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महाराष्ट्र में अजित पवार की हार जितनी दिखती है उससे कहीं बड़ी है: जानिए ये 4 फैक्टर

Ajit Pawar की हार पर एक नजर: अपनी ही विधानसभा सीट पर कम वोट मिलना, बीजेपी को वोट ट्रांसफर नहीं होना..

ईश्वर रंजना
चुनाव
Published:
<div class="paragraphs"><p>महाराष्ट्र में अजित पवार की हार जितनी दिखती है उससे कहीं बड़ी है</p></div>
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महाराष्ट्र में अजित पवार की हार जितनी दिखती है उससे कहीं बड़ी है

(फोटो: फेसबुक/अजीत पवार)

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"मैं चूक गया. मतदाताओं ने हमारा समर्थन नहीं किया. आखिर में आपको लोकतंत्र में लोगों के जनादेश को स्वीकार करना होगा."

यह बात राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) के नेता और महाराष्ट्र के डिप्टी सीएम अजीत पवार (Ajit Pawar) ने गुरुवार, 8 जून को आयोजित एक संवाददाता सम्मेलन में कही. लोकसभा चुनाव के नतीजों के दो दिन बाद यह उनकी पहली सार्वजनिक उपस्थिति थी.

महाराष्ट्र की 10 में से आठ सीटें जीतकर शरद पवार ने 'कौन असली एनसीपी है' इस बहस को खत्म कर दी है. लेकिन जो बात पहले से कहीं अधिक अनिश्चित है वह है कि अजित पवार और उनकी एनसीपी का भविष्य क्या है?

अजित पवार की एनसीपी ने जिन चार सीटों पर चुनाव लड़ा उनमें से उसने केवल एक जीता है और कुल मिलाकर 3.6 प्रतिशत वोट शेयर हासिल किया है. इस चुनावी नतीजे बाद बीजेपी के साथ हाथ मिलाने के उनके दांव ने न केवल उनके साथ शामिल होने वाले विधायकों के भाग्य को खतरे में डाल दिया है, बल्कि राज्य में सत्तारूढ़ महायुति गठबंधन को भी खतरे में डाल दिया है.

नतीजे आने के बाद के दिनों में अजित पवार गुट वाली एनसीपी के अंदर घमासान साफ ​​नजर आ रहा है. भले ही वह शुक्रवार को एनडीए की संसदीय बैठक में उपस्थित थे, और उन्होंने पीएम नरेंद्र मोदी के साथ मंच भी साझा किया था, लेकिन नतीजों के एक दिन बाद आयोजित एनडीए बैठक में उनकी गैरमौजूदगी पर किसी का ध्यान नहीं गया.

सवाल है कि लेकिन अजित पवार और उनकी एनसीपी उस स्थिति में कैसे पहुंची, जहां वह इस समय है? यदि कोई एनसीपी के दोनों गुटों के प्रदर्शन के ब्लूप्रिंट पर नजर डाले तो यह साफ पता चलेगा कि कैसे.

सुप्रिया की बारामती में जीत ऐतिहासिक है, आंकड़ें गवाही दे रहें

एनसीपी के कट्टर समर्थकों के लिए बारामती सबसे महत्वपूर्ण लड़ाई थी. समर्थक दो पवारों के बीच बंटे थे और इस तरह बारामती का फैसला 'असली एनसीपी' के सवाल के जवाब के लिए सबसे महत्वपूर्ण था.

लेकिन कोई गलती न करें, यह शरद पवार और अजीत पवार, दोनों के राजनीतिक करियर की सबसे कठिन लड़ाई थी.

यहां सुप्रिया सुले ने अजित पवार की पत्नी सुनेत्रा के खिलाफ 1.58 लाख से अधिक वोटों से जीत हासिल की है. लगातार चौथा लोकसभा चुनाव होने के बावजूद, 2024 की लड़ाई में सुले को अबतक के उनके सबसे अधिक वोट मिले.

2009 में, उनके पहले लोकसभा चुनाव में, सुले को 4,87,827 वोट और 66.46 प्रतिशत वोट शेयर मिले. हर चुनाव में उन्हें मिलने वाले वोट धीरे-धीरे बढ़ते ही गए. इस बार सुले को 732,312 वोट और 51.85 प्रतिशत वोट शेयर मिले हैं. पिछले तीन चुनावों में, बारामती में दूसरे नंबर पर रहने वाले उम्मीदवारों ने 40 प्रतिशत से अधिक वोटों की हिस्सेदारी बरकरार रखी है, जबकि सुले ने 51 प्रतिशत से अधिक की औसत वोट हिस्सेदारी बरकरार रखी है.

