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(Union Budget 2023 से जुड़े सवाल? 3 फरवरी को राघव बहल के साथ हमारी विशेष चर्चा में मिलेंगे सवालों के जवाब. शामिल होने के लिए द क्विंट मेंबर बनें)
भारतीय अर्थव्यवस्था (Indian Economy) का मौजूदा हाल क्या है? और अगर हम आगामी केंद्रीय बजट 2023 के लिए अंदाजा लगा सकते हैं, तो फिर फिस्कल रोडमैप को प्राथमिकता देने को लेकर बजट में क्या कदम उठाए जा सकते हैं?
इन दोनों ही सवालों का जवाब इस वित्त वर्ष (FY23) के पॉलिटिकल इकॉनॉमी के संदर्भ में ही दिया जा सकता है, क्योंकि अगले साल होने वाले चुनाव से पहले यह आखिरी फुल बजट है क्योंकि अगले साल तो आंशिक बजट ही पेश किया जाना है. इस प्रकार, सरकार अभी बजट में क्या करती है और 2024 चुनाव से पहले के कुछ महीने में क्या कुछ करेगी इसे ही हमें ज्यादा देखना होगा. गरीबों के लिए 'मुफ्त राशन' योजना का विस्तार करने का हालिया कदम पहले से ही एक प्रमुख चुनावी कदम है.
केंद्रीय बजट (किसी भी अन्य बजट की तरह) एक दिए गए साल के लिए सरकार की मैक्रो-फिस्कल स्थिति और उसके खर्चे के लिए प्राथमिकता को समझने के लिए सबसे महत्वपूर्ण टूल है.
पिछले कुछ बजट सैद्धांतिक रूप से 'महामारी वाले बजट' थे, जो असाधारण संकटों को देखते हुए तैयार किए गए थे. सरकार को स्वास्थ्य सेवा (कोविड-इन्फ्रास्ट्रक्चर को सक्षम करने, टीके खरीदने आदि) जैसी फौरी चीजों पर ज्यादा खर्च करने की जरूरत थी. विकास को बनाए रखने के लिए कैपेक्स को बढ़ाना था (यह देखते हुए कि अधिकांश निजी क्षेत्र महामारी के दौर में कम निवेश या कम खर्चे कर रहे थे) .
यहां तक कि ग्रामीण आबादी के लिए रोजगार केंद्रित सामाजिक सुरक्षा योजना मनरेगा में भी पिछले बजट की तुलना में खर्च में कटौती देखी गई. दुर्भाग्य से, वित्त मंत्री ने जो पेशकश की, उसमें से अधिकांश मुद्दों को सरकार के राजकोषीय रोडमैप में स्पष्ट रूप से नजरअंदाज कर दिया.
सालाना GDP दर और महंगाई यानि CPI के आंकड़ों पर नजर डालते हैं.
2020 के बाद, भारत का ग्रोथ रेट गिर गया (यह महामारी के आने से पहले से ही कम था या और ज्यादा अपने निचले स्तर पर था). हालांकि FY23 की दूसरी तिमाही को देखते हुए, हम प्री-कोविड लेवल पर पहुंच गए लेकिन यह बड़े पैमाने पर कंजम्पशन में खर्च बढ़ने (ज्यादातर उच्च आय वर्ग की तरफ से खर्च), महंगाई बढ़ने से है.
यह चिंताजनक है. यहां की समग्र आर्थिक स्थिति को देखते हुए केंद्र सरकार पर दोनों ही तरफ 'अधिक खर्च' करने का भारी दबाव है. कैपिटल एक्सपेंडिचर केपेक्स के लिए भी जरूरी है. खासकर तब जब प्राइवेट निवेश से उम्मीद नहीं दिख रही. इसके अलावा सरकार को सोशल सिक्योरिटी स्कीम, नौकरी के मौके पैदा करने, विकास की रफ्तार को तेज करने के लिए खर्च बढ़ाने की जरूरत है.
अब तक, निर्मला सीतारमण का बजट मुख्य तौर पर विकास को रफ्तार देने के लिए सरकारी कैपेक्स को बढ़ाने वाला रहा लेकिन अगर सरकार यह दावा करती है कि वह ग्रोथ को गति देने के लिए (बढ़ी हुई पूंजीगत व्यय के माध्यम से) खर्च बढ़ाना चाहती है तो इसके नतीजे अभी यहां मिलने वाले नहीं हैं.
जैसा कि डॉ राथिन रॉय ने हाल ही में सुझाव दिया था, “केंद्र सरकार का कैपेक्स अगर दूसरे पब्लिक सेक्टर के कैपेक्स का विकल्प बनता है तो इसका बहुत कम असर अभी देखने को मिलेगा. हाल के कुछ विश्लेषणों से पता चलता है कि केंद्र (संघ) सरकार, राज्यों और सार्वजनिक क्षेत्र का समग्र कैपेक्स इस वित्तीय वर्ष में कम हो गया है. यदि यह सही है, तो इसका मतलब यह हुआ है कि केंद्र का सरकारी कैपेक्स बढ़ाए जाने से राज्यों और पब्लिक सेक्टर के कैपेक्स में गिरावट आ रही है.
और यह अच्छी खबर नहीं है.
निजी क्षेत्र ने भी उत्पादन से जुड़ी प्रोत्साहन (PLI) योजनाओं, कॉरपोरेट टैक्स में कटौती, बड़े पैमाने पर ढांचागत सरकारी खर्च आदि के माध्यम से सरकार ने जो कुछ कदम उठाए उसका बहुत फायदा निजी सेक्टर उठा नहीं पाया है. PLI योजना को मिली जुली सफलता ही हासिल हुई है.
