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अच्छे आइडिया को कैसे एक्शनेबल बनाया जाए, इसके महारथी नंदन नीलेकणि एक बार फिर चर्चा में हैं, क्योंकि उन्हें एक बार फिर इंफोसिस की कमान दी जा सकती है. लेकिन उनकी वापसी नॉन-एग्जीक्यूटिव चेयरमैन के रूप में हो सकती है और उनकी सबसे बड़ी प्राथमिकता होगी एक फुलटाइम सीईओ की तत्काल नियुक्ति.
जो उन्हें जानते हैं, उनका दावा है कि नंदन उन सभी कमियों को पूरा कर सकते हैं, जिनसे आज इंफोसिस जूझ रही है. इंफोसिस को आज स्टैबिलिटी, क्रेडिबिलिटी और डायनामिज्म की जरूरत है और नंदन की वापसी इंफोसिस को ये तीनों चीजें लौटा सकती है.
विशाल सिक्का के इस्तीफे के बाद इंफोसिस के शेयरों में दो दिनों में ही 15 फीसदी की गिरावट साफ बता रही थी कि शेयरहोल्डरों का भरोसा किस कदर कंपनी से हटने लगा है. नंदन नीलेकणि की वापसी की चर्चा के बाद ही शेयरों में रिकवरी ने ये भी साफ कर दिया कि उनकी काबिलियत पर शेयरहोल्डरों को कितना भरोसा है.
विशाल सिक्का पहले ऐसे सीईओ थे, जो इंफोसिस के फाउंडर मेंबर नहीं थे. उन्हें कंपनी में काफी उम्मीदों के साथ लाया गया था. वो इंफोसिस की संस्कृति में क्यों नहीं ढल सके, ये एक अलग विषय है. लेकिन नए सीईओ के सामने सबसे बड़ी चुनौती यही होगी कि सिक्का के जाने के बाद पैदा हुए 'विशाल' शून्य को कैसे भरा जाए.
इसके अलावा नारायणमूर्ति के साथ उनके अच्छे संबंध भी उन्हें कंपनी के कामकाज को चलाने में मदद करेंगे.
विशाल सिक्का की विदाई प्रसंग में जिस तरह से इंफोसिस बोर्ड और नारायणमूर्ति के बीच विवाद हुए और कॉरपोरेट गवर्नेंस के सवाल उठे, उनसे इंफोसिस की क्रेडिबिलिटी को भी धक्का पहुंचा है. ऐसे में कंपनी के ऊपर क्लाइंट और शेयरहोल्डरों का भरोसा लौटाना किसी बाहरी सीईओ के लिए शायद आसान न हो.
लेकिन विशाल सिक्का और नारायणमूर्ति के बीच विवाद में नंदन 'न्यूट्रल' रहे. यही वो पहलू है, जो नंदन को फाउंडर, बोर्ड और इन्वेस्टरों- सबके लिए स्वीकार्य बना देता है.
इसके बाद आधार प्रोजेक्ट से जुड़कर उनका सरकारी कामकाज का अनुभव और नई टेक्नोलॉजी को लेकर उनकी समझ उन्हें इंफोसिस जैसी कंपनी के लिए बिलकुल उपयुक्त बनाती है.
नंदन की इमेज ग्लोबल है और समझ यंग जेनरेशन को अपील करती है. उम्र भी उनके साथ है. वो अभी 62 साल के हैं और वो आसानी से कंपनी की कमान 3-4 साल के लिए संभाल सकते हैं. हां, उन्हें इस दौरान इंफोसिस की अगली पीढ़ी को शीर्ष पद संभालने के लिए तैयार करने का अतिरिक्त काम भी करना पड़ेगा.
प्रोमोटरों का अपनी ही बनाई कंपनियों की कमान संभालने के लिए लौटना कोई नई बात नहीं है. स्टीव जॉब्स ने ऐसा तब किया, जब एप्पल संकट में थी और खुद नारायणमूर्ति ने 2013 में इंफोसिस को मुश्किलों से निकालने के लिए वापसी की थी.
तो ये कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि नंदन नीलेकणि की कंपनी के शीर्ष पर वापसी न सिर्फ इंफोसिस के लिए, बल्कि देश की आईटी इंडस्ट्री के लिए भी एक बड़ा बूस्टर डोज साबित हो सकती है.
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