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पंजाब की 117 विधानसभा सीटों पर मतदान संपन्न हो गया. राज्य में 70% मतदान का आंकड़ा सामने आया है. 2017 में हुए पिछले विधानसभा चुनावों की तुलना में यह 7% तक कम है. पिछली बार 77% तक वोटिंग हुई थी. पिछले 15 वर्षों में यह सबसे कम वोटिंग का आंकड़ा है. वोटिंग प्रतिशत में इस खासी कमी ने सभी को चौंका दिया. 7% कम वोटिंग के इस आंकड़े ने राज्य में किसी बड़े बदलाव की संभावना को काफी कम कर दिया है. क्योंंकि अक्सर माना जाता है कि जनता जब वर्तमान सरकार को हटाने के लिए और एंटी इनकंबेंसी फैक्टर के प्रभाव में वोटिंग करती है तो वोटर्स घरों से निकलता है और वोटिंग प्रतिशत भी बढ़ता है.
पर यहां ऐसा पैटर्न नहीं देखा गया. इस स्थिति से सत्तारूढ़ कांग्रेस फायदे में दिख रही है और बदलाव के मुद्दे पर वोट मांग रही और चन्नी सरकार पर हमलावर AAP को इससे झटका लगा है.
पंजाब में वोटिंग प्रतिशत की ऐसी कमी पिछले तीन विधानसभा चुनावों के बाद देखी गई है.साल 2002 के बाद चुनावों में बीस सालों बाद ऐसा मौका आया है कि इस राज्य में वोटिंग का प्रतिशत इतना नीचे रहा हो, अन्यथा पिछले तीन चुनावों में वोटिंग प्रतिशत कभी भी 76 से नीचे नहीं गया है. 2007 में यह 76%, 2012 में 78.3% और 2017 में 78% रहा. 76 फीसदी से अधिक वोटिंग के पिछले तीन अवसरों में से दो बार इस बंपर वोटिंग ने राज्य में सत्तारुढ़ दल को कुर्सी से उतार दिया था. 2002 में राज्य में कुल वोटिंग हुई थी 62.14% और तब कांग्रेस सत्ता में आई थी. लेकिन इसके पांच साल बाद 2007 में राज्य की जनता ने बंंपर वोटिंग की और इसका प्रतिशत बढ़कर 76% हो गया, यानी कि सीधे 14 प्रतिशत वोटिंग की बढोतरी.
राज्य में वोटिंग का एक और ट्रेंड काम करता है. इसके अनुसार जब जब मतदान प्रतिशत पिछले चुनाव की तुलना में गिरा हो तो उस संयोग का फायदा कांग्रेस पार्टी ही उठाती रही है.
2002 के चुनावाें में वोटिंग 62.14% हुई, जो पिछले बार के चुनावों की वोटिंग 68.7% की तुलना में 6% तक कम थी. उस बाार अकाली दल-बीजेपी की सरकार को गद्दी से उतारकर कांग्रेस सत्ता में आई. इसके बाद वोटिंग गिरने से कांग्रेस के फायदे का संयोग 2017 में आया. उस साल वोटिंग पिछले मतदान प्रतिशत 78.3% की तुलना में 77.2% हुई, यानी कि 1% के आसपास कमी हुई. इसका भी फायदा कांग्रेस को मिला और उस साल अमरिंदर सिंह की अगुआई में कांग्रेस सत्ता में आ गई. इस संयोग पर विश्वास करें तो इस बार कांग्रेस को सत्ता में रहने का मौका फिर मिल सकता है.
अकाली दल के साथ इस परिस्थिति का बिल्कुल विपरीत होता है. जब जब वोटिंग पिछले चुनावों से आगे बढ़ती है तो उनका चांस लग जाता है. वहीं वोटिंग कम हाेने से वे सत्ता से चले जाते हैं. 2007 में जब वोटिंग का प्रतिशत पिछले चुनाव ( 2002 में 62.14%) से बढ़कर 76% हो गया तो इस 14% की बढ़ोतरी के बूते पर अकाली दल की सत्ता में वापसी हुई. इसके पांच साल बाद 2012 में मतदान प्रतिशत 2.3% बढ़कर 78.3% हो गया. तो इस संयोग ने अकाली दल को फिर सत्ता दिला दी.
