूपों में तगड़ा झटका है.
कुल मिलाकर बहुत बुरा नहीं है. अपने गाने ‘टैक्समैन’ में जॉर्ज हैरिसन ने हमें बताया है कि यह कैसा होगा. वे चेताते हैं, एक तुम्हारे लिए, 19 मेरे लिए. शादी और तलाक के मामले में मैं शायद आपके लिए 15 रखता हूं और 5 टैक्समैन के लिए.
(अजय मनकोटिया पूर्व आईआरएस अफसर हैं, जो वर्तमान में एक मीडिया कम्पनी में काम करते हैं. यह उनकी निजी राय है और ऊपर व्यक्त लेखक के अपने हैं. द क्विन्ट न तो इसकी वकालत करता है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)
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