इस बार और अधिक संख्या में वोट और उनका औसत वोट शेयर बरकरार रहना यह दिखाता है कि आम तौर पर जितने लोग वोट डालते थे, उससे कहीं अधिक लोग वोट देने के लिए बाहर आए और सुले को वोट दिया.

लेकिन ध्यान देने वाली दिलचस्प बात यह है कि बारामती विधानसभा क्षेत्र में भी, जहां अजीत पवार खुद विधायक हैं, सुले ने सुनेत्रा के खिलाफ लगभग 47,000 वोटों के अंतर से बढ़त बनाई.

गौर करने वाली बात यह भी है कि बारामती की छह विधानसभा सीटों में से दो बीजेपी (दौंड और खडकवासला) के पास हैं और दो अजीत पवार की एनसीपी (बारामती और इंदापुर) के पास हैं. जो दो सीटें (पुरंदर और भोर) कांग्रेस के पास हैं, उन दोनों में सुले सुनेत्रा से आगे थीं.

बारामती में हार अजित पवार के लिए और भी अजीब हो जाती है, क्योंकि जून 2023 में जब एनसीपी बंटी तो अधिकांश पदाधिकारी और पार्टी कार्यकर्ता उनके साथ थे. अपनी पत्नी सुनेत्रा के लिए उनके बिना थके चुनावी कैम्पेन में, नैरेटिव भावनात्मक अपीलों के साथ शुरू हुई और अंततः वोटर्स को डराने-धमकाने के आरोपों के साथ और अधिक धुंधली हो गई.

बारामती में मतदान के एक दिन पहले और उस दिन पैसे बांटने, फर्जी वोट डालने और दबाव की रणनीति के संबंध में शरद पवार की एनसीपी द्वारा चुनाव आयोग में कम से कम 26 शिकायतें दर्ज की गईं.

लक्षद्वीप में अजित पवार के उम्मीदवार को सिर्फ 201 वोट मिले

2009 से, कांग्रेस और एनसीपी राष्ट्रीय स्तर पर गठबंधन के बावजूद लक्षद्वीप में अलग-अलग चुनाव लड़ते रहे हैं. 2014 के बाद से, एकजुट एनसीटी ने लगातार दो बार इस निर्वाचन क्षेत्र से चुनाव जीता. लेकिन इस चुनाव में एनसीपी के दोनों गुट ने अपने-अपने उम्मीदवार उतारे थे.

यहां से मौजूदा सांसद मोहम्मद फैजल पार्टी में विभाजन के बाद शरद पवार के साथ चले गए. उनको 23,079 वोट मिले हैं जबकि अजीत पवार के उम्मीदवार यूसुफ टीपी को सिर्फ 201 वोट (0.41 प्रतिशत) मिले. यहां जीत कांग्रेस के उम्मीदवार को मिली है. फैजल यह सीट कांग्रेस से 2,647 वोटों से हार गए.

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अजित पवार का कद फड़णवीस और मतदाताओं, दोनों ने कम किया

जून 2023 में, अजीत ने शरद पवार के खिलाफ तख्तापलट किया, एनसीपी पर कब्जा कर लिया और राज्य के उपमुख्यमंत्री बनने के लिए बीजेपी से हाथ मिला लिया.

बाद के महीनों में, एकनाथ शिंदे की शिवसेना को बहुत निराशा हुई क्योंकि अजित पवार ने अपनी पार्टी के लिए महत्वपूर्ण विभाग ले लिए. अजीत के खुद संयुक्त डिप्टी सीएम बनने और वित्त मंत्रालय संभालने के साथ ही कैबिनेट में कृषि, खाद्य, उपभोक्ता मामले, महिला एवं बाल विकास, खेल, चिकित्सा शिक्षा और आपदा प्रबंधन जैसे विभाग भी एनसीपी को मिले. अजित पवार ने पुणे क्षेत्र के संरक्षक मंत्री का भी पदभार संभाला.

चुनाव आयोग और स्पीकर के बाद के फैसलों में, अजीत पवार के गुट को पार्टी का नाम और 'घड़ी' चुनाव चिन्ह मिल गया. इसका इस्तेमाल 'असली एनसीपी' के तर्क को और मजबूत करने के लिए किया गया.

लेकिन लोकसभा के लिए सीट-बंटवारे की बातचीत के दौरान, अजित पवार को पार्टी के लिए केवल चार सीटें मिलीं. जबकि 2019 में एकजुट एनसीपी ने 19 सीटों पर चुनाव लड़ा था. यह 1999 के बाद से एनसीपी के इतिहास में घड़ी के निशान पर लड़ी गई सबसे कम सीटें थीं.

