Home Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019Elections Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019जिस लेफ्ट ने बंगाल में किया लगातार 34 साल राज, कैसे हुआ उसका सफाया

जिस लेफ्ट ने बंगाल में किया लगातार 34 साल राज, कैसे हुआ उसका सफाया

पश्चिम बंगाल में लेफ्ट को एक भी लोकसभा सीट नहीं मिली है

क्विंट हिंदी
चुनाव
Updated:
पश्चिम बंगाल में लेफ्ट को एक भी लोकसभा सीट नहीं मिली है
i
पश्चिम बंगाल में लेफ्ट को एक भी लोकसभा सीट नहीं मिली है
(फोटो: PTI)

advertisement

कभी पश्चिम बंगाल में अजेय ताकत माने जाने वाले लेफ्ट फ्रंट के लिए इस बार का लोकसभा चुनाव सबसे खराब रहा. दरअसल उसे यहां एक भी सीट नहीं मिली है. लेफ्ट ने पश्चिम बंगाल में 1977 से लेकर 2011 तक यानी लगातार 34 साल राज किया था. मगर अब इसी राज्य में लेफ्ट का जनाधार तेजी से सिमटा है.

लेफ्ट की प्रमुख पार्टी सीपीएम के 1964 में हुए गठन के बाद यह पहला मौका है, जब लोकसभा चुनाव में उसे पश्चिम बंगाल में कोई सीट नहीं मिली.

बात वोट शेयर की करें तो पश्चिम बंगाल में सीपीएम को महज 6.28 फीसदी वोट मिले हैं. वहीं लेफ्ट फ्रंट की दूसरी अहम पार्टी सीपीआई को यहां 0.40 फीसदी वोट मिले हैं.

ADVERTISEMENT
ADVERTISEMENT

कार्यकर्ताओं की कमी बनी लेफ्ट की बड़ी परेशानी

सीपीएम पोलित ब्यूरो के सदस्य हन्नान मुल्ला ने चुनाव से पहले न्यूज एजेंसी पीटीआई को बताया था, ''यह चुनाव वाकई में बंगाल में हमारे के लिए सबसे मुश्किल चुनावी लड़ाईयों में से एक है. हमने कभी कल्पना भी नहीं की थी कि हम राज्य की सियासत में ऐसी हालत में पहुंच जाएंगे.''

एक इंटरनल पार्टी रिपोर्ट के मुताबिक, इस चुनाव में सीपीएम के पास कार्यकर्ताओं की इतनी कमी थी कि वह राज्य के 77,000 पोलिंग स्टेशनों के 30 फीसदी स्टेशनों पर भी पोलिंग एजेंट नियुक्त नहीं कर सकती थी.

इस तरह हुआ था पश्चिम बंगाल में लेफ्ट का उदय

पश्चिम-बंगाल वो राज्य है, जहां आजादी के बाद लेफ्ट ने तेजी से अपना प्रभाव बनाया था. 1952 विधानसभा चुनाव के बाद यहां अविभाजित सीपीआई मुख्य विपक्षी पार्टी बनी थी. इसके नेता ज्योति बसु नेता विपक्ष बने थे. साल 1964 में वैचारिक मुद्दों पर इस पार्टी का विभाजन हो गया और इसके नतीजे में सीपीएम सामने आई. इसके बाद सीपीएम ने मुख्य लेफ्ट पार्टी बनने के मामले में सीपीआई को पीछे छोड़ दिया.

पश्चिम बंगाल में नक्सलवाद के जड़ें जमाने के समय सीपीएम ने कांग्रेस से छिटककर अस्तित्व में आई बांग्ला कांग्रेस के साथ कुछ समय तक चलने वाली दो सरकारें बनाईं. ये सरकारें 1967 और 1969 में बनी थीं.

ज्योति बसु और प्रमोद दास गुप्ता की लीडरशिप में सीपीएम पश्चिम बंगाल में कांग्रेस का विकल्प बन गई. साल 1977 में सीपीएम की अगुवाई में यहां लेफ्ट की सरकार आई. इसके मुख्य प्रोग्राम्स में ऑपरेशन बरगा (भूमिहीन किसानों को जमीन देना) और तीन स्तर वाले पंचायत सिस्टम की नींव रखना था. ऑपरेशन बरगा से मुस्लिमों समेत लाखों किसानों को फायदा पहुंचा.  

इस तरह लेफ्ट ने अल्पसंख्यकों और ग्रामीण इलाकों के बीच अपनी मजबूत पकड़ बना ली. ये दोनों वोटबैंक लेफ्ट के लिए अगले तीन दशक तक ब्लैंक चेक साबित हुए. साल 1980 के लोकसभा चुनाव में लेफ्ट ने पश्चिम बंगाल में 38 सीटें जीतीं. 1996 में लेफ्ट के 33 सांसद और 2004 में 34 सांसद केंद्र में सरकार बनाने में निर्णायक फैक्टर बने.

...और फिर धीरे-धीरे खिसक गया लेफ्ट का जनाधार

2008 में सच्चर कमेटी की रिपोर्ट में बताया गया कि पश्चिम बंगाल में अल्पसंख्यकों की स्थिति अच्छी नहीं है. नंदीग्राम और सिंगूर में टीएमसी चीफ ममता बनर्जी की अगुवाई में जमीन अधिग्रहण के खिलाफ आंदोलन ने लेफ्ट को बड़ा झटका दिया. 2009 के लोकसभा चुनाव में लेफ्ट को पश्चिम बंगाल की 42 सीटों में से 15 सीटें ही मिलीं. इसके बाद 2011 में ममता बनर्जी ने लेफ्ट के हाथ से पश्चिम बंगाल की सत्ता छीन ली. फिर इस राज्य में लेफ्ट की कमर ऐसी टूटी कि वह आज भी वहां ठीक से खड़ा होने की हालत में नहीं दिख रहा है. 2014 के लोकसभा चुनाव में लेफ्ट को पश्चिम बंगाल की महज 2 सीटें ही मिलीं. 2016 के विधानसभा चुनाव में भी हाथ लगी मायूसी के बाद उपचुनावों और पंचायत चुनावों में लेफ्ट का वोट शेयर 20 फीसदी से भी नीचे चला गया.

ये भी देखें: पीएम मोदी के अलावा कौन है इस चुनाव का बिग विनर?

(हैलो दोस्तों! हमारे Telegram चैनल से जुड़े रहिए यहां)

Published: 24 May 2019,08:22 AM IST

Read More
ADVERTISEMENT
SCROLL FOR NEXT