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आज से ठीक 48 साल पहले यानी 19 जुलाई 1969 को सरकार ने एक ऐसा कदम उठाया था जिसने देश के बैंकिंग सेक्टर की तस्वीर बदलकर रख दी थी. ये था बैंकों का राष्ट्रीयकरण यानी प्राइवेट बैंकों को सरकारी बैंकों में तब्दील करने का फैसला. जनता के बीच बेहद लोकप्रिय हुए इस फैसले के गुण-दोषों की चर्चा आज तक होती है, लेकिन तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के इस कदम के आर्थिक ही नहीं, राजनीतिक निहितार्थ भी थे.
एक रेडियो प्रसारण में 19 जुलाई की शाम बैंकों के राष्ट्रीयकरण की घोषणा करते हुए उन्होंने कहा था कि बैंकिंग सिस्टम को बड़े सामाजिक उद्देश्यों के लिए काम करने की जरूरत है. बैंकों का राष्ट्रीयकरण इंदिरा गांधी के गरीबी हटाओ कार्यक्रम का अहम हिस्सा बन गया था.
रातोंरात देश के 14 प्राइवेट बैंक सरकारी हो गए थे. ये 14 बैंक उस वक्त देश के 70% डिपॉजिट को कंट्रोल करते थे. इसके बाद 1980 में 6 और प्राइवेट बैंकों को सरकारी बनाया गया. हालांकि देश के सबसे बड़े बैंक स्टेट बैंक ऑफ इंडिया को 1955 में ही सरकारी बना लिया गया था, जिसका नाम इंपीरियल बैंक होता था.
इस बात में कोई शक नहीं है कि बैंकों के राष्ट्रीयकरण के बाद खेती और छोटे-मझोले उद्योगों को कर्ज मिलना आसान हुआ. क्योंकि बैंकों के लिए प्रायरिटी सेक्टर लेंडिंग के नियम तय कर दिए गए थे. ग्रामीण इलाकों में बैंकों की पहुंच भी बढ़ी.
हालांकि ये अलग विषय है कि इन शाखाओं को खोलने से सरकारी बैंकों को आर्थिक फायदा हुआ या नहीं. लेकिन आज 2017 की सच्चाई यही है कि ज्यादातर सरकारी बैंकों की सेहत जर्जर हो चुकी है और सरकार के लिए उन्हें चलाते रहना आसान नहीं है.
आज देश का बैंकिंग सिस्टम नॉन परफॉर्मिंग एसेट्स यानी एनपीए के बोझ से दबा है और इस बदहाली के ज्यादा बड़े जिम्मेदार सरकारी बैंक हैं.
रिजर्व बैंक की फाइनेंशियल स्टैबिलिटी रिपोर्ट में चेतावनी दी गई है कि देश के पूरे बैंकिंग सिस्टम में मार्च 2017 में एनपीए 9.6% थे जो मार्च 2018 तक बढ़कर 10.2% हो सकते हैं.
सरकारी बैंकों के लिए आंकड़े तो और भी डरावने हैं. मार्च 2017 में सरकारी बैंकों का एनपीए 11.4% था जो मार्च 2018 तक 14.2% पहुंचने की आशंका है. हालत ये है कि 5 सरकारी बैंकों को छोड़कर सभी सरकारी बैंकों का ग्रॉस एनपीए दोहरे अंकों में पहुंच चुका है. इनमें भी दो बैंकों का एनपीए 20% से ज्यादा है- इंडियन ओवरसीज बैंक (22.5%) और आईडीबीआई बैंक (21.3%).
प्राइवेट बैंक फिलहाल सरकारी बैंकों से बेहतर हालत में हैं. लेकिन बात सिर्फ एनपीए की नहीं है. बिजनेस के मामले में भी सरकारी बैंक प्राइवेट बैंकों से पीछे छूटते जा रहे हैं.
ऐसे में बार-बार ये सवाल उठ रहे हैं कि क्या सरकारी बैंकों का प्राइवेटाइजेशन कर दिया जाना चाहिए?
रिजर्व बैंक के डिप्टी गवर्नर विरल आचार्य तो मानते हैं कि इस पर गंभीरता से सोचना शुरू कर देना चाहिए. उनका मानना है कि किसी संकट की स्थिति में बैंकों को बार-बार आर्थिक मदद देना सरकार के लिए ना तो संभव है, और ना ही उचित. जहां तक मौजूदा सरकार की बात है, तो प्राइवेटाइजेशन पर तो इसका रुख अभी साफ नहीं है, लेकिन बैंकों के विलय और अधिग्रहण को लेकर जरूर सरकार ने सोचना शुरू कर दिया है.
इन विशेषज्ञों का साफ मानना है कि बैंकिंग एक गंभीर बिजनेस है और सामाजिक उद्देश्यों की पूर्ति तभी हो सकती है जब बिजनेस फायदे में हो. और आज जब तकनीकी विकास के सहारे बैंकिंग सेवाओं की पहुंच हर किसी तक आसानी से हो सकती है, सरकारी बैंकों को सफेद हाथी की तरह खड़ा रखना अर्थव्यवस्था के लिए घातक हो सकता है. वैसे भी, बैंकिंग बिजनेस में जिस तरह के रुझान आ रहे हैं, उनसे साफ है कि अगर सरकार ना भी करे, तो बाजार की ताकतें और कंज्यूमर ही मिलकर कई सरकारी बैंकों को प्रतिस्पर्धा से जल्दी ही बाहर कर सकते हैं. सरकारी बैंकों के साथ ही अपना फाइनेंशियल ट्रांजैक्शन करने की प्रवृत्ति अब खत्म हो रही है, और आम लोग तेजी से प्राइवेट बैंकिंग सर्विसेज को अपना रहे हैं.
ऐसे में, शायद 19 जुलाई 1969 के इतिहास के उस पन्ने को फिर से लिखे जाने की जरूरत आ गई है, जिसने बैंकों को सामाजिक उद्देश्यों को पूरा करने का माध्यम भर बना दिया था.
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