अब वोटिंग कम हाेने से वे उनके हारने का संयोग भी देखिए. 1997 में पंजाब में अकाली दल-भाजपा की सरकार बनी. इसके पांच साल बाद अगले चुनाव 2002 हुए तो में वोटिंग पिछले चुनाव (1997 में 68.7% ) की तुलना में 6% के लगभग कम होकर 62.14% रह गई, तो अकाली की सत्ता चली गई और कांग्रेस सत्ता में आ गई. 2012 से 2017 तक राज्य में अकालियों की सरकार रही. जब 2017 में वोटिंग हुई तो मतदान प्रतिशत पिछले चुनाव (2012 में 78.3%) से थोड़ा सा घटकर 77.2% रह गया. इस मामूली सी 1% के आसपास की कमी ने अपना असर तो दिखाया ही और अकालियों से कुर्सी छीनकर कैप्टन अमरिंदर सिंह की अगुआई वाली कांग्रेस को दे दी. इस संयोग पर विश्वास करें तो इस बार अकालियों के लिए कोई मौका नहीं है.
पंजाब की सत्ता की कुर्सी कहे जाने वाले मालवा रीजन में राज्य की कुल 117 सीटों में से 69 सीटें शामिल हैं. यहां कुल वोटिंग परसेंट 73.16% सामने आया है. इस रीजन के प्रमुख जिलों पटियाला, फिरोजपुर, बरनाला, लुधियाना, फतेहगढ़ साहिब, बठिंडा, फरीदकोट, मोगा, संगरूर, मोहाली, रोपड़, मुक्तसर, फाजिल्का, मानसा आदि सभी में वोटिंग का प्रतिशत पिछले चुनाव के मुकाबले कम रहा है. पिछले चुनाव में जब यहां के कुछ जिलों में वाेटिंग प्रतिशत 85-86 तक गया था और ग्रामीण इलाकों ने भी जबरदस्त वोटिंग की थी तो कांग्रेस ने इस रीजन से 40 सीटें जीतकर सरकार बनाई थी.
इस बार मतदान पूर्व तो इस रीजन से आम आदमी पार्टी को मजबूत कहा जा रहा था, पर कम वोटिंग होने से उसके समीकरण यहां से गड़बड़ा सकते हैं. पिछली बार इस रीजन के गांवों में AAP को अच्छा समर्थन मिला था. इस बार भी AAP की ओर से गांवों से वोट लेने के दावे किए जा रहे थे, पर कम वोटिंग केा देखते हुए कहा जा सकता है कि AAP की रणनीति वोट में कंन्वर्ट नहीं हो पाई है. सत्ता विरोधी लहर यदि पंजाब के इस बड़े रीजन में काम करती तो यहां वोटिंग प्रतिशत बढ़ता, पर ऐसा न होने से कांग्रेस को ही फायदा होता दिख रहा है.
पंजाब के दोआबा क्षेत्र में राज्य की 23 सीटें आती हैं. जालंधर, कपूरथला, होशियारपुर और नवांशहर (शहीद भगत सिंह नगर) जैसे जिले इस रीजन के प्रमुख हिस्से हैं. यहां के बड़े शहर जालंधर को ही आधार बनाएं तो इसकी नौ सीटों पर 2017 में 73.16% मतदान हुआ था पर इस बार यह गिरकर 67.45% प्रतिशत रह गया है. आदमपुर, जालंधर सेंट्रल, जालंधर वेस्ट, फिल्लौर, शाहकोट, नकोदर, करतारपुर जैसी सीटों पर मतदाताओं को आकर्षित करने के उपायों का कोई लाभ नहीं हुआ और कम वोटिंग का ट्रेंड यहां भी मतदाता की सुस्ती का संकेत देते रहे. हालांकि पंजाब चुनाव के जानकारों के अनुसार दोआबा क्षेत्र की वोटिंग में पंजाब को कांग्रेस की ओर से दिए गए पहले दलित मुख्यमंत्री चरणजीत चन्नी का फैक्टर दिखा है.
