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नोटबंदी के फायदे पर अंतिम फैसला अभी भी नहीं आया है और उसके लिए थोड़ा इंतजार और करना पड़ सकता है. लेकिन क्या इससे लोगों की वित्तीय लेन-देन या नकद रखने की आदत में बड़ी गिरावट आई है? इस बारे में शुरुआती सबूत तो यही कहते हैं कि असर कोई बहुत बड़ा नहीं है.
बड़े करेंसी नोटों को अमान्य करके काले धन पर सरकारी हमले के एक साल बाद, नोटबंदी के पहले के मुकाबले लोगों के बीच नकदी काफी घटी है. हालांकि पिछले कुछ महीनों में ये फिर से बढ़ने लगी है.
लेकिन क्या इसका मतलब है कि वित्तीय लेन-देन की आदत में बड़ा बदलाव आया है? हमारा मानना है कि लोगों के पास करेंसी के मौजूदा स्तर की तुलना नोटबंदी के ठीक पहले के स्तर के साथ करने से भ्रामक निष्कर्ष निकल सकते हैं.
इस तुलना में गलत क्या है? इसका जवाब पाने के लिए शुरुआती 2016 को याद कीजिए, जब करेंसी सर्कुलेशन में एकाएक तेज उछाल रिजर्व बैंक और सरकार के लिए चिंता की बड़ी वजह बन गई थी.
उस वक्त, नकदी की इस मांग को समझने के लिए कई अनुमान लगाए गए थे. रिजर्व बैंक गवर्नर रघुराम राजन समेत कई लोगों ने इसकी वजह असम, केरल, तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल के चुनावों को बताया था. दूसरों ने वास्तविक ब्याज दरों के निचले स्तर को जिम्मेदार ठहराया, जिस वजह से फिक्स्ड डिपॉजिट जैसी बचत योजनाएं आकर्षक नहीं रह गई थीं.
जो भी वजह हो, 2016 में लोगों के पास नकदी असामान्य स्तर पर थी. नतीजतन 2016 को करेंसी होल्डिंग का बेंचमार्क मानना गलत है और सही तुलना के लिए सांख्यिकीय समायोजन की जरूरत है.
इसके लिए हम बड़े पैमाने पर इस्तेमाल होने वाले फॉर्मूले, हॉड्रिक-प्रेसकॉट (एचपी) फिल्टर टूल का सहारा लेंगे, जो अलग-अलग आंकड़ों से रुझान निकालता है. इससे लंबी अवधि की प्रवृत्ति और इसमें हुए विचलन में अंतर समझने में मदद मिलती है. इससे मिलने वाले निष्कर्ष काफी हद तक साफ हैं.
हमने अपने सभी आंकड़ों का मेल मौसमी बदलावों से कराया है, ताकि हम किसी खास मौसमी प्रवृत्ति को ज्यादा महत्व देने की भूल न करें.
अब रिटेलर्स के नजरिये से नोटबंदी के बाद नकदी के बढ़ते स्तर पर नजर डालते हैं. डिजिटल पेमेंट में शुरुआती उछाल के बाद, कुछ ऐसे सबूत हैं कि छोटे दुकानदार नकदी की तरफ लौट रहे हैं.
मोबाइल- वॉलेट ट्रांजैक्शन में भी शुरुआती उछाल के बाद गिरावट आई है.
साफ तौर पर जिस तरह वास्तविक कैश होल्डिंग नोटबंदी के पहले के स्तर पर नहीं पहुंची है, उसी तरह डिजिटल ट्रांजैक्शंस में भी पूरे विपरीत नतीजे नहीं दिखे हैं. तो, हम कह सकते हैं कि जहां तक लोगों के पास नकदी का सवाल है, नवंबर 2016 का मौद्रिक झटका कोई बड़ा बदलाव नहीं ला सका, वहीं वित्तीय लेनदेन की प्रवृत्ति में थोड़ा बदलाव अब दिखने लगा है.
हम उम्मीद करते हैं कि डिजिटल ट्रांजैक्शंस में आगे कोई और गिरावट नहीं आएगी और कैश होल्डिंग मौजूदा स्तर पर स्थिर रहेगा.
तो क्या नोटबंदी के कुछ पहलुओं के लिए सफलता का साफ-साफ कोई पैमाना है?
हां.
ये समझना होगा कि डिजिटल ट्रांजेक्शन को कंज्यूमर के लिए बड़े पैमाने पर स्वीकार्य बनाने के लिए डिजिटल इंफ्रास्ट्रक्चर का होना जरूरी है.
ईवाई की एक रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में हर दस लाख की आबादी पर सिर्फ 693 टर्मिनल थे. इसकी तुलना में ब्राजील में 32,995 टर्मिनल और चीन में 4,000 टर्मिनल हैं.
आरबीआई ने भी ‘कार्ड एक्सेप्टेंस इंफ्रास्ट्रक्चर’ पर अपने कंसेप्ट पेपर में देश में पर्याप्त डिजिटल इंफ्रास्ट्रक्चर की कमी और बिजनेस हासिल करने की ऊंची लागत को डिजिटल प्लेटफॉर्म की ग्रोथ में रुकावट की मुख्य वजहें बताया है.
इस संदर्भ में नोटबंदी कामयाब रही है.
नेशनल पेमेंट्स कॉर्पोरेशन ऑफ इंडिया (एनपीसीआई) के ताजा आंकड़े के मुताबिक, देश में प्वॉइंट-ऑफ-सेल (पीओएस) टर्मिनलों की संख्या तीस लाख तक पहुंच गई है, जो पिछले साल 8 नवंबर के 15 लाख टर्मिनलों के मुकाबले दोगुना है.
बदलाव के लिए सिर्फ नोटबंदी पर फोकस करना अनुचित है. पिछले दो वर्षों में डिजिटाइजेशन का, खासकर बिजनेस-टू-बिजनेस सेगमेंट में, काफी विस्तार हुआ है.
यानी बीटूसी डिजिटल ट्रांजेक्शन के मुकाबले बीटूबी डिजिटल ट्रांजेक्शन के ज्यादा रफ्तार पकड़ने की संभावना है. बीटूबी से संबंधित फायदों को समझने के लिए, जरूरी है कि विदेशों के साथ बीटूबी पेमेंट, बीटूबी ई-कॉमर्स, वर्चुअल कमर्शियल कार्ड, सप्लायरों और कर्मचारियों को होने वाले भुगतान, और लिक्विडिटी और ट्रेजरी मैनेजमेंट के लिए ब्लॉकचेन के इस्तेमाल से जुड़े आंकड़ों का विश्लेषण किया जाए.
(अभीक बरुआ एचडीएफसी बैंक में चीफ इकनॉमिस्ट और तुषार अरोड़ा सीनियर इकनॉमिस्ट हैं. इस लेख में उनके निजी विचार हैं. क्विंट का उनसे सहमत होना जरूरी नहीं है.)
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