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एक तो कोरोना वैक्सीन की कमी, ऊपर से वैक्सीन को लेकर अफवाह, झारखंड में वैक्सीनेशन की धीमी रफ्तार के पीछे ये दोनों बड़े कारण हैं. आज नौबत ये है कि राज्य में 18-44 साल उम्र के करीब 5% लोगों को ही वैक्सीन लगी है. ऐसे में क्विंट ने झारखंड के ग्रामीण इलाकों में जाकर कम वैक्सीनेशन का कारण जानने की कोशिश की.
क्विंट ने झारखंड के ग्रामीणों पर वैक्सीनेशन को लेकर भ्रमित होने के आरोपों की पड़ताल की. जिसके तहत सब से पहले एक ऐसे युवक से बात की गई, जिसका दावा है कि वैक्सीन लगवाने से वह बीमार पड़ा.
दरअसल पीटर जैसे लोग 'वैक्सीन लेने के बाद जब बीमार पड़े' तो झारखंड के ग्रामीणों में वैक्सीन को लेकर भ्रम की स्थिति बन गई. जैसे लातेहार के रहने वाले तितर भुंया हैं. उन्होंने कहा, "हम टीका नहीं लेंगे, क्योंकि हम लोग सुन रहे हैं कि लोग टीका लेंगे तो बीमार पड़ जाएंगे या फिर मर जाएंगे.''
काडादोहर, सतबरवा, पलामू के ग्रामीण मिरका उरांव बताते हैं, "हमने वैक्सीन नहीं लगवाई, मुझे वैक्सीन से डर लग रहा है. क्योंकि जिन लोगों को वैक्सीन लगी वे बीमार पड़े. जिनका अस्पताल में ठीक से इलाज नहीं हो रहा है. इलाज न मिलने के कारण लोग मर गए. इस तरह की बातें देहात में बहुत ज्यादा फैली हैं. यही कारण है कि मेरे गांव में किसी ने वैक्सीन नहीं ली."
उन्होंने आगे कहा कि सरकारी मशीनरी ने वैक्सीनेशन का जो माइक्रो प्लान बनाया है वो नाकाफी है, ''जैसे ग्रामीण क्षेत्रों में बने हुए वैक्सीनेशन प्वाइंट पर दूर से लोग आते हैं तो उनका पूरे दिन का समय बर्बाद होता है. इसलिए ग्रामीण लोगों को नसबंदी की तरह प्रोत्साहन राशि देने की जरूरत है. साथ ही ऐसे लोग जो वैक्सीनेशन के बाद बीमार पड़ते हैं तो उनको भी मुआवजा देने का प्रावधान होना चाहिए. अगर ऐसे बदलाव होते हैं तो लोगों की मानसिकता में बदलाव आएगा. क्योंकि जब हम लोगों को वैक्सीनेशन के लिए प्रोतसाहित करते हैं तो उनका दो टूक जवाब होता है कि वैक्सीन लेने के बाद हम को कुछ हुआ तो परिवार कौन देखेगा."
राज्य के स्वास्थ्य मंत्री बन्ना गुप्ता ने भी स्वीकार किया है कि ग्रामीण झारखंड में लोगों के बीच भ्रांतियां हैं. क्विंट से बातचीत के दौरान उन्होंने कहा कि ग्रामीण लोगों में जहां जागरूकता की कमी है तो वहीं उत्सुकता की भी कमी है. उन्होंने कहा कि इन सब का मुख्य कारण कोविशील्ड और कोवैक्सीन की नीति है, शुरुआत में दोनों के निर्माताओं ने वैक्सीन का व्यवसाय बढ़ाने के लिए एक दूसरे के प्रोडक्ट पर विरोधात्मक बयान दिए थे, इसी वजह से लोगों में अविश्वास पैदा हुआ.
NRHM के साथ काम करने वाली संस्था CINI (Child In Need Institute) के स्टेट डायरेक्टर डॉ. सुरनजीन ने झारखंड के ग्रामीण इलाकों में वैक्सीनेशन जैसे हेल्थ मिशन पर 8 साल काम किया है. उन्होंने क्विंट से कहा, "वैक्सीनेशन को लेकर पहले भी हिचकिचाहट थी लेकिन अब हिचकिचाहट दूर करना बड़ा चैलेंज है. इसका कारण सोशल मीडिया है. सोशल मीडिया में फैल रहे मैसेज पर लोगों में चर्चा होती है जो हिचकिचाहट के सबब बन रहे हैं. वैसे पिछले वैक्सीनेशन के दौरान हम सबसे पहले हिचकिचाहट का कारण तलाशते थे. जैसे पल्स पोलियो अभियान के दौरान मुस्लिम समुदाय सबसे ज्यादा हिचकिचा रहा था. तब हमने मुस्लिम समाज के एक-एक सदस्य तक पहुंचने के लिए प्लान तैयार किया.''
झारखंड के हेल्थ सचिव अरुण सिंह ने कहा, "पल्स पोलियो की कोविड वैक्सीन से तुलना करेंगे तो पल्स पोलियो में अर्जेंसी नहीं थी, उससे मौत का खतरा नहीं था. लेकिन कोविड के मामले में जान का खतरा है. ग्रामीण क्षेत्र में दवाओं को लेकर हेजिटेंसी होती ही है, उस पर कुछ मौत का होना, वैक्सीन के प्रति भ्रमित करता है. जबकि वैक्सीन से मौत का कोई मामला सामने नहीं आया है. इसलिए इस बार चुनौती अलग है. वैक्सीनेशन को बढ़ावा देने के लिए कम्युनिटी लीडर को चुना जा रहा है, उनको वैक्सीन लगाई जाएगी ताकि वे अपने समुदाय की काउंसिलिंग कर सकें कि मैंने वैक्सीन लगाई है और वो सेफ है, आप भी लगाइए.''
झारखंड स्वास्थ्य मंत्रालय के मुताबिक, 18 से 44 साल आयु वर्ग के 1.5 करोड़ लोगों को वैक्सीन देनी है, लेकिन इस वर्ग के सिर्फ 7.7 लाख लोगों को ही पहला डोज मिला है, यानी 4.95% लाभान्वित हुए हैं.
जबकि 45 से 59 साल आयु वर्ग के 51 लाख लोगों को वैक्सीन लगनी है, लेकिन इस आयु वर्ग को पहले डोज के तहत मात्र 25.3% लोगों को ही वैक्सीन लगी है, जबकि 3.12% लोगों को दूसरा डोज डोज मिला है.
फ्रंटलाइन वर्कर्स के वर्ग में लगभग 4 लाख लोग हैं, जिनमें से 85.6% को पहला डोज और 48.5% को दूसरा डोज मिला है.
इस डेटा को अगर शहरी और ग्रामीण वर्ग के हिसाब से देखा जाए तो शहरी झारखंड की लगभग 1 करोड़ आबादी के सिर्फ 18% हिस्से यानी करीब 18 लाख लोगों को पहली डोज मिली है. जबकि इन 18 लाख लोगों में से 82% लोगों को दूसरी डोज मिल चुकी है.
ग्रामीण झारखंड के तहत आने वाले 1.35 करोड़ लोग वैक्सीन के लिए योग्य हैं. जिनमें 15% यानी 29 लाख लोगों को पहला डोज मिल चुका है, इनमें से 76% लोगों को दूसरे डोज मिल चुका है.
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