मेंबर्स के लिए
lock close icon
Home Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019Entertainment Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019Bollywood Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019'जाने भी दो यारो' से लेकर 'स्कूप' तक : हिंदी सिनेमा में पत्रकारों का बदलता चेहरा

'जाने भी दो यारो' से लेकर 'स्कूप' तक : हिंदी सिनेमा में पत्रकारों का बदलता चेहरा

हंसल मेहता की Scoop में पत्रकार को जिस तरह दिखाया गया, क्या बॉलीवुड ने जर्नलिस्ट्स को हमेशा ऐसे ही प्रस्तुत किया है?

करिश्मा उपाध्याय
बॉलीवुड
Published:
<div class="paragraphs"><p>बीते वर्षों में&nbsp;हिंदी फिल्मों और शो में पत्रकार कैसे बदतले गए हैं.</p></div>
i

बीते वर्षों में हिंदी फिल्मों और शो में पत्रकार कैसे बदतले गए हैं.

फोटो : अल्टर्ड बाय द क्विंट 

advertisement

हंसल मेहता की वेब सीरीज स्कूप (Scoop) में दो टीवी रिपोर्टर इस उम्मीद के सहारे हॉस्पिटल में ताक लगाए है कि उन्हें हाल ही में हुए अन्य पत्रकार के मर्डर से संबंधित कोई भी जानकारी जैसे कि कोई भी तस्वीर, झलक, किसी का बयान या अन्य कुछ भी खबर हासिल हो सके.

जब उन रिपोर्टर्स को फटकार लगाते हुए यह कहा गया कि "पीड़ित (जिसकी हत्या हुई है) की कुछ तो इज्जत रखो या लिहाज करो." तब उनमें से एक ने अपनी गतिविधि को सही ठहराते हुए कहा कि "अगर लोगों को कुछ नहीं मिलेगा तो वे चैनल बदल देंगे."

स्कूप एक ऐसी वेब सीरीज है, जिसकी कहानी के केंद्र में एक जर्नलिस्ट है और स्पष्ट तौर पर इस कहानी के लेखक इतने आसली नहीं थे कि पत्रकारों के संबंध में अक्सर दिखाए जाने उस दृश्य को शामिल कर सकें, जिसमें रिपोर्टर अक्सर पीड़ित के परिवार से यह पूछता है कि "आप को कैसा लग रहा है?" हालांकि ऊपर दिया गया उदाहरण इसके काफी करीब है.

संक्षेप में कहा जाए तो इस तरह के दृश्य यह दर्शाते हैं कि आज के दौर में दर्शक वर्ग आम तौर पर पत्रकारों को इस तरह (गिद्धों की तरह टकटकी लगाए रखने वाला पत्रकार जो दूसरों के दुख को उछालने और सनसनीखेज बनाने के इंतजार में रहता और TRP को बढ़ाने वाली खबरों के लिए आतुर रहता है) से देखते हैं. ऐसे दृश्य हमारी स्क्रीन्स पर प्रदर्शित होते हैं.

हालांकि यहां तक पहुंचने में हमें कई दशक लग गए.

जब बॉलीवुड में पत्रकारिता को एक नेक पेशे के तौर पर देखा जाता था

उदारीकरण से पहले, टेलीविजन न्यूज बहुत संजीदा और शांत मामला था. उस समय पुरुष और महिलाएं, बहुत ही शांत स्वभाव में पारंपरिक कपड़े पहनकर अपने टेलीप्रॉम्प्टर से 150 शब्दों/मिनट की गति से पढ़ते थे, जबकि उनका जीवन इस पर निर्भर था.

उस समय के न्यूज रीडर काफी सहज और शांति के साथ अपनी बात रखते थे. कोई प्राइम टाइम डिबेट नहीं और न ही ऑन-ग्राउंड रिपोर्टर अपनी हैमिंग स्किल दिखाते थे. इसके साथ ही निश्चित रूप से वे चिल्लाते भी नहीं थे.

