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गुलजार और जावेद अख्तर से लेकर समीर ‘अनजान’ और फिर आज के दौर के जाने-माने गीतकार इरशाद कामिल तक अनेक ऐसे गीतकार हैं, जिन्होंने महान गीतों की रचना की, जिन्हें हम अक्सर लोगों को गुनगुनाते हुए देख सकते हैं, लेकिन इन सबके बीच एक ऐसा गीतकार भी हुआ जिसने फिल्मी गीत तो जरूर रचे, पर उनमें साहित्यिक पुट डालकर उन्हें विशिष्ट से विशिष्टतम बना दिया.इस महान लेखक एवं गीतकार का नाम है योगेश. यूं तो इनका नाम योगेश गौड़ है, लेकिन पहचान मिली ‘योगेश’ के नाम से.
‘जिंदगी कैसी है पहेली’ और ‘कहीं दूर जब दिन ढल जाए’ जैसे अमर गीतों को अपनी लेखनी से वजूद बख्शने वाले योगेश का जन्म 19 मार्च, 1943 को ‘नवाबों के शहर’ लखनऊ में हुआ था. जिंदगी के शुरुआती दिन बड़े अच्छे गुजरे. इनके पिता पीडब्ल्यूडी में इंजीनियर थे, तो जीवन में किसी तरह का कोई अभाव नहीं था. योगेश अपनी पढ़ाई-लिखाई के बाद जो वक्त मिलता, उसे कविता लिखते हुए बिताते या फिर यूं भी कहा जा सकता है कि इन्हें कविता-कहानियां लिखने का शौक था तो अपने इस शौक को पूरा करने के लिए ये वक्त निकाल ही लेते थे.
सब कुछ सही चल रहा था कि अचानक इनके पिता की मृत्यु हो गई. पिता का इस दुनिया से जाना उन पर परेशानियों का पहाड़ टूट पड़ा.
पिता की अचानक मृत्यु हो जाने से जिम्मेदारी योगेश के कंधों पर आ पड़ी थी. उन्होंने मायानगरी मुंबई जाने का फैसला कर लिया, जहां फिल्मी दुनिया में इनके फुफेरे भाई बृजेंद्र गौड़ पहले से काम कर रहे थे और ‘कटी पतंग’ जैसी कामयाब फिल्म के संवाद लिखने के बाद अपनी पहचान बना चुके थे.
बृजेंद्र गौड़ की ओर से योगेश को कोई सही मार्गदर्शन नहीं मिला. इससे ये निराश हो उठे और वापस लखनऊ जाने की ठान ली, लेकिन इनके दोस्त सत्यप्रकाश सत्तू ने इनकी टूटती हिम्मत को सहारा दिया और इन्हें अपनी तरफ से हर तरह से मदद देने का वादा किया. इसके लिए उन्होंने खुद नौकरी की. सीताराम नाम की मिल में सत्यप्रकाश नौकरी करने लगे और दूसरी तरफ योगेश फिल्मी दुनिया में अपने पैर जमाने के लिए जद्दोजहद करने लगे. इस बारे में खुद योगेश ने स्वीकार किया कि इनके दोस्त सत्यप्रकाश इनके साथ न होते तो फिर ये मुंबई में न टिक पाते.
काफी लंबी जद्दोजहद के बाद आखिरकार इनकी मुलाकात फिल्म निर्माता रॉबिन बनर्जी से हो गई, जिन्होंने एक फिल्म के लिए इनके छह गीत रिकॉर्ड करवाए और हर गीत के लिए योगेश को 25 रुपए का भुगतान किया गया. इसके बाद तो रॉबिन बनर्जी ने अपनी अगली सात फिल्मों के लिए गीत योगेश से ही लिखवाए और प्रति गीत मेहनताना 25 रुपए ही रहा. इस तरह योगेश को फिल्मी दुनिया में ‘एंट्री’ मिल गई थी और इस एंट्री के साथ ही एक पहचान भी, भले थोड़ी ही सही.
