advertisement
इस साल शेयर बाजार के परफॉर्मेंस की दो हाइलाइट्स रही हैं. पहली कि बाजार ने (सेंसेक्स और निफ्टी के रूप में) नई ऊंचाइयां छुईं. दूसरी ये कि लाखों नए इन्वेस्टर (ज्यादातर म्यूचुअल फंड में निवेश के जरिए) शेयर बाजार से जुड़ गए. लेकिन इसकी एक और हाइलाइट रही, जिस पर काफी कम लोगों ने ध्यान दिया.
बाजार के इस बुल रन का ट्रिगर क्या था? अप्रैल से शुरू हुए नए कारोबारी साल की पहली तिमाही के नतीजे हों या जीडीपी के आंकड़े, कहीं भी ऐसे संकेत नहीं थे कि इकोनॉमी में ‘बुल रन’ है, तो फिर शेयर बाजार में ‘बुल रन’ क्यों?
लिस्टेड कंपनियों के तिमाही नतीजों पर नजर डालें, तो पहली तिमाही में निफ्टी की 50 में से सिर्फ 13 कंपनियां ऐसी थीं, जिन्होंने बाजार की उम्मीद से बेहतर नतीजे दिखाए. बाकी कंपनियां या तो उम्मीद से कमजोर रहीं, या फिर बस उन पर खरी उतर पाईं.
कंपनियों के नतीजे तो फीके रहे ही, जीडीपी ग्रोथ के आंकड़े भी निराशाजनक थे. अप्रैल-जून तिमाही में ग्रोथ रेट रही 5.7% जिससे ये साफ हुआ कि इकोनॉमी में ‘सब कुछ’ ठीक नहीं है. लेकिन इन दोनों बड़ी निगेटिव खबरों के बावजूद शेयर बाजार की तेज चाल जारी रही और इसका सारा श्रेय जाता है, उस पैसे को जो निवेशकों ने म्यूचुअल फंड में लगाए हैं.
म्यूचुअल फंडों में आए इस पैसे के पीछे मुख्य रूप से दो वजह हैं. पहली कि लोगों के पास बेहतर रिटर्न वाले निवेश के विकल्प नहीं हैं, एफडी और छोटी बचत योजनाओं में ब्याज दर लगातार कम होती जा रही है. सोना और प्रॉपर्टी, जिनमें भारतीय पारंपरिक रूप से निवेश करते आए हैं, में पैसे लगाना अब फायदेमंद दिख नहीं रहा है.
दूसरी वजह यही है कि इक्विटी म्यूचुअल फंड ने पिछले 3 साल में जैसे रिटर्न दिए हैं, उससे निवेशकों का रुझान शेयर बाजार की तरफ बढ़ गया है. और खास बात ये है कि म्यूचुअल फंड की मिडकैप और स्मॉलकैप स्कीमों में ये पैसा ज्यादा आया है. पिछले तीन साल के म्यूचुअल फंड के रिटर्न देखकर ये बात समझ में आती है कि आखिर क्यों लोगों ने मिडकैप और स्मॉलकैप स्कीमों में ज्यादा पैसे लगाए हैं.
अब तक मिले रिटर्न तो शानदार हैं, लेकिन अब ये सवाल है कि अगर इकोनॉमी की ग्रोथ और कंपनियों की कमाई में सुधार नहीं होता तो सिर्फ लिक्विडिटी के बल पर शेयर बाजार कब तक टिका रहेगा.
मार्क स्कूसेन का ये सूत्र रिटेल निवेशकों को पता हो या नहीं, विदेशी पोर्टफोलियो निवेशकों को शायद याद है. तभी तो विदेशी पोर्टफोलियो निवेशक भारतीय बाजारों से पीछे हटने लगे हैं. अगस्त और सितंबर के दो महीनों में विदेशी निवेशकों ने यहां से करीब 24,000 करोड़ रुपए निकाल लिए हैं. सितंबर में एफपीआई ने 11,392 करोड़ रुपए और अगस्त में 12,770 करोड़ रुपए के शेयर बेच दिए. इसके पहले के 6 महीनों यानी फरवरी से जुलाई के दौरान विदेशी पोर्टफोलियो निवेशकों ने 62,000 करोड़ रुपए से ज्यादा का निवेश किया था.
ब्लूमबर्ग क्विंट से बातचीत में बजाज कैपिटल के वाइस प्रेसिडेंट और इन्वेस्टमेंट एनालिटिक्स हेड आलोक अग्रवाल ने इसकी वजह बताई.
अंतरराष्ट्रीय एजेंसियां भी जीडीपी ग्रोथ को लेकर अपने अनुमान घटा रही हैं. हाल ही में फिच रेटिंग्स ने वित्त वर्ष 2017-18 का जीडीपी ग्रोथ अनुमान 7.4 फीसदी से घटाकर 6.9 फीसदी कर दिया है. वहीं पिछले महीने एशियाई विकास बैंक ने भी इसे 7 फीसदी कर दिया था. बैंक ने इसकी वजह बताई थी प्राइवेट कंजप्शन, मैन्युफैक्चरिंग आउटपुट और बिजनेस इन्वेस्टमेंट में कमजोरी.
विदेशी निवेशक सतर्क जरूर हुए हैं लेकिन उनका भरोसा पूरी तरह खत्म नहीं हुआ है. सीएलएसए के इंडिया स्ट्रैटेजिस्ट महेश नंदूरकर ने ब्लूमबर्ग क्विंट को बताया कि कंपनियों के नतीजे सुधरने में एक तिमाही या उससे ज्यादा वक्त लग सकता है. उनका मानना है कि अक्तूबर-दिसंबर तिमाही से रिकवरी लौटेगी और आने वाली दो तिमाहियों तक जारी रहेगी, क्योंकि नोटबंदी और जीएसटी की वजह से पिछली कुछ तिमाहियों के नतीजे प्रभावित हुए थे.
लेकिन इसी के साथ दूसरा तथ्य ये भी है कि शेयर बाजार से वैसे रिटर्न की उम्मीद निवेशकों को नहीं करनी चाहिए, जैसा पिछले साल भर या तीन साल में दिखा है. जानकारों के मुताबिक खासकर पिछले 6-12 महीनों में रिटेल निवेशकों की बाजार से उम्मीद काफी बढ़ गई है, और इसी वजह से नया निवेश भी खूब आया है. लेकिन अगर शेयर बाजार से उनकी ऊंचे रिटर्न की उम्मीदें पूरी नहीं होतीं तो ये नया निवेश बाहर निकलते देर नहीं लगेगी.
शेयर बाजार सिर्फ ‘लिक्विडिटी’ के सहारे नई ऊंचाइयां नहीं छू सकता, उसके पीछे कंपनियों की बढ़ती हुई कमाई और इकोनॉमिक फंडामेंटल्स में मजबूती जैसे आधार होने चाहिए. इसलिए शेयर बाजार में निवेश करें तो जरूर, लेकिन ऊंचे रिटर्न की अपनी उम्मीदों को लगाम भी दें.
स्रोत: bloombergquint.com
(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)