यहां तक कि टेलीविजन रिपोर्टिंग को उस समय पत्रकारिता भी नहीं माना जाता था. फिल्म इंडस्ट्री द्वारा उस दौर में जर्नलिस्ट की छवि एक ऐसे आदर्शवादी प्रिंट रिपोर्टर की तरह बनायी गई थी, जो अपने काम या नौकरी के लिए अपनी जान जोखिम में डालने से पहले दो बार नहीं सोचता था.

प्रतिबन्ध (1990) और क्रांतिवीर (1994) जैसी फ़िल्मों में दिखाया गया है कि कैसे पत्रकार अपना काम करते हुए बड़े-बड़े दुश्मन बना लेते हैं, लेकिन फिर भी वे काम पर आगे बढ़ते हैं और इस काम के लिए खुद को बलिदान कर देते हैं. यहां तक कि कल्ट कॉमेडी फिल्म 'जाने भी दो यारों' (1983) में भी दो लीड कैरेक्टर (नसीरुद्दीन शाह और रवि बासवानी) फोटो जर्नलिस्ट की भूमिका निभाते हैं, जिन्हें बदमाश हत्या के आरोप में फंसाते हैं.

जाने भी दो यारों का एक दृश्य

(फोटो : यूट्यूब स्क्रीनग्रैब)

कुछ कम गंभीर फिल्मों जैसे कि मिस्टर इंडिया (1987), दिल है कि मानता नहीं (1991) और मोहरा (1994) में भी पत्रकारों को दिखाया गया था. इन फिल्मों में भले ही पत्रकार की शहादत नहीं दिखाई गई लेकिन हमेशा उनको एक सकारात्मक नजरिए से प्रस्तुत किया है. ऐसे रूप में दिखाया गया है जो बाधाओं पर काबू पाने में अहम भूमिका निभाता है या कभी-कभी किसी स्टोरी का पीछा करते हुए प्यार की तलाश करता है.

हालांकि यह तर्क दिया जा सकता है कि इन सभी फिल्मों में पत्रकार बेतुके रूप से अवास्तविक थे क्योंकि उन्होंने बड़ी स्टोरी को ब्रेक करने के लिए अपने तरीके से गाना गाया और डांस किया. लेकिन एक बात पूरी तरह से स्पष्ट थी: उस समय बॉलीवुड पत्रकारिता को एक सम्मानजनक और नेक पेशे के रूप में देखता था.

यहां तक कि मैं आजाद हूं (1987), ऐसी फिल्म जो मीडिया को राजनीतिक और आर्थिक हेरफेर के एक टूल के रूप में चित्रित करती है, में भी पत्रकार के किरदार (शबाना आजमी) को नकारात्मक नहीं दिखाया गया है. अपनी नौकरी बचाने के लिए यह पत्रकार आजाद नामक एक काल्पनिक किरदार गढ़ती है, यह किरदार जनता का ध्यान आकर्षित करता है और अखबार की किस्मत बदल देता है. लेकिन, वह पत्रकार जो आर्टिकल या स्टोरी लिखती थी, उसमें खलनायक को हमेशा अखबार के मालिक के रूप में दिखाया जाता है, जो एक राजनेता के साथ होता है.

ADVERTISEMENT
ADVERTISEMENT

आगे पत्रकारिता के नए चेहरे पर ध्यान केंद्रित हुआ

1990 के दशक के अंत में जैसे-जैसे केबल टीवी शहरी भारत से आगे बढ़ने लगा, वैसे-वैसे खबरों का चेहरा भी बदलने लगा. समाचार पत्र धीरे-धीरे कम प्रासंगिक होते जा रहे थे और टेलीविजन पर समाचार केवल आधे घंटे का कार्यक्रम नहीं था जिसे दिन में दो बार देखा जाता था.

अब ऐसे चैनल आ गए थे जो पूरी तरह से न्यूज के लिए समर्पित थे, जहां कुछ भी समाचार योग्य हो रहा था, उन जगहों से ऑन-ग्राउंड टीमें लाइव रिपोर्टिंग कर रही थे. निश्चित तौर पर यह काफी आकर्षक था, एक पत्रकार के काम को लोकप्रिय संस्कृति में कैसे देखा और समझा जाता है, उसमें अचानक से ग्लैमर का एक तत्व आ गया था.

