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लेफ्ट के साथ ये क्या हो गया? अर्श से फर्श पर पहुंचने की ये है वजह 

2004  में लेफ्ट ने लोकसभा की 59 सीटें जीती थीं लेकिन अब वह 5 सीटों पर सिमट गया है

दीपक के मंडल
चुनाव
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वोट की राजनीति में क्यों पिछड़ता जा रहा है लेफ्ट?  
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वोट की राजनीति में क्यों पिछड़ता जा रहा है लेफ्ट?  
फोटो : PTI 

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लेफ्ट का सितारा डूबता जा रहा है. 2004 में इसने 59 सीटें जीती थीं. लेकिन 2009 से इसकी सीटें लगातार घटती गईं और 2019 आते-आते यह अपने गढ़ पश्चिम बंगाल से पूरी तरह मिट गया. 2014 की संसद में लेफ्ट के 10 सांसद थे और इस बार इसके सिर्फ 5 कैंडिडेट को संसद भवन में घुसना नसीब होगा?

कहां थे अब कहां पहुंच गए

आखिर, लेफ्ट के साथ ऐसा क्या हुआ कि 2004 में 59 सीटें जीत कर यूपीए-1 सरकार का सबसे बड़ा सहारा बनी वामपंथी पार्टियों को अब कोई पूछने वाला भी नहीं है. सीटों के हिसाब से देखें तो वामपंथी पार्टियां 2009 से लगातार कमजोर होती गई हैं. 2004 में 59 सीटें जीतने वाली लेफ्ट 2009 में घट कर 24 सीटों पर आ गई. 2014 में यह पूरे देश भर में इसे सिर्फ दस सीटें मिलीं. लेकिन 2019 में इसने बंगाल में अपना बचाखुचा इकबाल भी खत्म कर लिया. पश्चिम बंगाल में एक भी सीट न जीत पाना 2019 का सबसे बड़े झटकों में से एक है.

सीपीएम ने 2004 में 44 सीटें जीती थीं और 2009 में इसकी सीटें घट कर 16 हो गईं. 2014 में यह 9 सीटें ही जीत सकी. इस बार सीपीएम अपने दूसरे बड़े गढ़ केरल में एक सीट (अलपुझा) जीत पाई. डीएमके की लहर की वजह से तमिलनाडु में इसे कोयंबटूर और मदुरै की सीट मिल सकी. सीपीआई तमिलनाडु में नागपट्टनम और तिरुपुर की सीट जीतने में कामयाब रही.

ग्राफिक्स : क्विंट हिंदी/स्मृति चंदेल 

पश्चिम बंगाल, केरल और त्रिपुरा सीपीएम के गढ़ रहे हैं. त्रिपुरा के विधानसभा चुनाव में मानिक सरकार की सत्ता का खात्मा एक चौंकाने वाली घटना थी. जबकि ममता बनर्जी ने पश्चिम बंगाल में 34 साल पुरानी लेफ्ट सरकार को हरा कर राज्य में राज्य में तृणमूल सरकार की नींव रखी थी.

2019 का चुनाव आने तक लेफ्ट की यह हैसियत रह गई की यह दहाई अंक में भी सीटें नहीं जीत पाई. आखिर वोट पॉलिटिक्स में सीपीएम के लगातार घटते वजूद की वजह क्या है?

जमीनी संघर्ष की विरासत बरकरार नहीं रख सका लेफ्ट

दरअसल पिछले पांच साल में लेफ्ट जमीनी संघर्ष की विरासत छोड़ती नजर आई. देश में बढ़ते मॉब लिचिंग. घटते रोजगार और नोटबंदी, जीएसटी की वजह से काम की कमी जैसे मुद्दों को लेफ्ट पार्टियां जोर-शोर से नहीं उठा पाईं. सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की तेज रफ्तार को रोकने के लिए इसके पास कोई पुख्ता रणनीति नहीं दिखी. इससे लेफ्ट के कोर वोटर- मुस्लिम, दलित और पिछड़े इससे दूर होते गए.

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कारगर गठबंधन करने में नाकाम

लेफ्ट कई मुद्दों पर कांग्रेस का समर्थन करती दिखी लेकिन वह इसके साथ मिल कर एक पुख्ता गठजोड़ नहीं तैयार कर पाई. पश्चिम बंगाल में लेफ्ट को कांग्रेस से गठबंधन न करने का भारी नुकसान हुआ. केरल में भी लेफ्ट का रवैया कांग्रेस के खिलाफ काफी खराब रहा. वायनाड से राहुल गांधी के चुनाव लड़ने का लेफ्ट ने जम कर विरोध किया.

किसानों को आंदोलन को नेतृत्व देने के बावजूद इसे वोट में नहीं बदल पाया लेफ्ट फोटो: रौनक कुकड़े

लेफ्ट में यंग लीडरशिप की कमी

लेफ्ट की बड़ी दिक्कत युवा नेतृत्व को आगे न कर पाने की है. एक युवा देश में लेफ्ट की ओर से यंग लीडरशिप में नाकामी की वजह से नई पीढ़ी के वोटर इससे कनेक्ट नहीं हो पा रहे है.इन पांच सालों में लेफ्ट किसानों की गोलबंदी करने में नाकाम रही. हालांकि महाराष्ट्र में ऑल इंडिया किसान सभा का आंदोलन इसके खाते में गया लेकिन इस तरह के आंदोलनों को वह वोट में तब्दील करने में नाकाम रहा.

लेफ्ट के काडर दूसरी पार्टियों की ओर

यह बेहद अचरज भरी बात है कि पश्चिम बंगाल जैसे राज्य में वामपंथी पार्टियों का कैडर पिछले दो-तीन साल में बीजेपी का काडर बना गया. जो बीजेपी में नहीं गए, उन्होंने तृणमूल को हराने के लिए बीजेपी को वोट दिया. केरल में भी यह ट्रेंड दिख रहा है. यहां भी बीजेपी ने पिछले दो-तीन साल में बड़ा काडर तैयार कर लिया है.

सीपीआई के डी राजा ने माना कि यह लेफ्ट की अब तक की सबसे बड़ी हार है. लेकिन बड़ा सवाल ये है कि सीपीएम और सीपीआई इस हार से सबक लेकर खुद का वजूद बचाने के लिए मैदान में उतरेंगी या नहीं. क्या अब भी वे ‘आर्म चेयर पॉलिटिक्स’ पर चलती रहेंगी.

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