इसलिए यहां चिंताएं ज्यादा बड़ी हैं...आखिर आगे कैसे बढ़ें, और वो बड़ी परेशानी क्या है?
पिछले कुछ वर्षों से केंद्र सरकार के अपने टैक्स रेवेन्यू और नॉन टैक्स रेवेन्यू के हालात बहुत खराब रहे हैं, बावजूद इसके सरकार कैपेक्स पर खर्च बढ़ाना चाहती है. बजट का 65% से अधिक हिस्सा रेवेन्यू एक्सपेंडेचर पर है (बहुत ज्यादा ब्याज भुगतान लागत और सरकारी मजदूरी/वेतन, सामाजिक कल्याण जरूरतों के कारण).
इस सरकार ने 'विकास पर खर्च' की जरूरत को दिखाते हुए ऐसा कदम अब तक उठाया लेकिन अब यह सब करने के लिए इनके पास बहुत कम पैसे बचे हैं.
अगर रेवेन्यू के दूसरे सोर्स की बात करें तो मोदी सरकार इसमें साल दर साल फेल ही रही है. क्योंकि उसने अपने लिए विनिवेश के जो लक्ष्य निर्धारित किए उसे ही वो साल दर साल पूरा कर नहीं पा रही है.
इसलिए, यह मानते हुए कि सरकार अभी भी विकास के लिए कैपेक्स पर खर्च करना चाहती है, उसे अपने घाटे के खर्च को पूरा करने के लिए या तो आंतरिक रूप से या बाहरी रूप से उधार लेना होगा.
किसी भी जरूरत को पूरा करने के लिए अधिक उधार लेने से महंगाई जो कि पहले से ही काफी परेशानी बढ़ा रहा है, उसके और बेकाबू होने की आशंका है, क्योंकि पैसे की सप्लाई बढ़ने से कीमतें ज्यादा भागेंगी और रुपए की स्थिति और भी खराब होगी (ये साल पहले से ही भारतीय रुपया के लिए बहुत खराब रहा है). इसलिए, ज्यादा महंगाई वाला चक्र और इसके जरिए खपत बढ़ाने से गरीबों की स्थिति और खराब होती जाएगी और खासकर ऐसे समय में जब उनके लिए जो योजनाएं होती हैं उनको लेकर सरकार पहले से ही काफी समझौता कर चुकी है.
लेकिन अगर सरकार फिर भी कम से कम इस साल ज्यादा खर्च करने के बारे में सोचती है (या तो कैपेक्स पर या रेवेन्यू एक्सपेंडिचर पर) तो यह हो पाएगा या नहीं, यह अभी अनिश्चित है.
केंद्र सरकार वास्तव में इस बजट में क्या कर सकती है, सुरक्षित एक्शन ले सकता है.
क्या ऐसा करना सही है? शायद सही हो, लेकिन केंद्र सरकार से एक सवाल पूछा जाना चाहिए:
पिछले कुछ बजट में सारा पैसा कैपेक्स, निजी निवेश बढ़ाने पर क्यों खर्च किया गया, जबकि ग्रोथ पर इसके असर दिखे नहीं ?
महामारी के दौरान नौकरी बढ़ाने वाली सोशल सिक्योरिटी स्कीम (शहरों में MGNREGA) या ग्रामीण मनरेगा को ज्यादा प्रोत्साहित करने की गुंजाइश थी, जहां गांवों में नौकरी की डिमांड बहुत ज्यादा अंतर से बढ़ी थी. इससे केपेक्स पर बढ़े खर्च का फायदा मिलता ,लेकिन ऐसा हुआ नहीं.
'बाजार' और 'सरकार' की विफलताओं के कारण मनरेगा जैसी योजनाएं या फिर दूसरी नौकरी केंद्रित सामाजिक कल्याण योजनाएं काफी अहम रही हैं, क्योंकि देश लंबे समय तक 'बिना नौकरी के ग्रोथ यानि जॉबलेस ग्रोथ' का साक्षी रहा है.
भारत के विकास का डिजाइन बहुत लंबे समय से 'शहरी-सेवा' सेक्टर की तरफ झुका रहा है. यह अनऑर्गेनाइज्ड सेक्टर की कीमत पर है. यह मैन्युफैक्चरिंग और कृषि क्षेत्र में काफी कमजोर या फिर खराब प्रदर्शन वाला रहा है.
इस तरह की योजनाएं शायद एकमात्र उपाय हैं, जहां बेरोजगार (विशेष रूप से ग्रामीण और अर्ध शहरी क्षेत्रों में) कुछ मेहनत मजूरी करके अपने लिए रोजी रोटी का इंतजाम कर सकते हैं (यह भले ही काफी कम हो लेकिन जब बात बेरोजगारी बनाम आंशिक रोजगार की हो तो बिना नौकरी के होने से थोड़ा बहुत कुछ मिल जाना बेहतर होता है).
लेकिन, अगर सरकार सप्लाई साइड इकोनॉमिक्स वाला रास्ता अपनाती है (जिसे मैंने ऊपर रेखांकित किया है), तो हम कमजोर और गरीबों के लिए सामाजिक क्षेत्र में खर्च के हिसाब से एक और खराब साल देख सकते हैं . मतलब इसका ये होगा कि महिला-बच्चे के लिए कम पैसे, पोषण में कमी, मनरेगा और दूसरी नौकरी केंद्रित सामाजिक कल्याण योजनाओं के लिए खर्च में कटौती.
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