ग्लैमर के साथ-साथ स्पष्ट तौर पर दिखाई देने वाली महत्वाकांक्षा भी आई, जिसने बाद में आने वाली फिल्मों के नरेटिव को आकार दिया. फिर भी दिल है हिंदुस्तानी (2000), टेलीविजन रेटिंग की दौड़ पर एक व्यंग्य और एक ऐसी फिल्म रही जो अपने समय से काफी आगे थी, इसने पत्रकारिता के इस नए चेहरे पर शायद सबसे पहले आलोचनात्मक नजर डाली थी.

फिर भी दिल है हिंदुस्तानी के एक सीन में शाहरुख खान और जूही चावला

फोटो : पिंटरेस्ट

हालांकि किसी भी फिल्म ने मधुर भंडारकर के पेज 3 (2005) से बड़ा प्रभाव नहीं डाला कि ऑडियंस पत्रकारिता के काम को हमेशा कैसे देखती है. जहां एक ओर भंडारकर की फिल्म एक एंटरटेनमेंट जर्नलिस्ट (कोंकणा सेन शर्मा) की जिंदगी को दिखाती है, वहीं क्रिश (2006), दिल्ली 6 (2009), और रॉकस्टार (2011) जैसी अन्य फिल्मों में पत्रकारों को उन स्टोरी का पीछा करते हुए दिखाया गया है जो उन्हें मशहूर बना सकती है.

मधुर भंडारकर की फिल्म पेज 3 का एक पोस्टर

फोटो : पिंटरेस्ट

1980-90 के दशक के आदर्शवादी पत्रकार की जगह एक ऐसे क्रूर अवतार ने ले ली जो एक सनसनीखेज स्टोरी के लिए कुछ भी करेगा, वह स्टोरी चाहे एक सेलिब्रिटी के बारे में हो, सुपरहीरो या धूर्त बंदरों के बारे में हो.

पत्रकार के चरित्र पर विभिन्न व्याख्याएं

इसका मतलब यह भी था कि फिल्म निर्माता अब एक पत्रकार के चरित्र की कई अलग-अलग तरीकों से व्याख्या कर सकते हैं. इनमें से कुछ सकारात्मक किरदार थे, जो दुनिया को बेहतर बनाने के लिए किसी भी हद तक नहीं रुकेंगे. आर माधवन ने फिल्म गुरु (2007) में एक खोजी पत्रकार की भूमिका निभाई है, जो एक बिजनेस मैग्नेट की गुप्त डीलिंग का खुलासा करता है.

रण (2010) में, अमिताभ बच्चन एक ऐसे सीईओ की भूमिका निभाते हैं, जो अपनी पत्रकारिता की अखंडता को बनाए रखने के लिए अपने ही चैनल के खिलाफ व्हिसलब्लोअर बन जाता है. और नो वन किल्ड जेसिका (2011) में, रानी मुखर्जी एक ऐसी महत्वाकांक्षी टेलीविजन जर्नलिस्ट की भूमिका निभाती हैं, जो जो स्टिंग करती है और एक हाई-प्रोफाइल मर्डर केस में झूठे गवाहों को बेनकाब करती है.

फिल्म नो वन किल्ड जेसिका में रानी मुखर्जी

फोटो : पिंटरेस्ट

ये सभी ऐसी फिल्में हैं जो पत्रकारों को महत्वाकांक्षी व्यक्तियों के रूप चित्रित करती हैं, लेकिन जो निर्ममता दिखाई जा रही थी, उसे ऐसा प्रदर्शित किया गया कि वे सच का पता लगाने के लिए इस्तेमाल की गई.

ये ऐसी कहानियां हैं जहां पत्रकार इस तरह से काम (ऐसे काम जो उन्हें सुपरहीरो बनाते है) करते हैं जो दर्शकों की भावनाओं को कैप्चर कर लेते हैं. जिस तरह से 1970 के दशक के एंग्री यंग मैन ने किया था वैसे ही बाधाओं पर काबू पाने और सच्चाई के लिए लड़ने के लिए वे (पत्रकार) सिस्टम को संभालते हैं.

