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2017 के गुजरात विधानसभा चुनावों (Gujarat Assembly Election) से एक साल पहले राजकोट पश्चिम निर्वाचन क्षेत्र के तत्कालीन विधायक विजय रूपाणी को आलाकमान ने कहा था कि वह आनंदीबेन पटेल की जगह मुख्यमंत्री पद संभालें. पांच साल बाद 2021 के चुनावों से एक साल पहले रूपाणी को भी, आनंदीबेन पटेल की तरह पद छोड़ने के लिए कहा गया, और उनकी जगह भूपेंद्र पटेल को मुख्यमंत्री बनाया गया.
जैसी उम्मीद थी, सितंबर 2021 में रूपाणी को मुख्यमंत्री पद से यकायक हटाया गया. इसके बाद से रूपाणी लगातार कह रहे हैं कि वह पार्टी के लिए एकदम वफादार हैं और वही करेंगे, जैसा पार्टी उनसे कहेगी.
हाल ही में रूपाणी ने कहा है कि वह इस सीट से चुनाव लड़ने का दावा तभी करेंगे जब पार्टी उनसे ऐसा करने के लिए कहेगी. हालांकि सूत्रों का कहना है कि जिस तरह से उन्हें मुख्यमंत्री पद से हटाया गया है, उसे देखते हुए रूपाणी खुद चुनाव लड़ने के इच्छुक नहीं हैं.
बेशक, 2022 के विधानसभा चुनावों का बिगुल तब बजा, जब 2 नवंबर को चुनावों की तारीखों की घोषणा हुई, लेकिन असल में राजकोट पश्चिम की सीट के लिए मुकाबला तो बहुत पहले से शुरू हो चुका था.
भले ही रूपाणी ने आलाकमान को अपने मन की बात न बताई हो कि वह तीसरी बार इस सीट से चुनाव लड़ना चाहते हैं, लेकिन रूपाणी के वफादार नितिन भारद्वाज, राजकोट इकाई के अध्यक्ष कमलेश मिरानी, वाला के पीए तेजस बत्ती, पूर्व पार्षद कश्यप शुक्ला और डिप्टी मेयर दर्शिता शाह जैसे कई बीजेपी नेता आधिकारिक तौर पर पार्टी से कह चुके हैं कि वे लोग इस क्षेत्र से चुनाव लड़ना चाहते हैं.
क्विंट से मिरानी कह चुके हैं कि एक सीट से कई लोगों का टिकट हासिल करने का अरमान, बहुत मामूली बात है.
मिरानी कहते हैं...
हालांकि हम जब यह पूछते हैं कि क्या रूपाणी उस सीट से नहीं लड़ना चाहते तो मिरानी जवाब देते हैं, "इस सवाल का जवाब तो रूपाणी ही दे सकते हैं."
पिछले 55 वर्षों, यानी 1967 से (जनसंघ के दिनों से) बीजेपी एक बार भी राजकोट पश्चिम की सीट नहीं हारी है. तब यह सीट राजकोट II के तौर पर जानी जाती थी, और 2012 में इसका नया नामकरण हुआ है. इस निर्वाचन क्षेत्र में ज्यादातर अपर-कास्ट हिंदू वोटर्स हैं जो पिछले पांच दशकों से पार्टी के लिए वफादार हैं.
1985 से 2014 तक इस सीट पर वजुभाई वाला ने कब्जा जमाया हुआ था. वही वजुभाई वाला जो गुजरात के कैबिनेट मंत्री रहे, गुजरात विधानसभा के अध्यक्ष और 2014-2021 तक कर्नाटक के राज्यपाल भी. हां, बीच में करीब एक साल, यानी 2001-2002 में थोड़े समय के लिए नरेंद्र मोदी ने यह सीट लपक ली थी.
रूपाणी और वजुभाई वाला के बीच मतभेद जग जाहिर रहे हैं, लेकिन दोनों ने खुले तौर पर इस बात को कभी नहीं माना. स्वाभाविक है, रूपाणी के वफादार भारद्वाज और वाला के पीए पट्टी, दोनों ही इस सीट से चुनाव लड़ने में दिलचस्पी दिखा रहे हैं. इसी से सभी की नजरें उन पर टिकी हैं.
राजकोट के दैनिक अखबार हेडलाइंस के संपादक और सीनियर पॉलिटिकल एनालिस्ट जगदीश मेहता भारद्वाज को "रूपाणी की छाया" कहते हैं.
वह कहते हैं, "यह चुनाव क्षेत्र जीत की गारंटी है, तो रूपाणी चाहेंगे कि उनके आदमी (भारद्वाज) को टिकट मिले. भारद्वाज को टिकट मिलने का मतलब ही है कि रूपाणी को टिकट मिल गया."
वह आगे कहते हैं, दूसरी तरफ वाला की अपने पीए को टिकट दिलवाने की जद्दोजेहद बताती है कि वह भी पार्टी पर अपना दबदबा कायम रखना चाहते हैं.
भले ही यह दावा किया जा रहा है कि रूपाणी को दरकिनार कर दिया गया है लेकिन फिर भी वह पार्टी के महत्वपूर्ण फैसलों का हिस्सा रहे हैं. वह उस कोर कमिटी के सदस्य हैं जिसका गठन प्रदेश बीजेपी अध्यक्ष सीआर पाटिल ने किया है. कोर कमेटी को वर्तमान में उम्मीदवारों पर निर्णय लेने का काम सौंपा गया है, जिस पर अंतिम निर्णय कथित तौर पर 8 और 9 नवंबर को दिल्ली में लिया जाएगा.
सीनियर पॉलिटिकल एनालिस्ट और राजकोट के पत्रकार ज्वलंतभाई चान्या कहते हैं, रूपाणी जानते हैं कि पार्टी उन्हें नहीं चाहती, इसलिए उन्होंने चुनाव लड़ने की इच्छा जाहिर नहीं की.
"रूपाणी को पता है कि पार्टी 'नो रिपीट' पॉलिसी अपनाने की कोशिश कर रही है और इसकी आड़ में उन्हें किनारे लगा रही है. अगर वह सार्वजनिक रूप से अपनी मर्जी जता देते हैं और बाद में उन्हें टिकट नहीं मिलता तो अच्छी-खासी शर्मिन्दगी हो जाएगी." चान्या कहते हैं.
"इसमें कोई शक नहीं है कि उन्हें दरकिनार कर दिया गया है. जब आलाकमान ने उन्हें इस्तीफा देने को कहा, तो कोई विशेष कारण नहीं बताया था. बहुत से अंदरूनी सूत्रों ने कहा कि इसकी एक वजह राज्य में कोविड की बदइंतजामी थी, लेकिन गुजरात बीजेपी शासित अकेला राज्य नहीं था जहां कोविड को दौरान इंतजाम बुरा था," चान्या का कहना है.
अब रूपाणी को बीजेपी का पंजाब प्रभारी बनाया गया है. केंद्र में लगातार आठ सालों से सरकार होने के बावजूद पंजाब में बीजेपी बढ़त नहीं बना पा रही है. राज्य में आम आदमी पार्टी के तेजी से उभार और केंद्र के कृषि कानूनों को लेकर किसानों की लगातार नाराजगी के बाद, पंजाब में पार्टी के लिए रास्ता बनाना रूपाणी के लिए टेढ़ी खीर हो सकता है.
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