2019 में बीजेपी और एकजुट एनसीपी के बीच 8 सीटों पर सीधी लड़ाई थी, जिनमें से बीजेपी ने सात सीटें जीतीं. इस बार उनमें से पांच पर शरद पवार की एनसीपी ने जीत हासिल की है. स्पष्ट रूप से, एनसीपी के पारंपरिक वोट, जैसा कि अजित पवार के साथ गठबंधन बनाते समय फड़णवीस को उम्मीद थी, बीजेपी को ट्रांसफर नहीं हुए.

एनसीपी के कब्जे को उचित ठहराते हुए, अजीत पवार ने तर्क दिया कि पिछले कुछ वर्षों में खराब निर्णय लेने, गलत समन्वय और पक्षपात के कारण शरद पवार के नेतृत्व में पार्टी खराब हो गई थी. अजित पवार ने कई बार चुनाव आयोग में राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा खोने के लिए 'पार्टी के कामकाज के तरीकों' को भी जिम्मेदार ठहराया है.

हालांकि, 2024 के लोकसभा चुनावों में शरद पवार की एनसीपी के शानदार प्रदर्शन ने ऐसे कई तर्कों को मतदाताओं के दिमाग से हटा दिया है.

महायुति में पार्टियों में अनिश्चितता

आने वाले महीनों में यह देखना दिलचस्प होगा कि विधानसभा चुनावों से पहले महाराष्ट्र में महायुति का क्या हश्र होगा. चुनाव परिणामों के बाद इस गठबंधन की हर पार्टी में अशांति है.

बुधवार की बैठक में उनके पांच विधायकों की अनुपस्थिति पहले ही सुर्खियां बन चुकी है. रोहित पवार समेत शरद पवार की एनसीपी के कई वरिष्ठ नेताओं ने संकेत दिया कि अजित पवार की एनसीपी के 17-19 विधायक शरद पवार के पास लौटना चाहते हैं.

उनके पिछले रिकॉर्ड को देखते हुए उनकी संभावित वापसी की चर्चा के बीच, पार्टी प्रमुख सुनील तटकरे, जो रायगढ़ सीट जीतने वाले एकमात्र उम्मीदवार भी हैं, ने मीडिया को आश्वासन दिया कि पार्टी एकजुट है.

सुनील तटकरे ने कहा, "जानबूझकर गलत सूचना फैलाई जा रही है कि हमारे विधायक शरद पवार के संपर्क में हैं. मैं आपको आश्वासन देता हूं कि हमारे सभी विधायक हमारे साथ हैं और हम एक टीम हैं. ऐसी अफवाहें और फर्जी वीडियो चुनाव के दौरान भी प्रसारित किए जा रहे थे."

इस बीच, बीजेपी को अपने खुद के संघर्षों का सामना करना पड़ रहा है, क्योंकि उसने जिन 27 लोकसभा सीटों पर चुनाव लड़ा था, उनमें से केवल नौ पर जीत हासिल की. फड़णवीस की रणनीतियों को काफी हद तक राजनीतिक भूलों के रूप में देखा जा रहा है. उन्होंने आगामी चुनावों से पहले 'बीजेपी की किस्मत को पुनर्जीवित करने के लिए पूरी तरह से काम करने' के लिए डिप्टी सीएम पद से इस्तीफा देने की पेशकश की है.

भले ही अजित पवार और फड़नवीस दोनों की सौदेबाजी की शक्ति काफी हद तक समझौता हो गई है, लेकिन फड़नवीस के पास दिखाने को अभी भी बीजेपी का वोट शेयर है. पार्टी की सीटों की संख्या में भारी गिरावट के बावजूद वोट शेयर में 1 प्रतिशत से भी कम की गिरावट देखी गई है.

इस बीच, गठबंधन में शिंदे की स्थिति मजबूत होती दिख रही है. तीनों पार्टियों में उनका स्ट्राइक रेट सबसे अच्छा है. साथ ही उद्धव की सेना के साथ उनकी कड़ी टक्कर है. शिंदे की शिवसेना ने उद्धव की शिवसेना से कम सीटों पर चुनाव लड़ने के बावजूद 13 प्रतिशत का महत्वपूर्ण वोट शेयर हासिल किया है.

महायुति की पार्टियां आत्मनिरीक्षण कर रही हैं. ऐसे में महाराष्ट्र कांग्रेस और शरद पवार को, फिलहाल महाराष्ट्र में सबसे स्थिर पार्टियों के रूप में माना जा रहा है.

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