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'हीरामंडी' और 'दिल दोस्ती डिलेमा'-स्टीरियोटाइप सोच से अलग मुस्लिम किरदारों की कहानियां

'दिल दोस्ती डिलेमा' और 'हीरामंडी' के निर्माताओं ने आज के माहौल में जो किया है वह मामूली नहीं है.

करिश्मा उपाध्याय
बॉलीवुड
Published:
<div class="paragraphs"><p>हीरामंडी' और 'दिल दोस्ती डिलेमा' में  स्टेरियोटाइप सोच को नकारा</p></div>
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हीरामंडी' और 'दिल दोस्ती डिलेमा' में स्टेरियोटाइप सोच को नकारा

फोटो-क्विंट हिंदी

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'दिल दोस्ती डिलेमा' में अस्मारा (अनुष्का सेन द्वारा निभाया गया किरदार) एक टिपिकल अजीब लड़की है जो सोचती है कि दुनिया उसके इर्द-गिर्द घूमती है. वह ट्रेंडी कपड़े पहनती है और अपने सबसे अच्छे दोस्तों तानिया और नैना के साथ बेंगलुरु घूमती है. इन तीनों के लिए जिंदगी केवल फैशन, पार्टी, क्यूट लड़कों और अपने माता-पिता का पैसा खर्च करना है. अस्मारा अपने माता-पिता के साथ कनाडा में गर्मियों की छुट्टियां बिताने की प्लानिंग कर रही है और टोरंटो में अपने दोस्तों के साथ एक रीयूनियन का भी विचार है. लेकिन अस्मारा की मां अर्शिया (श्रुति सेठ द्वारा निभाया गया किरदार) उसकी इन बिगड़ी आदतों से परेशान होकर उसे शहर के एक पुरान हिस्से तिब्बरी रोड पर उसके नाना-नानी के घर भेज देती है.

दिल दोस्ती डिलेमा का एक सीन

(Photo Courtesy: Amazon Prime Video)

'दिल दोस्ती डिलेमा' प्राइम वीडियो की एक नई रोमकोम कॉमेडी है. यह एंडालीब वजीद की 2016 की किताब "आसमारा का समर" पर बेस्ड है. डेबी राव द्व्रारा निर्देशित यह सीरीज अप्रैल के अंत में रिलीज होते ही प्लेटफॉर्म की सबसे ज्यादा देखी जाने वाली सीरीज में शामिल हो गई. मेरे लिए संजय लीला भंसाली की बड़ी और साधारण नेटफ्लिक्स सीरीज हीरामंडी के बाद देखने के लिए यह अच्छा विकल्प थी.

कहानी आजादी से पहले के समय लाहौर के फेमस हीरामंडी (डायमंड बाजार) पर आधारित है. जो शाही महल के इर्द-गिर्द घूमती है, जहां मल्लिकाजान (मनीषा कोइराला) अपनी तवायफों के एक ग्रुप की मालिक हैं. यहां शहर के बड़े नवाब तहजीव, शिष्टाचार और प्यार की कला सीखने आते हैं. 8 एपिसोड की सीरीज में एक तवायफ हलचल मचाती है तो वहीं एक युवा कवि के प्यार में पड़ जाती है, जिससे आजादी की लड़ाई और तेज हो जाती है.

हीरामंडी का एक सीन.

(Photo Courtesy: YouTube)

इनके किरदार कैरिकेचराइज्ड मुसलमानों से बिल्कुल अलग हैं

अमेजन प्राइम की दिल दोस्ती डिलेमा और नेटफ्लिक्स की हीरामंडी की रिलीज में महज एक दो दिन का अंतर है लेकिन हीरामंडी रिलीज के बाद से नेटफ्लिक्स में भारत की टॉप 10 लिस्ट में शामिल है. जहां हीरामंडी ने पर्दे के जरिए दुनिया और उसके रहस्यों को बाहर रखा है जबकि दिल दोस्ती डिलेमा ने इस झूठ को जिंदा रखने के लिए इस इसका इस्तेमाल किया है. दोनों वेब सीरीज में एक सामान्य बात है ये पूरी तरह से मुस्लिम किरदारों से सजी हुई हैं.

दोनों शो में अंतर यह है कि उनके किरदार हमें पिछले दस साल में स्क्रीन पर देखने को आम हो चुके साधारण और अक्सर दिखाए गए मुस्लिम किरदारों से काफी अलग हैं.

