advertisement
“इंफोसिस में सिक्का नहीं चला, सब नारायण की माया है”.
इंफोसिस संकट की वजह समझने के लिए फेसबुक और ट्विटर में ट्रेंड कर रही ये लाइनें एकदम सटीक बैठती हैं. फाउंडर नारायण मूर्ति और बोर्ड के झगड़े से दांव पर लगी है इंफोसिस की साख.
जान लीजिए जिद बड़े से बड़ा काम करा सकती है तो अच्छा भला चलता हुआ काम बिगाड़ भी देती है. इंफोसिस फाउंडर और नए मालिकों के अड़ियल रवैये की सच्ची कहानी है. इस विवाद ने दुनिया की एक अनूठे और सुपरहिट प्रयोग इंफोसिस को संदेह के जाल में उलझा दिया है.
क्या नारायण मूर्ति अपनी ही कंपनी के दुश्मन बन बैठे हैं? सबके मन में यही सवाल है, क्योंकि वो इंफोसिस को पटरी से उतारने में लगे हुए हैं.
दो साल से लगातार मौजूदा मैनेजमेंट पर (इसमें पूर्व सीईओ विशाल सिक्का भी शामिल हैं) कॉरपोरेट गवर्नेंस और ट्रांसपेरेंसी से समझौता करने का आरोप लगा रहे हैं.
बोर्ड का अड़ियल रवैया भी हैरान करने वाला है. वो कंपनी के हितों के बजाए अपनी ऐंठन में है. सही तरीका यही होता कि मूर्ति को संतुष्ट करने की कोशिश की जाती, लेकिन मूर्ति को कठघरे में खड़े करने से विवाद खत्म होने वाला नहीं.
विशाल सिक्का के इस्तीफे के बाद इंफोसिस बोर्ड ने जिस तरीके से मूर्ति पर जवाबी हमला किया वो गैर जरूरी था, क्योंकि इससे युद्ध विराम की गुंजाइश कम हो गई है.
बोर्ड की सबसे बड़ी गलती है कि उसने ना मूर्ति को संतुष्ट किया और ना ही सिक्का को खुलकर सपोर्ट किया. नतीजा ये हुआ कि हाथ से सिक्का फिसल गए और मूर्ति भी संतुष्ट नहीं हुए.
मूर्ति ने पलटवार किया है कि वो सही वक्त पर सबका जवाब देंगे.
अब सोचिए, आदर्श एंटरप्रेन्योर माने जाने वाले नारायण मूर्ति पर अगर ब्लैकमेलिंग का आरोप लगाया जाता है तो उसका मतलब यही है कि बोर्ड भी इस झगड़े को खत्म नहीं करना चाहता. बोर्ड की यही अकड़ कंपनी और निवेशकों को बहुत नुकसान करा रही है.
मूर्ति अक्सर कहते हैं उनका पसंदीदा नियम है अगर कोई संदेह है तो इसका खुलासा करिए. लेकिन ये नियम ना मूर्ति मान रहे हैं और ना बोर्ड
सबसे बड़ा मामला है पनाया के अधिग्रहण का. मूर्ति का आरोप है कि इंफोसिस ने पनाया को ऊंची रकम देकर खरीदा. उन्हें शंका है कि इसके बदले में इंफोसिस के शीर्ष अधिकारियों को फायदा पहुंचाया गया. लेकिन बोर्ड का दावा है कि तीन जांच की गई और उसमें मूर्ति के आरोप में कोई दम नहीं पाया गया. मूर्ति कहते हैं कि पूरी रिपोर्ट सार्वजनिक की जाए.
इंफोसिस में प्रोमोटरों की होल्डिंग सिर्फ 12.75 परसेंट ही बची है. खुद मूर्ति और उनके परिवार के पास सिर्फ 3.44 परसेंट हिस्सेदारी है, जबकि विदेशी निवेशकों का हिस्सा 37.47 परसेंट है.
बोर्ड को लगता है कि मूर्ति इंफोसिस के फाउंडर के तौर पर अपने रुतबे का बेजा इस्तेमाल कर रहे हैं. लेकिन यही भी सच है कि उन्हें मनाने की गंभीर कोशिश बिलकुल नहीं हो रही हैं.
नारायण मूर्ति पर उंगली उठाने वाले कहते हैं कि बात बात में कॉरपोरेट गवर्नेंस रटने वाले फाउंडर साहब खुद का रिकॉर्ड भी देख लें. 2013 में वो जब दोबारा चेयरमैन बने थे तो उन्होंने अपने बेटे रोहन को खुद का एक्जीक्यूटिव असिस्टेंट बनाया था जबकि इंफोसिस के पास उस वक्त काबिल लोगों की कमी नहीं थी.
एक्सपर्ट कहते हैं कि विशाल सिक्का पर लगातार नुक्ताचीनी करने वाले नारायण मूर्ति और दूसरे फाउंडर के बीच बारी बारी से चेयरमैन बनने का समझौता भी खराब कॉरपोरेट गवर्नेंस का प्रत्यक्ष प्रमाण था, क्योंकि इसी वजह से सभी फाउंडर में सबसे काबिल लीडर नंदन नीलेकणि को पद छोड़ना पड़ा.
इंफोसिस में इस ताजा झगड़े में दो दिनों में निवेशकों के 34 हजार करोड़ रुपए स्वाहा हो चुके हैं. शेयर 14 परसेंट गिर चुका है. मार्केट कैप अब 2 लाख करोड़ के आसपास ही बची है. अविश्वास इतना गहरा है कि 1150 रुपए के भाव पर 13 हजार करोड़ के शेयर बायबैक करने का ऐलान के बावजूद गिरावट नहीं थम रही है.
दोनों पक्ष अपने अपने रुख पर अड़े रहे तो झगड़ा और बढ़ेगा. कंपनी के बाहर का कोई व्यक्ति सीईओ बनना नहीं चाहेगा. अगर कंपनी के अंदर का ही कोई सीईओ बनेगा तो उसे मूर्ति की तरफ से डर बना रहेगा.
आईटी सेक्टर पहले ही संकट में है और ऊपर से विवाद इंफोसिस की गुडविल को खत्म कर सकता है. नए क्लाइंट आसानी से आएंगे नहीं और पुराने भी साथ छोड़कर जा सकते हैं.
कॉरपोरेट गवर्नेस के पोस्टर ब्यॉय का गुस्सा शांत नहीं हुआ है, इसलिए तय है कि वो पलटवार जरूर करेंगे. ऐसे में दोनों पक्षों के बीच समझौता कैसे हो? इसका एक तरीका तो ये है कि ऐसा व्यक्ति बीच बचाव करे जिसपर दोनों पक्षों को भरोसा हो. यह व्यक्ति नंदन नीलेकणि हो सकते हैं क्योंकि मूर्ति और मौजूदा मैनेजमेंट दोनों उनका सम्मान करते हैं.
इसके अलावा बोर्ड को भी लचीला रुख रखना होगा अगर वो थोड़ा झुक जाएगा तो पहाड़ नहीं टूटेगा. फाउंडर होने के नाते मूर्ति के सुझावों को सम्मान देने से उनका गुस्सा खत्म किया जा सकता है. दुनियाभर में ऐसा होता है.
अब सवाल यही है क्या नारायण मूर्ति ऐसे व्यक्ति के तौर पर याद किए जाना पसंद करेंगे जो अपनी ही कंपनी का दुश्मन बन बैठा?
अगर दोनों पक्षों ने अपना रुख नरम नहीं किया तो वो जान लें...अहम का टकराव विनाश ही करता है....
(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)