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इस महीने की 19 तारीख को सायरस मिस्त्री ने वो काम किया, जो इससे पहले टाटा सन्स और टाटा समूह में साढ़े चार साल रहते हुए उन्होंने कभी नहीं किया था. अपने पहले वीडियो मैसेज (रिकॉर्डेड) में मिस्त्री ने रतन टाटा और टाटा सन्स से एक ‘बड़े मैदान’ में जंग छेड़ने का अपना मकसद जाहिर कर दिया. मिस्त्री के इस ऐलान का मतलब कानूनी लड़ाई से है.
मिस्त्री ने इस ऐलान से पहले टाटा की छह कंपनियों – इंडियन होटेल्स कंपनी लिमिटेड, टाटा स्टील लिमिटेड, टाटा मोटर्स लिमिटेड, टाटा पावर लिमिटेड, टाटा केमिकल्स लिमिटेड और टाटा बेवरेज लिमिटेड के बोर्ड से इस्तीफा दे दिया. मिस्त्री अब तक टाटा सन्स की ओर से खुद को इन कंपनियों के बोर्ड से हटाने की हर कोशिश की जबरदस्त विरोध करते आए थे. उनके विरोध की वजह से टाटा सन्स ने एक के बाद एक ईजीएम बुलाकर उन्हें हटाने की प्रक्रिया पूरी की थी.
पिछले सप्ताह टीसीएस की भावुक और गर्मागर्मी वाली ईजीएम में प्रमोटर की ताकत बीस साबित हुई. टीसीएस में टाटा सन्स की 73.26 फीसदी हिस्सेदारी ने साइरस को बाहर जाने के मजबूर किया. वह अपनी पहली लड़ाई हार गए.
ईजीएम की लड़ाइयों के बाद ऐसा क्या हुआ कि मिस्त्री ने अपना मन बदल दिया?
सवाल: आखिर यह लड़ाई कहां जाकर रुकेगी?
जवाब: मेरी सबसे बड़ी चिंता इस बात को लेकर थी क्या मैं किसी कंपनी को अपने नियंत्रण में ले पाऊंगा. मेरी इस चिंता का काफी हद तक ब्योरा मेरी चिट्ठी और मेरे वीडियो बयान में है.
टाटा समूह से पिछले 50 साल का हमारा जुड़ाव एक ऐसी चीज है, जिस पर हमें बहुत ज्यादा गर्व है.
अतीत में कई बार ऐसा वक्त आया जब चैरिटी ट्रस्ट के पास वोटिंग के अधिकार नहीं थे. ऐसे वक्त में हम बैठकों में गैर हाजिर रह सकते थे या अपने अधिकारों का इस्तेमाल कर सकते थे. लेकिन हमने ऐसा नहीं किया.
जब मुझे टाटा समूह का चेयरमैन बनाया गयाए, तब भी मेरे मन इसकी कोई लालसा नहीं थी. लेकिन यह एक ऐसा पद था, जिससे जुड़ कर मुझे गर्व था. इस पद को मैंने चुनौती की तरह लिया था.
आइए अब 2016 में चलते हैं. 24 अक्टूबर से अब तक मेरा मैसेज एक ही रहा है. मैं क्या चाह रहा था? यही न कि संगठन (टाटा समूह) के अंदर काम करते हुए हम पहले यह तय करें कि इसमें गवर्नेंस स्ट्रक्चर दुरुस्त रहें. चाहे वे गवर्नेंस स्ट्रक्चर टाटा ट्रस्ट और टाटा सन्स के बीच के हों या समूह के अन्य कंपनियों के बीच. टाटा ट्रस्ट के अंदर गवर्नेंस नियमों को मैं तय नहीं कर सकता था. लेकिन मैं टाटा ट्रस्ट और टाटा सन्स और इसकी कंपनियों के बीच इसे तय कर सकता था.
दूसरी अहम बात यह है कि पिछले कुछ बोर्ड मीटिंगों में मैंने कुछ नैतिक सवाल उठाने शुरू किए. मुझे लगता है इन्हीं सवालों ने उन्हें 24 अक्टूबर कदम उठाने को उकसाया होगा. वरना मुझे समझ में नहीं आता कि उन्होंने यह कदम क्यों उठाया. मेरा कार्यकाल अगले साल मार्च में वैसे भी खत्म हो रहा था.
इस माहौल में टाटा में रहने से जरूरत से ज्यादा नुकसान हो रहा था. टाटा में रहते मेरे सबसे बड़ी चिंता यह था कि क्या मैं इसकी किसी कंपनी का नियंत्रण अपने हाथ में ले सकूंगा. इस माहौल में यह मुश्किल था.
मैंने टाटा में अपने बारे में कभी सोचा भी नहीं था. मैं सिर्फ यह देखना चाहता हूं संस्थान पूर तरह सुरक्षित रहे. मेरी लड़ाई अब एक अलग मैदान में पहुंच गई है.
सवाल: टाटा सन्स ने समूह की कंपनियों से आपको हटाने के लिए जो नोटिस भेजा था, उसमें कहा गया था कि अगर प्रमोटर की मर्जी नहीं चली, तो कंपनियां टाटा ब्रांड इस्तेमाल करने के अपना अधिकार खो सकती हैं. साफ था कि पैरेंट कंपनी को हर वह दांव चलना था जिससे आपको किसी शेयरहोल्डर का वोट न मिले. आपका लक्ष्य क्या था? अगर कंपनी के शेयरहोल्डर आपके पक्ष में वोट देते तो यह कैसे संभव होता? वैसी स्थिति में जब प्रमोटर आपको बाहर करना चाहते थे.