पद्मावत (2018) और तानाजी (2020) से लेकर द कश्मीर फाइल्स (2022) और द केरला स्टोरी (2023) तक, हमारी फिल्में कुछ सालों से मुस्लिमों को हिंसक, बर्बर और सेक्स एडिक्ट के रूप में दिखा रही हैं. खून और हिंसा की सीनों को बेअहमिया मुंह दिखाई किया जाता है जो दाढ़ी और टोपी पहने व्यक्तियों के साथ दिखाए जाते हैं.

हमारी फिल्मों से धर्मनिरपेक्षता का विचार गायब हो रहा है

1959 से हमने एक लंबा सफर तय किया है जब महान यश चोपड़ा ने 'धूल का फूल' नामक एक फिल्म निर्देशित की जो एक मुस्लिम आदमी अब्दुल रशीद (मनमोहन कृष्णा) के चारों ओर घूमती थी. इसमें वो एक छोड़े हुए बच्चे को गोद लेता है जिसे वह रोशन नाम देता है. फिल्म की शुरुआत में वह उसके लिए एक गाना गाता है, 'तू हिंदू बनेगा न मुसलमान बनेगा, इंसान की औलाद है, इंसान बनेगा'. आजाद भारत ने बहुलवाद और धर्मनिरपेक्षता के विचार को अपनाया, जो उस दौर के सिनेमा में दिखाया गया. जिससे हमें मुगल-ए-आजम (1960) और क्लासिक मुस्लिम सोशल जैसी ब्लॉकबस्टर पीरियड फिल्में मिलीं - मुख्य रूप से मुस्लिम किरदारों वाली फिल्मों के लिए एक पेशेवर शब्द - जैसे चौदहवीं का चांद (1960), मेरे मेहबूब (1963) और पाकीजा (1972)

मुगले आजम का एक सीन.

(Photo Courtesy: Pinterest)

यह वह संतुलन है जो देश में बदलते राजनीतिक माहौल के कारण हाल के दिनों में हमारी स्क्रीन से लगातार गायब होता जा रहा है.

जब हमारे समाचार चैनलों पर कट्टरता को पनपने का लाइसेंस दिया जाता है तो इसमें कोई बड़ी बात नहीं है कि जल्द ही हमारी फिल्में इसको अपनाएंगी और यह पिछले कुछ सालों में जो विशेष रूप से देखने को मिला है.

हाल ही में रिलीज हुई संदीप रेड्डी वांगा की फिल्म एनिमल के एक सीन में ऱणबीर कपूर के किरदार रणविजय ने जोया (तृप्ति डिमरी) को अपने प्यार को साबित करने के लिए अपने जूते चाटने का आदेश दिया. यह बेहद परेशान करने वाला सीन था जिसमें एक मुस्लिम महिला एक हिंदू अल्फा मेल के आगे समर्पण कर रही है. यह इंस्टाग्राम पर हिंदुत्व समूहों द्वारा चलाए जा रहे अर्ध-अश्लील पेजों पर अक्सर देखा जाने वाला मीम है. कहा जाता है कि फिल्म के नायक अबरार हक (बॉबी देओल) ने केवल इसलिए इस्लाम धर्म अपना लिया था ताकि वह तीन पत्नियां रख सके. वह मजाक करता है. मांस खाता है. अपनी पत्नियों का रेप करता है.

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अन्नू कपूर की आने वाली फिल्म 'हम बारह' जो जनसंख्या वृद्धि के बारे में है. यह फिल्म भले ही एक छोटा प्रोजेक्ट हो सकता है लेकिन यह फिल्म भी वहीं एजेंडा आगे बढ़ाती दिख रही है. इसके हाल ही में जारी किए गए पोस्टर में, हम कपूर को कराकुल (या जिन्ना टोपी) पहने हुए गर्भवती महिलाओं से घिरे हुए देखते हैं, जिनके हाथ बंधे हुए हैं और होंठ बंद हैं. पोस्टर पर अभिनेता के ठीक पीछे खड़ी दो सबसे प्रमुख महिलाएं बुर्का पहने हुए हैं.

सात में से एक भारतीय मुस्लिम हैं लेकिन उन्हें बड़ी स्क्रीन पर एजेंडा-मुक्त जगह कम ही मिलती है. भले ही वह खुलकर पूरे समूदाय की निंदा नहीं कर रहे हैं लेकिन हमारे फिल्म निर्माता दृश्य और व्यवहार संबंधी रूढ़िवादिता के आधार पर मुसलमानों को अक्सर इस तरह दिखा रहे हैं.

