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Unnao का परिवार बता रहा कोरोना ने कितना सताया, सरकार ने भी भुलाया

लगभग दो साल बाद, उन्नाव के नया खेड़ा गांव में प्रवासी मजदूर अभी भी COVID लॉकडाउन का खामियाजा भुगत रहे हैं

सौम्या लखानी
उत्तर प्रदेश चुनाव
Updated:
<div class="paragraphs"><p>लॉकडाउन में पैदल अपने घर पहुंचे परिवार कैसे कर रहे हैं गुजारा- उन्नाव से रिपोर्ट</p></div>
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लॉकडाउन में पैदल अपने घर पहुंचे परिवार कैसे कर रहे हैं गुजारा- उन्नाव से रिपोर्ट

(फोटो- क्विंट)

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31 साल की रेशमा वर्मा ने पिछला डेढ़ साल यह सोचकर बिताया है कि उसके पिता की मौत किस वजह से हुई - क्या यह COVID के कारण हुई जो एक बीमारी थी, या 2020 की चरम गर्मी में 800 किलोमीटर लंबी पैदल यात्रा की थकान से हुई?

“मार्च 2020 में जब हम चंडीगढ़ में थे, तब वह स्वस्थ थे. मेरे पिता की उम्र केवल 50 वर्ष थी. और फिर प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने लॉकडाउन की घोषणा कर दी और हम उत्तर प्रदेश के उन्नाव में अपने गांव के लिए रवाना हो गए. हमें 10 दिन लगे, और मेरे पिता पैदल चलने के दौरान बीमार पड़ गए,” रेशमा उस कमरे में बैठी बताती है जहां उसके पिता ने नया खेड़ा गांव में अपने घर में अंतिम सांस ली थी.

प्रवासी मजदूरों के परिवार पर त्रासदी के लगभग दो साल बाद, क्विंट ने उन्नाव के नया खेड़ा गांव का दौरा किया, ताकि पता लगाया जा सके कि इन परिवारों को COVID के लहरों के दौरान और बाद क्या कीमत चुकानी पड़ी है.

'पीएम मोदी द्वारा लॉकडाउन की घोषणा के बाद शहर में गंवाई नौकरी'

रेशमा के पति राजेश ने बताया कि मार्च 2020 में जैसे ही COVID के मामले सामने आने लगे, दहशत का माहौल फैल गया. “काम कम हो गया, लोगों ने बाहर जाना बंद कर दिया, हम सब घर के अंदर ही रहे. हमने पहले कुछ दिनों में कामयाबी हासिल की, क्योंकि हमें उम्मीद थी कि चीजें बेहतर होंगी,"

और फिर पीएम मोदी द्वारा देशव्यापी लॉकडाउन की घोषणा की गई. “हम सभी को अपनी नौकरी से निकाल दिया गया. मालिकों ने कहा कि हमें पैकअप करना चाहिए और बच्चों को लेकर गांव के लिए निकल जाना चाहिए. कोई ट्रेन, बस या टैक्सी नहीं थी. हमने अपने मालिकों से पूछा कि हम वापस कैसे जाएं?”

अपनी जेब में 2,000 रुपये, पानी की दो बोतलें और कुछ भीगे हुए चने के साथ, रेशमा के परिवार ने चंडीगढ़ से नया खेड़ा गांव तक 800 किलोमीटर की पैदल यात्रा शुरू की.

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नया खेड़ा गांव में केवल 40 पासी और यादव परिवार हैं. गिने-चुने लोगों के पास ही जमीन है, और बाकी लोग या तो बटाई खेती करते हैं या दिहाड़ी मजदूर के रूप में काम करने के लिए शहरों में चले जाते हैं.

अपने हालातों को बयान करते हुए राजेश कहते हैं,

“बहुत से लोग हमारे जैसे वापस चले गए लेकिन वे सभी शहर लौट आए हैं. हम ऐसा नहीं कर सकते. मुझे नहीं पता कि यहां पैसे कैसे कमाए जाते हैं, और मेरे पास गांव छोड़कर शहर जाने का कोई रास्ता नहीं है. अब कुछ जुगाड़ नहीं बचा है.”
राजेश

रेशमा के परिवार के लिए यूपी सरकार का मुफ्त राशन एक बड़ी मदद है

हमें कोई आर्थिक मदद नहीं मिली है लेकिन मुफ्त राशन ने कुछ बोझ कम कर दिया है. लेकिन मेरे नाती-पोते बेकार घूम रहे हैं, हमारे पास किताबें भी नहीं हैं. यह तनाव मुझे खा रहा है. क्या यही हमारा भविष्य है?” रेशमा की मां पूछती है.

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Published: 22 Feb 2022,09:44 PM IST

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