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पंकज त्रिपाठी और सीमा पाहवा. 2017 में ये दो ऐसे कलाकार रहे जो कह रहे हैं कि भाई, हमको देखो, हमको समझो, हमारे अभिनय की धमक सुनो, हमारे चेहरे का विश्वास पढ़ो, हमारे तजुर्बों का फायदा उठाओ.
इस साल पंकज के बारे में सोचते हुए सबसे पहले, चेहरे से रोबीले लेकिन भीतर से खलबलाते, फिल्म न्यूटन के असिस्टेंट कमांडेंट आत्मा सिंह याद आते हैं. उफ्फ! पंकज त्रिपाठी के इस किरदार को देखकर आप महसूसते हैं कि क्यों फणीश्वरनाथ रेणु को पढ़ा जाना जरूरी है, क्यों बाबा नागार्जुन आपकी समझ बढ़ाते हैं, क्यों प्रेमचंद हमारे गांवों के सबसे बड़े दस्तावेज हैं. ये सारे नाम यहां इसलिए दर्ज किए गए हैं क्योंकि पंकज त्रिपाठी के जेहन में भी ये लेखक और इनकी रचनाएं भली-भांति दर्ज हैं जिनके बारे में वो अपने कई इंटरव्यू में बात कर चुके हैं.
छत्तीसगढ़ के एक गांव में जब आप अपने हिस्से के डायलॉग बोल रहे होते हैं तो ये सारी समझ आपके काम आती है. जब एक नक्सल प्रभावित क्षेत्र में आप पोलिंग बूथ की जिम्मेदारी संभाल रहे होते हैं, जंगल में बच्चों से मुखातिब होते हैं तो ये जानना काम आता है कि आप अपने देश से कितने वाकिफ हैं. इन्हीं खूबियों की वजह से पंकज बाकमाल हो जाते हैं. न्यूटन में राजकुमार राव बेहतरीन हैं, उनकी सबसे बेहतर भूमिकाओं में से एक. लेकिन जब आप न्यूटन कुमार के सामने आत्मा सिंह को रखते हैं तो मालूम होता है कि क्यों पंकज त्रिपाठी यहां जरूरी थे.
यही पंकज जब लड़की के बाप होते हैं तो वो कहां सिर्फ लड़की के बाप रह पाते हैं. वो कितना कुछ लाते हैं अपने साथ. वो कितना कुछ जोड़ते हैं उस किरदार में. बरेली की बर्फी में बिट्टी के बाप बने पंकज कहीं से भी आम बाप नहीं हैं. वो किरदार अच्छा लिखा गया है इसमें शक नहीं लेकिन, पंकज उसे अच्छे से बेहतर बना देते हैं. वो एक ऐसे अभिनेता हैं जो ‘पंखे’ से बात करता हुआ भी सुहाता है और आप सोचते हैं कि बात इतनी जल्दी खत्म क्यों हो गई. पंकज, अपनी लचक खाई गर्दन से भी अभिनय करा लेते हैं!
इसके अलावा इस साल गुड़गांव और अनारकली ऑफ आरा में भी उन्होंने बेहतरीन काम किया.
जो अभिनेत्री आधी सदी से अभिनय कर रही हो उसके लिए सिर्फ बीते दो-तीन साल से अचानक चर्चा में आना अच्छी बात तो बिल्कुल नहीं. बल्कि, बहुत खराब बात है. नहीं, उनकी वाहवाही नहीं. वो तो उन्होंने अर्जित की है. ये फिल्म इंडस्ट्री के लिए खराब है जिसने उन्हें टटोला ही नहीं, आजमाया ही नहीं.
साल 2017. दो फिल्में. बरेली की बर्फी और शुभ मंगल सावधान. कहने को दोनों ही किरदार एक मिडिल क्लास मां के थे लेकिन वो कलाकार ही क्या जो थोड़ी सी फिसलन पर रपट जाए. कहने को दो मिलते-जुलते किरदारों में वो सीमा ही हैं जो बारीक फर्क पैदा कर पाई हैं. सीमा की टाइमिंग, उनकी डायलॉग-डिलिवरी सब बेहद खूबसूरती के साथ पर्दे पर आता है.
जब एक इंटरव्यू में सीमा पाहवा को कहते सुनते हैं कि उम्मीद थी कि ‘आंखों देखी’ के बाद कुछ और काम मिलेगा लेकिन 2 साल तक खाली बैठना पड़ा तो आप बॉलीवुड के सिस्टम से लड़ना चाहते हैं. एक दर्शक के तौर पर भी. क्योंकि, शायद ही कोई होगा जो 'आंखों देखी' के बाद सीमा पाहवा को और नहीं देखना चाहता होगा. सीमा के पास जो रेंज है, उसे एक्सप्लोर किया जाना अभी बाकी है. उसका 'दोहन' जरूरी है.
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