दुर्भाग्य से, यह सुपर हीरो पत्रकार उस दूसरे तरह के पत्रकार (गिद्ध) के साथ स्क्रीन स्पेस शेयर करने लगा था. वहीं अनुषा रिजवी की ब्लैक कॉमेडी फिल्म पीपली लाइव (2010) की तरह पत्रकारिता (टेलीविजन पत्रकारिता) की दयनीय स्थिति को किसी भी अन्य फिल्म में नहीं दिखाया गया है.

इस फिल्म में कर्ज में डूबे एक किसान की दुर्दशा एक मीडिया सर्कस में उस बिंदु तक पहुंच जाती है, जहां उसकी मन: स्थिति का पता लगाने के लिए उसके मल का हवा में विश्लेषण किया जाता है. पीपली के काल्पनिक गांव में जैसे ही पत्रकारों का हुजूम उमड़ पड़ता है, रिजवी दोनों तरह के पत्रकारों (एक जो कुर्ता-पायजामा पहनने वाले होते हैं और दूसरे जो सनसनीखेज स्टार रिपोर्टर होतो हैं) एक ही नाव में बैठाने का काम करते हैं, जहां वे पत्रकार किसी भी खबर को सबसे पहले ब्रेक करने के लिए बेताब रहते हैं.

हालांकि सिनेमा में सुपरहीरो पत्रकार के लिए हमेशा जगह रहेगी, लेकिन आज के समय में इस बात की संभावना बहुत कम है कि ये किरदार इस तरह दिखाए जाएं जिनमें कहानी उनके बारे में नहीं है.

पिछले एक दशक में, हमारे पास मद्रास कैफे (2013), नूर (2017) और धमाका (2021) जैसी फिल्में हैं जो उत्साही (पैशनेट) पत्रकारों को दिखाती हैं. हालांकि इन फिल्मों की क्वॉलिटी भिन्न हो सकती है, लेकिन इनमें से हर एक पात्र इन कहानियों के केंद्र में है. अफसोस की बात यह है कि इनमें से कम कहानियां बताई जा रही हैं. इसके बजाय आपके पास और भी बहुत कुछ (कैरिकेचरिश वल्चर-रिपोर्टर हैं) है, जो इस पर झपटने का इंतजार कर रहे हैं कि अगली सनसनीखेज कहानी क्या बन सकती है.

यह एक स्टीरियोटाइप है जो इतनी गहराई से जुड़ा हुआ है कि इसे अक्सर हमारी फिल्मों और शो में कॉमेडिक रिलीफ के रूप में इस्तेमाल किया जाता है.

इसका सबसे ताजा उदाहरण नेटफ्लिक्स की सोशल सटायर (सामाजिक व्यंग्य) पर केंद्रित फिल्म कटहल (2023) का किरदार अनुज संघवी (राजपाल यादव) है. अनुज मोबा न्यूज से है, जो लगातार किसी 'सनसनीखेज खबर' की तलाश में रहता है और जब वह खुद को एक बड़े कवरअप के हिस्से के रूप में अरेस्ट हुआ पाता है, तब वह इस स्थिति का लाभ उठाने में संकोच नहीं करता.

दुर्भाग्य से, अनुज हिंदी सिनेमा में जर्नलिस्ट कैरेक्टर का ब्लूप्रिंट बन गया है.

(यह एक ओपिनियन पीस है और ऊपर व्यक्त किए गए विचार लेखक के अपने हैं. द क्विंट न तो इसका समर्थन करता है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)

(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)

अनलॉक करने के लिए मेंबर बनें
  • साइट पर सभी पेड कंटेंट का एक्सेस
  • क्विंट पर बिना ऐड के सबकुछ पढ़ें
  • स्पेशल प्रोजेक्ट का सबसे पहला प्रीव्यू
आगे बढ़ें

Published: undefined

ADVERTISEMENT
SCROLL FOR NEXT