जवाब: मैं आपसे सहमत हूं. जिस तरह का व्यवहार उन्होंने किया वह पूरी तरह किसी भी तरह के कॉरपोरेट गवर्नेंस के खिलाफ था. वैसी स्थिति में तो और भी जब आप वास्तव में अपनी ही कंपनियों का बचाव कर रहे हों. बड़ा सवाल यह है कि क्या आप चीजों को इस हद तक ले जा रहे हैं, जहां अपना ही नुकसान कर बैठें. उन्होंने यही किया और यही वे कर सकते थे.
सवाल: क्या आप यही जानना चाह रहे थे? क्या आप यह देखना चाहते थे कि आपको हटाने के लिए वे किस हद तक जानना चाहते हैं?
जवाब: मैं समझता हूं कि लोग यह देख रहे थे गवर्नेंस के अपने मामले निपटाने के लिए वे क्या करेंगे. और जो मैंने देखा उसमें पूरी तरह गिरावट नजर आ रही थी.
सवाल: उनके किस काम ने आपको चौंकाया. आखिर, टाटा सन्स ने तो पैरेंट कंपनी के तौर पर अपने अधिकार का तो इस्तेमाल किया है, ताकि समूह की कंपनियां इससे दूर न चली जाएं. उन्होंने आपको खिलाफ सिर्फ अपना प्रस्ताव पारित किया.
जवाब: मेरा मानना है कि उन्होंने स्वतंत्र निदेशकों पर दबाव डाला. आप अखबारों में ऐसी खबरें पढ़ चुके हैं. इसी तरह का व्यवहार उन्होंने शेयरहोल्डरों के साथ किया.
सवाल: क्या संस्थागत निवेशकों के साथ भी इसी तरह का व्यवहार हुआ?
जवाब: जी, संस्थागत निवेशकों के साथ भी ऐसा हुआ.
सवाल: क्या एलआईसी के साथ टाटा सन्स की लॉबिंग आपकी परेशानी की सबब थी.
जवाब: मुझे नहीं लगता कि एलआईसी उनके साथ थी. क्योंकि एलआईसी ईजीएम में नहीं थी (टीसीएस, ईजीएम में नहीं थी). इसलिए मुझे नहीं लगता थी एलआईसी ने उनका साथ दिया. देखिये, यह जीत-हार का मामला नहीं है. पूरा विमर्श सुधार को लेकर है. संस्थागत निवेशक यह कह रहे हैं कि हां, हमें सुधार चाहिए.
तो हमने पिछले आठ सप्ताह के दौरान क्या हासिल किया? हम इस दौरान बड़े स्तर पर संवाद कायम करने में सफल रहे. अब यह देखिये कि बड़ी तादाद में लोग हमारी धारा पर सोचने लगे हैं. यह मुद्दा बातचीत की टेबल पर आना चाहिए. लेकिन उन्होंने यह भी कहा, साइरस आपके टाटा में रहते हमें नहीं लगता है कि हम इन मुद्दों (सुधार के) उठा पाएंगे.
सवाल: अब संस्थागत निवेशक कैसे इस मुद्दे को उठाने की उम्मीद पाले बैठे हैं. आपको क्या लगता है आपके लड़ाई के एक हिस्से से हटने के बाद वे सुधार के मुद्दे पर अपनी आवाज बुलंद करते रहेंगे?
जवाब: मुझे लगता है कि वे इस मुद्दे को उठाते रहेंगे क्योंकि संस्थागत निवेशकों में सिर्फ भारतीय नहीं हैं. टाटा में कई अंतरराष्ट्रीय संस्थागत निवेशक हैं. और उन्होंने सुधार के मुद्दों को उठाना शुरू कर दिया है. मैं समझता हूं कि आने वाले दिनों में आपको संस्थागत शेयरहोल्डरों की ओर से और एक्टिविज्म देखने को मिलेगा. ताकि हालात सुधरें.
सवाल: तो पिछले आठ सप्ताह के दौरान यही आपकी स्ट्रेटजी रही? हम समझना चाह रहे थे कि अगर आप कुछ कंपनियों का नियंत्रण पाने में कामयाब रहते हैं तो आगे किस चीज की उम्मीद की जा सकती थी.
जवाब: मेरा मानना है कि पूरा मुद्दा गवर्नेंस में सुधार का मुद्दा आगे लाने का है. हमें यह देखना है कि हम सुधार लागू करने में अपनी सकारात्मक भूमिका कैसे अदा करें. बोर्ड में मैं सकारात्मक विचारों को लागू करने के लिए रहना चाहता था. मैं चाहता था कि सुधारों को सुनिश्चित करूं. अब अगर मैं बोर्ड में सकारात्मक न रह पाऊं तो बेहतर यही होगा कि मैं इसमें न रहूं.
(टाटा सन्स के पूर्व चेयरमैन साइरस मिस्त्री से इंटरव्यू का पहला हिस्सा. पाठकों की सुविधा के लिए ट्रांसस्क्रिप्ट में थोड़ा संपादन किया गया है.)
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