advertisement
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (PM Modi) कथित तौर पर 28-29 नवंबर और 2-3 दिसंबर को गुजरात (Gujarat Election 2022) में घर-घर जाकर मतदाता पर्ची बांटेंगे. वो 19 से 21 नवंबर के बीच आठ रैलियों को भी संबोधित करेंगे.
इससे पहले नवंबर में मोदी ने भावनगर में एक सामूहिक विवाह समारोह में जोड़ों को आशीर्वाद दिया था.
कांग्रेस (Congress) और आम आदमी पार्टी (AAP) दोनों ने गुजरात में प्रधानमंत्री के प्रचार अभियान को "हताशा" या "बीजेपी की घबराहट" के संकेत के रूप में मज़ाक उड़ाया है.
लेकिन क्या यह वाकई इतना आसान है? शायद नहीं.
द क्विंट ने गुजरात में भारतीय जनता पार्टी (BJP) के प्रचार से जुड़े कई लोगों से बात की और ये कुछ कारण हैं जो गुजरात अभियान में पीएम की व्यापक तैनाती की वजह के रूप में सामने आए.
आनंदीबेन पटेल के बाद से, गुजरात में बीजेपी के मुख्यमंत्रियों को बहुत अधिक राजनीतिक महत्व नहीं मिला है, चाहे वह विजय रूपाणी हों या वर्तमान भूपेंद्र पटेल.
आनंदीबेन पटेल को उनके कद के बावजूद हटा दिया गया और मुख्य रूप से राज्यपाल बनाया गया क्योंकि शीर्ष पर उनकी उपस्थिति राज्य में जातिगत ध्रुवीकरण के समय पाटीदारों और गैर-पाटीदारों दोनों को परेशान कर रही थी. पाटीदार होने के बावजूद, वह अपने अधीन हुए पाटीदार आरक्षण के खिलाफ बड़े पैमाने पर कार्रवाई के कारण समुदाय के लिए खलनायक बन गईं. गैर-पटेलों के लिए, वह पाटीदार राजनीतिक प्रभुत्व का एक और प्रतीक थीं.
रूपाणी, राजकोट के एक जैन, सौम्य व्यक्ति थे, जिनकी शीर्ष पर उपस्थिति ने दोनों पक्षों में से किसी को भी परेशान नहीं किया. इसके अलावा उनका कोई राजनीतिक महत्व नहीं था.
2021 तक, रूपाणी ने शायद अपनी उपयोगिता खो दी थी और COVID-19 के कथित कुप्रबंधन के कारण अपनी चमक भी खो दी थी. इसलिए उनकी जगह भूपेंद्र पटेल को लाया गया. पाटीदार समुदाय के लिए सम्मान के अलावा, जो बेचैन होने लगा था, भूपेंद्र पटेल के पल्ले भी बहुत कुछ नहीं है. कई राज्यों में मतदाता उन्हें पहचानते भी नहीं हैं.
यहां मुद्दा यह है कि एकमात्र चेहरा पीएम मोदी हैं. सीएम के चेहरे से कोई फर्क नहीं पड़ता.
यहां तक कि केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह और गुजरात बीजेपी प्रमुख सीआर पाटिल दोनों बहुत अच्छे रणनीतिकार हैं, लेकिन भीड़ खींचने वाले नहीं हैं.
2017 के विधानसभा चुनावों में, बीजेपी की संख्या दो दशकों में 100 से नीचे गिर गई. चूंकि मोदी के पीएम बनने के बाद ये पहला विधानसभा चुनाव था, इसलिए इसमें कोई शक नहीं कि इससे उनकी छवि को नुकसान पहुंचा था.
वास्तव में, अगर शहरी गुजरात में व्यापक जीत और प्रचार के दूसरे चरण में पीएम की खुद की भागीदारी नहीं होती, तो पार्टी की सीटें कम हो सकती थीं.
इस बार बीजेपी गुजरात के साथ पीएम के व्यक्तिगत जुड़ाव पर जोर देना चाहती है - इसलिए पीएम का नारा 'वी हैव मेड दिस गुजरात'
गुजरात बीजेपी के एक पदाधिकारी ने द क्विंट को बताया,
बीजेपी के अंदरूनी सूत्र मानते हैं कि राज्य सरकार के प्रदर्शन से ज्यादा पीएम की अपील पार्टी के मुख्य अभियान की पिच है. रोजगार सृजन हो, कृषि संबंधी मुद्दे हों या कोविड-19 प्रबंधन, राज्य सरकार का प्रदर्शन लचर रहा है.
मोरबी पुल का ढहना, जिसमें कम से कम 135 लोग मारे गए, राज्य सरकार की नवीनतम और सबसे अधिक दिखाई देने वाली विफलता है. पुल के जीर्णोद्धार का ठेका बीजेपी नियंत्रित नगर निकाय द्वारा दिया गया था.
इन्हीं नाकामियों को कागज पर उतारने के लिए बीजेपी के प्रचार अभियान में पीएम के व्यक्तित्व पर जोर दिया जा रहा है.
मोदी की 2002 की जीत के बाद हुए चुनावों में (2007, 2012 और 2017) बीजेपी की सीट हिस्सेदारी लगातार गिरती आई है जबकि कांग्रेस की बढ़ रही है.
इस बार बीजेपी गुजरात में इस ट्रेंड बदलने को पलटने का एक मौका देख रही है, खासकर विपक्षी वोटों के कांग्रेस और AAP के बीच बंटने की संभावना है.
पार्टी राज्य में दो-तिहाई बहुमत की उम्मीद कर रही है, जो 2002 के बाद से उससे दूर है. जो 2024 के लोकसभा चुनावों के लिए मनोवैज्ञानिक फायदा उसको पहुंचाये.
याद रखें, 2017 के नतीजों के बाद क्या हुआ?- इसने कांग्रेस को एक संक्षिप्त पुनरुद्धार के रास्ते पर ला दिया, कर्नाटक, छत्तीसगढ़, राजस्थान और मध्य प्रदेश में उसने सरकारें बनाईं.
यह केवल पुलवामा हमले और बालाकोट हमले का राजनीतिक प्रभाव था जिसने कांग्रेस के लाभ को समाप्त कर दिया.
बीजेपी इस चुनाव से दो तिहाई बहुमत के साथ-साथ कांग्रेस और 'आप' दोनों को बड़े अंतर से हारते हुए देखना चाहती है और जानती है कि केवल 'मोदी कार्ड' ही इसे हासिल करने में मदद कर सकता है.
गुजरात चुनाव की पूरी कवरेज आप यहां क्लिक कर पढ़ सकते हैं.
(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)