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रिजर्व बैंक ने रेपो रेट नहीं बढ़ाया तो डॉलर के सामने रुपया लड़खड़ाकर 74 के पार निकल गया. कुछ दिन पहले तक 75 पहुंचना दूर लग रहा था पर अब तो 80 भी दूर नहीं लगता.
रुपए को एकसाथ कई बीमारी हो गई हैं. एक्सपोर्ट के मोर्चे पर परेशानी, क्रूड महंगा होने की दिक्कत, शेयर बाजार से भरोसा डिगने पर पैसे निकाल रहे विदेशी निवेशक. चक्कर इतना घनचक्कर हो गया है कि रिजर्व बैंक ने कर्ज महंगा होने से रुकने के लिए रेपो रेट नहीं बढ़ाया तो रुपया ही रूठ गया.
जानकारों के मुताबिक रुपए में बेवजह कमजोरी आना फिक्र की वजह है. लेकिन बीमारी इतनी जटिल हो गई है कि सीधा इलाज सरकार के पास नहीं है.
इसलिए रुपए में कमजोरी से बेफिक्र रहने की सलाह देने वालों से सावधान रहें. जानकारों के मुताबिक इसलिए रुपए में आ रही गिरावट रोकना जरूरी है. अगर इसका गिरना इतना ही फायदेमंद होता तो रिजर्व बैंक उसे संभालने के लिए पिछले कुछ महीनों में विदेशी मुद्रा भंडार से 24 अरब डॉलर बेचने नहीं पड़ते. अप्रैल 2018 में भारत का विदेशी मुद्रा भंडार 425 अरब डॉलर था जो अब करीब 400 अरब डॉलर तक आ चुका है.
सस्ता और महंगा समझने का सबसे आसान फॉर्मूला है डिमांड और सप्लाई का संतुलन. डॉलर की डिमांड ज्यादा है इसलिए रुपये के मुकाबले वो मजबूत हो रहा है.
इसलिए जो लोग कहते हैं रुपए में कमजोरी वरदान है वो पूरी तरह सही नहीं हैं. इस वक्त तो रुपए की कमजोरी का मतलब है डॉलर देश से बाहर जा रहा है निवेशक आशंका और घबराहट में पैसा निकाल रहे हैं और सुरक्षित जगह पर लगा रहे है
इस साल (2018) की शुरुआत से रुपया 10 परसेंट गिर चुका है. जो दूसरी बड़ी उभरती एशियाई देशों की करेंसी के मुकाबले ज्यादा है. इस वक्त 1 डॉलर के बदले 74 रुपए से ज्यादा मिल रहे हैं.
एक्सपोर्टर को जितना फायदा होगा उससे कई गुना बोझ इंपोर्ट महंगा होने और महंगाई बढ़ने से होगा. फिर रुपए को थामने के लिए रिजर्व बैंक को करोड़ों डॉलर बेचने पड़ेंगे सो अलग.
रुपया में गिरावट की कुछ वजह विदेशी हैं लेकिन घरेलू दिक्कतों ने भी परेशानी बढ़ाई है.
देखिए ट्रेड डेफिसिट शब्द भारी भरकम है लेकिन आसान तरीके से बताता हूं. जोड़ घटाने की तरह है. एक्सपोर्ट करने में जो डॉलर देश कमाता है और इंपोर्ट करने में जो डॉलर खर्च होते हैं उसके बीच का फर्क. इंपोर्ट ज्यादा है तो करेंट अकाउंट डेफिसिट और एक्सपोर्ट ज्यादा है तो करेंट अकाउंट सरप्लस.
जर्मनी या चीन जैसे कई देश एक्सपोर्ट में डॉलर कमाते ज्यादा हैं और इंपोर्ट में खर्च कम करते हैं इसलिए उनका ट्रेड सरप्लस होता है. लेकिन भारत एक्सपोर्ट कम करता है और इंपोर्ट में डॉलर ज्यादा खर्च करता है इसलिए ट्रेड डेफिसिट (घाटे) का शिकार रहता है.
लेकिन जब ये चालू खाता एक लिमिट से ज्यादा बढ़ जाए तो इकनॉमी को दिक्कत देने लगता है. समझिए रुपए के लिए मुसीबत और रुपए को यही बीमारी लग गई है.
ट्रेड डेफिसिट
भारत ने 2017-18 में 160 अरब डॉलर का ज्यादा सामान इंपोर्ट किया और इस साल ये 190 डॉलर पार कर सकता है. अब रुपया कमजोर होने से इंपोर्ट और महंगा हो जाएगा और एक्सपोर्ट सस्ता हो जाएगा. इसलिए अंतर और बढ़ जाएगा. हम एक्सपोर्ट के मुकाबले इंपोर्ट ज्यादा करते हैं इसलिए बोझ ज्यादा बढ़ेगा.
जैसे कमजोर रुपया क्रूड को और महंगा बना देगा. महंगा क्रूड मतलब पेट्रोल और डीजल भी महंगा.
डॉलर की भरपाई करने के लिए इसे लाने के नए तरीके निकालने होंगे. मतलब ज्यादा निवेश आए. इसके दो तरीके हैं या तो इकनॉमी मजबूत हो तो निवेशक खुद ब खुद आएंगे. पर अभी इस मोर्चे पर थोड़ा प्रेशर है इसलिए रिजर्व बैंक को डॉलर निवेश आकर्षित करने के लिए कोई स्कीम लानी होगी.
जब घबराहट बढ़ती है तो मामला उलझ जाता है. जैसे डॉलर महंगा होने की वजह से इंपोर्टर्स डॉलर की जमाखोरी भी करने लगते हैं इससे रुपया और कमजोर होता है. वैसे भी अभी इंपोर्ट, एक्सपोर्ट से करीब दूना है.
पूरी दुनिया में इमर्जिंग देशों की करेंसी दबाव में हैं. इसलिए रुपये के कमजोर होने से एक्सपोर्ट को बड़ा फायदा मिलने की उम्मीद में खास दम नहीं है. चीन भी बदले की कार्रवाई कर रहा है, हालांकि अभी तो लग रहा है कि अमेरिका को फायदा हो रहा है. क्योंकि वहां इकनॉमी तंदुरुस्त हो रही है. और ब्याज दरें भी बढ़ रही हैं और इसलिए रुपए में अभी प्रेशर आगे दिखता रहेगा.
रुपए के मजबूत करने का सिंपल फॉर्मूला यही है कि घरेलू इकनॉमी में भरोसा बढ़ाया जाए ताकि निवेशक ठहरें और नया इन्वेस्टमेंट भी आए. जब तक ऐसा ना हो तब तक मुमकिन है कि रिजर्व बैंक डॉलर लाने की कोई इन्वेस्टमेंट स्कीम ही ले आए.
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