आमतौर पर फिल्मों में एक मुस्लिम किरदार को हमेशा अपनी आंखों में सुरमा और गले में एक ताबीज़ पहने दिखाया जाता है और वह अधिक भोजन के लिए बहुत ज्यादा भूखा होता है और उसे बातचीत में "जनाब" और "भाईजान" जैसे शब्दों का उपयोग करना होता है. वहीं दूसरी ओर मुस्लिम महिलाओं को अपने भाई, पिता और पति से बचाना चाहिए, यदि उसने हिजाब नहीं पहना है तो उसे परंपरागत रूप से पहनने वाले कपड़े पहने होंगे और उसका सिर ढकना होगा.

आज के माहौल में हीरामंडी और डीडीडी जैसे शो महत्वहीन नहीं हैं

आज के माहौल में बहुत कम ही ऐसे मुस्लिम किरदार हैं जिन्हें बिना किसी रूढ़िवादिता या एजेंडा के अन्य किरदारों की तरह फिल्माया जाता है. पिछले कुछ सालों में यह मुद्दा और भी प्रमुख हो गया है. हालांकि, "दिल दोस्ती डिलेमा" इस मामले में सबसे अलग है. सीजन 1 में, आपको इसके मुख्य पात्रों के धर्म का एहसास होने से पहले ही शो में अच्छी तरह खो जाओगे. इसका मतलब यह नहीं है कि उनके धर्म को नजरअंदाज किया गया है लेकिन यह अतिशयोक्ति भी नहीं है. यहां तक ​​कि जब कहानी बेंगलुरु के एक पॉश बंगले से निकलकर तिब्बरी रोड की संकरी गलियों और अस्मारा की दादी के पुराने घर तक पहुंचती है, जहां बातचीत सलाम से भरी होती है, तब भी किरादर प्रामाणिक और प्रासंगिक बने रहते हैं.

दिल दोस्ती डिलेमा का एक सीन.

(Photo Courtesy: Prime Video)

वहीं दूसरी ओर, भंसाली की हीरामंडी ऐसे समय में आई है जब इतिहास को फिर से लिखने का प्रयास किया गया है. यह सीरीज यह भी याद दिलाती है कि न केवल लाहौर बल्कि कानपुर, लखनऊ और कलकत्ता (अब कोलकाता) के दरबारियों ने भी भारत की आजादी के संघर्ष में योगदान दिया था. बेगम हजरत महल के बारे में अनगिनत किस्से हैं. जो एक तवायफ थीं और बेगम ऑफ अवध बनीं और 1857 में पहले स्वतंत्रता संग्राम में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई.

सालों पहले, गौहर जान, शायद अपने समय की सबसे प्रसिद्ध और धनी तवायफ़ों में से एक थीं जिन्होंने गांधी के स्वराज अभियान के लिए फंड जुटाया. वहीं अन्य तवायफ़ों ने अपने प्रभाव और संसाधनों का उपयोग स्वतंत्रता आंदोलन का समर्थन के लिए किया तो कुछ ने क्रांतिकारियों को अपने घरों में छिपाया. इसलिए उनके कोठे और बच्चे ब्रिटिश पुलिस की छापेमारी का लक्ष्य बनते थे. आदिति राव हैदरी की बिब्बोजान, 'हीरमंडी' में, 1857 के विद्रोह को समर्थन और दान देने वाली कानपुर की अजीजन बाई की कहानी और भावना को दोहराती है.

Taha Shah as Tajdar in a still from Heeramandi.

(Photo Courtesy: Netflix)

'दिल दोस्ती डिलेमा' और हीरामंडी के निर्माताओं ने आज के राजनीतिक माहौल में जो किया है वह महत्वहीन नहीं है. इन शो में किरदार मानवता के पहले लिखे जाते हैं - उन्हें किसी धर्मिक पहचान के बिना दिखाया गया है. जब उन्हें शर्म आती है तो वे अपने दोस्तों से झूठ बोलते हैं; एक अलग जीवन का सपना देखते हैं; उनके लिए जो महत्वपूर्ण है उसके लिए लड़तें हैं; और उन्हें उनके माता-पिता द्वारा डांटा जाता है. कुछ किरदार जालीदार फर्शी घारारा और शेरवानी पहनते हैं जबकि अन्य को अपनी पसंद 'छोटे छोटे कपडे़' पर दादी की डांट का सामना करना पड़ता है. बिल्कुल वैसे ही जैसे आप और मैं और व्हाट्सएप फैमिली ग्रुप पर उन अंकल की बेटी.

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