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लोकसभा चुनाव में झारखंड की राजनीति में वो हुआ है जिसकी कल्पना करना भी मुश्किल है. तीन बार सीएम और आठ बार सांसद रह चुके शिबू सोरेन चुनाव हार गए. शिबू सोरेन को झारखंड की राजनीति में ‘दिशोम गुरु’ कहते हैं यानी ‘आदिवासियों को रास्ता दिखाने वाला गुरु’, लेकिन आज ऐसा लगा रहा है कि ‘दिशोम गुरु’ के सामने खुद ही रास्ते बंद हो चुके हैं.
देश के सबसे बड़े आदिवासी नेता शिबू सोरेन का अपने ही किले दुमका में हार जाना झारखंड की बदलती सियासत का बड़ा संकेत है. लोकसभा चुनाव के नतीजे बता रहे हैं कि झारखंड में इसी साल होने वाले चुनाव में गैर बीजेपी दलों और खासकर झारखंड मुक्ति मोर्चा (JMM) के लिए मुश्किलें बढ़ने वाली हैं.
झारखंड अलग राज्य आंदोलन का सबसे बड़ा चेहरा शिबू सोरेन. उन्हें दुमका ही नहीं, झारखंड के आदिवासी इलाकों में बच्चा-बच्चा जानता है. लेकिन वो ही अपने गढ़ में हार गए. उन्हें हराया बीजेपी के सुनील सोरेन ने. वो सुनील सोरेन जो कभी शिबू सोरेन के बेटे दुर्गा सोरेन को अपना गुरु मानते थे. तो सुनील सोरेन ने पहले अपने गुरु दुर्गा सोरेन को विधानसभा चुनाव में हराया और अब 'महागुरु' शिबू सोरेन को लोकसभा चुनाव में हराया. पिछले 30 साल से ये सीट JMM का गढ़ रही है. झारखंड बनने के बाद यहां से कोई और नहीं जीता. इस हार का असर दूर और देर तक रहेगा क्योंकि इससे जो मैसेज पूरे झारखंड में गया है वो JMM के लिए ठीक नहीं है. JMM के हर कार्यकर्ता और वोटर के मन में सवाल है कि जब दुमका से शिबू सोरेन हार गये तो कौन सेफ है?
काडर से कटा सोरेन परिवार
पार्टी के कार्यकर्ताओं का कहना है कि JMM के कार्यकारी अध्यक्ष हेमंत सोरेन और सुप्रीमो शिबू सोरेन काडर से कट चुके हैं. सचिव अभिषेक पिंटू, केंद्रीय महासचिव विनोद पांडेय और सुप्रियो भट्टाचार्य का पार्टी पर एक तरह से कब्जा हो चुका है. पहले शिबू सोरेन के दरवाजे सबके लिए खुले रहते थे. अब उनसे मिलने के लिए बड़े कार्यकर्ताओं को भी घंटों इंतजार करना पड़ता है. कार्यकर्ता अभिषेक पिंटू पर आरोप लगाते हैं कि वो कार्यकर्ताओं को हेमंत और शिबू सोरेन तक पहुंचने ही नहीं देते.
मुस्लिमों का गुस्सा
झारखंड में गोरक्षकों की हिंसा बड़ा मुद्दा बन चुका है. इतना बड़ा कि हजारीबाग से बीजेपी उम्मीदवार केंद्रीय मंत्री जयंत सिन्हा ने चुनाव के दौरान बयान दिया कि उन्होंने रामगढ़ में मॉब लिचिंग के आरोपियों को आर्थिक मदद दी थी. जब वो ऐसा कह रहे थो तो जाहिर तौर पर अपने टारगेटेड मतदाता तक संदेश पहुंचा रहे थे. वहीं मुस्लिम वोटर JMM से इस बात को लेकर नाराज थे कि JMM अध्यक्ष हेमंत सोरेन ने इस बड़े मुद्दे पर एक बार सदन में आवाज़ तक नहीं उठाई.
महतो वोटरों की नाराजगी
राज्य में महतो वोटर का बड़ा दबदबा है. लेकिन इस बार ये वोटर JMM से नाराज था. एक शिकायत ये थी कि चुनाव प्रचार के दौरान झारखंड आंदोलन के शहीद महतो नेताओं को उचित सम्मान नहीं दिया गया. महतो नेता आस्तिक महतो को पार्टी में शामिल कराने के बाद भी जमशेदपुर से टिकट नहीं देने को भी मुद्दा बनाया गया. मांडू विधायक और JMM के बागी महतो नेता जयप्रकाश भाई पटेल ने बीजेपी के साथ मिलकर पार्टी को काफी नुकसान पहुंचाया.
शिबू सोरेन की उम्र
शिबू सोरेन ने पिछले चुनाव में घोषणा की थी कि अब ये उनका आखिरी चुनाव होगा लेकिन 2019 में वो फिर चुनाव लड़े. इतना ही नहीं उन्होंने यहां तक कह दिया कि वो जबतक जिंदा रहेंगे तब तक चुनाव लड़ते रहेंगे. 75 साल के शिबू सोरेन की सेहत भी ठीक नहीं रहती है. इन सबका वोटर के बीच अच्छा मैसेज नहीं गया.
मोदी लहर
इन सब में से बड़ा कारण रहा फिर एक बार-मोदी लहर. JMM को पूरा भरोसा था कि दुमका सीट वो हार ही नहीं सकती. इस ओवरकॉन्फिडेंस ने पार्टी को डुबोया. खासकर शहरी क्षेत्रों में बीजेपी ने पैनी पकड़ बनाई और सीट निकाल ली. बाकी राज्य में भी पार्टी को यही लग रहा था कि चारों दल मिलकर बीजेपी को अच्छी टक्कर देंगे लेकिन मोदी की सुनामी में गठबंधन की दीवार ढह गई.
पिछले लोकसभा चुनाव में JMM का वोट प्रतिशत 9 फीसदी था. इस बार ये बढ़कर 11 फीसदी हुआ. माना जा सकता है तो थोड़ा फायदा गठबंधन का हुआ है. 50 फीसदी वोट के साथ बीजेपी नंबर वन पर रही. कांग्रेस को चाईबासा की एक सीट मिली और उसे 15 फीसदी वोट मिले. इस लिहाज से कभी जिस राज्य में JMM की तूती बोलती थी, अब वहां वो तीसरे नंबर की पार्टी बनकर रह गई है. 2014 विधानसभा चुनाव में पार्टी ने 20 फीसदी वोटों के साथ 19 सीटें जीती थीं और राज्य में दूसरे नंबर की पार्टी थी. इस साल के अंत में झारखंड में विधानसभा चुनाव होने हैं. ऐसे में JMM के लिए अपनी साख और वजूद बचा पाना बड़ी चुनौती होगी.
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Published: 26 May 2019,09:09 PM IST