इसके अलावा माझा अंचल के तीन बड़े जिलों पठानकोट, गुरदासपुर व अमृतसर की 21 सीटें की बता करें तो यहां तीनों ही पार्टियों में कड़ा मुकाबला दिख रहा है, लेकिन मतदान ज्यादा न होने से यहां भी कांग्रेस फायदे में दिख रही है. इस अंचल में मतदान का प्रतिशत 67.89% रहा. माझा अंचल में वोट डालने के प्रति शहरियों से अधिक उत्साह ग्रामीणों में रहा है. अमृतसर यहां सबसे बड़ा जिला है और उसमें कुल 11 विधानसभा सीटें आती हैं. यहां की ग्रामीण सीटों अजनाला हलके में 76.1%, मजीठा में 70.2% और राजासांसी में 68.8% वोटिंग रही, वहीं बेहद मॉडर्न शहरी एरिया का हाल देखें. अमृतसर ईस्ट में 63.3%, अमृतसर वेस्ट व सेंटर में क्रमश: 54.4% व 55.2% वोट डले. गांवों की हवा को देखते हुए कहा जा सकता है कि आम आदमी पार्टी को यहां थोड़ा बहुत फायदा मिल सकता है. वैसे भी कांंग्रेस को वोट बैंक तो शहर और गांव दोनों ही जगह है. तो कांग्रेस के समीकरणों को भी इस स्थिति से कोई खासा नुकसान नहीं हो रहा.
आंकड़ों के जरिए चुनाव का विश्लेषण करके पार्टियों के फायदे और आने वाली सत्ता का अंदाजा जरूर लगाया जाता है पर यह कोई अंतिम सत्य नहीं है. इन आंकड़ों में भी अपवाद मिलते हैं. मसलन हमेशा ऐसा नहीं ऐसा होता कि यदि किसी सीट पर ज्यादा वोट पड़े हैं तो उसे एंटी इंनकंबेसी मानकर वहां की मौजूदा पार्टी के हारने की घोषणा की जाए. या कम वोटिंग को सत्ता चेंज न होने का संकेत मान लिया जाए. 2017 चुनावों के इन उदाहरणों पर गौर करें. भोलाथ सीट पर पिछले चुनाव की तुलना में 7% कम वोटिंग हुई पर फिर भी वहां चेंज आया यानी पिछली बार जीती पार्टी को हार मिली, वहीं पठानकोट सीट पर पिछले चुनाव की तुलना में 4% ज्यादा वोटिंग होने पर भी पिछली बार जीती पार्टी को हार ही मिली. खदूर साहिब और खरड़ दोनों ही सीटों पर माइनस 5% वोटिंग हुई, पर खदूर साहिब में सत्ता बदली, पर खरड़ में सत्ता अपरिवर्तित रही.
अन्य सीटों के विश्लेषण से भी इसे समझ सकते हैं. भोआ में 4% ज्यादा वोटिंग होने पर भी दूसरी पार्टी जीती और वहीं बटाला में 4% कम वोटिंग होने पर भी दूसरी पार्टी जीती, यानी चेंज दोनों ही स्थिति में आया. प्रदेश में पांच साल पहले हुए चुनावों से ऐसे कई उदाहरण मिलते हैं, जो बताते हैं कि हर बार कम वोटिंग को सत्ता परिवर्तन की अनिच्छा और ज्यादा वोटिंग को एंटी इंनकंबेसी नहीं माना जा सकता. खैर इस आंकड़ों के इस विश्लेषण से राज्य के चुनावी ट्रेंड की एक रोचक तस्वीर तो रीडर्स के सामने आती ही है.
मुक्तसर: 78.47%
मालेरकोटला : 78.14%
मानसा : 77.21%
फाजिल्का : 76.59%
बठिंडा : 76.11%
फरीदकोट : 75.86%
फिरोजपुर : 75.66%
फतेहगढ़ साहिब : 75.43%
संगरूर : 75.27%
बरनाला : 73.75%
पटियाला : 71%
पठानकोट : 70.86%
नवांशहर : 70.74%
गुरदासपुर : 70.62%
रोपड़ : 70.48%
कपूरथला : 67.87%
मोगा : 67.43%
होशियारपुर : 66.93%
तरनतारन : 66.83%
लुधियाना : 65.68%
जालंधर : 64.29%
अमृतसर : 63.25%
मोहाली : 62.41%
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