फिल्मी दुनिया में योगेश की मुलाकात प्रसिद्ध संगीतकार सलिल चौधरी की पत्नी सविता बनर्जी से हुई. पहली ही मुलाकात में सविता योगेश की प्रतिभा से बहुत प्रभावित हुईं और उन्होंने योगेश को सलिल दा से मिलाने का फैसला किया.एक दिन सविता योगेश को सलिल दा से मिलवाने के लिए इन्हें अपने घर ले आईं. उस वक्त सलिल दा किसी किताब को पढ़ने में मसरूफ थे, तो मुलाकात न हो सकी और योगेश को सलिल दा से बिना मिले ही लौट जाना पड़ा. सलिल दा उस वक्त के प्रसिद्ध गीतकार शैलेंद्र से कुछ गीत लिखवाना चाहते थे, लेकिन शैलेंद्र का अचानक निधन हो जाने के कारण उन्होंने इस काम के लिए योगेश को याद किया.
सलिल दा के असिस्टेंट की झिड़की ने योगेश को निराश जरूर किया था, लेकिन कुछ ही वक्त के लिए. इसके बाद योगेश ने अपनी ऊर्जा को समेटा और ‘कहीं दूर जब दिन ढल जाए’ और ‘जिंदगी कैसी है पहेली’ जैसे कालजयी गीतों की रचना कर डाली, जिन्हें वर्ष 1971 में रिलीज हुई फिल्म ‘आनंद’ में जगह मिली. और सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह कि इस फिल्म के लिए प्रसिद्ध गीतकार गुलजार ने भी गीत लिखे थे, लेकिन उनके गीतों पर योगेश के गीतों ने बाजी मार ली.
‘आनंद’ फिल्म बहुत ही जबरदस्त कामयाब फिल्म साबित हुई.पूरे देश में इस फिल्म की खूब सराहना हुई, बल्कि इस फिल्म की कामयाबी में गीतों के योगदान को माना गया. फिल्म तो मशहूर हुई ही, इसी के साथ योगेश भी मशहूर हो गए. इसके बाद तो योगेश ने सलिल दा के साथ ‘अनोखा दान’, ‘रजनीगंधा’, ‘अन्नदाता’, ‘मीनू’ और ‘आनंद महल’ जैसी अनेक फिल्मों में काम किया और कामयाबी के नए आयाम गढ़े.इन फिल्मों के लिए लिखे गीतों में इनकी कविताई और भी निखरकर सामने आई. और इस तरह कामयाबी की तरफ बढ़ते इनके कदम बस बढ़ते ही गए.... ‘रिमझिम गिरे सावन’, ‘रजनीगंधा फूल तुम्हारे’, ‘ना बोले तुम ना मैंने कुछ कहा’, ‘आए तुम याद मुझे, गाने लगी हर धड़कन’ जैसे अमर गीत योगेश की लेखनी की ही देन हैं.
योगेश ने सैकड़ों की तादाद में गीतों की रचना की और गीत भी ऐसे कि एक से बढ़कर एक, जिन्हें ‘सदाबहार गीत’ कहा जाता है. इनके महत्त्वपूर्ण योगदान को देखते हुए इन्हें हिंदी फिल्मी दुनिया के सबसे बड़े पुरस्कार ‘दादासाहब फाल्के’ से सम्मानित किए जाने के साथ-साथ इन्हें उत्तर प्रदेश के सर्वोच्च पुरस्कार ‘यश भारती पुरस्कार’ से भी सम्मानित किया गया. केवल अपने गीतों से कई फिल्मों को कामयाबी दिलाने वाले योगेश दा 29 मई, 2020 को इस दुनिया से चले गए और पीछे छोड़ गए अपने गीतों की एक बहुत लंबी दुनिया. सच में ‘जिंदगी कैसी है पहेली’...!
एम.ए. समीर कई वर्षों से अनेक प्रतिष्ठित प्रकाशन संस्थानों से लेखक, संपादक, कवि एवं समीक्षक के रूप में जुड़े हैं. वर्तमान समय में स्वतंत्र रूप से कार्यरत हैं. 30 से अधिक पुस्तकें लिखने के साथ-साथ अनेक पुस्तकें संपादित व संशोधित कर चुके हैं.
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