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चाहे राजनीति हो या सिनेमा, मनोरंजन और नाटकीयता की वेदी पर अक्सर तथ्यों की बलि दी जाती है. 11 दिसंबर को रिलीज हुई फिल्म 'द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर' दोनों का एक दमदार कॉकटेल है. हालांकि ट्रेलर में फिल्म बनाने की उस आजादी की झलक दिखाई दी, जो किसी किताब से फिल्म बनाने में हासिल होती है. लेकिन सवाल ये है कि ये फिल्म संजय बारू की किताब में लिखी बातों के अलावा दूसरे ऐतिहासिक तथ्यों के बारे में कितनी ईमानदार है?
फिल्म किस तरह से तथ्यों को मोड़ती है, इसका उदाहरण नीचे दिए गए GIF में दिया जा सकता है-
फिल्म ये दावा कर सकती है कि ये 'द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर' को देखने के बाद प्रेस से बात करते हुए मनमोहन सिंह और सोनिया गांधी का जीआईएफ है.
क्या यह प्रेस कॉन्फ्रेंस है? हां.
क्या वे फिल्म के बारे में बात कर रहे हैं? नहीं.
बिल्कुल यही बात.
फिल्म
किताब
पूर्व पीएम अटल बिहारी वाजपेयी के इस बयान का किताब में कोई जिक्र नहीं है. फिर भी, इससे पूरी तरह इनकार नहीं किया जा सकता है और न ही इसकी पुष्टि की जा सकती है कि उन्होंने कभी भी एल.के. आडवाणी से मनमोहन सिंह के शपथ ग्रहण समारोह के दौरान ऐसी बात न की हो.
फिल्म
किताब
अक्षय खन्ना के निभाए गए बारू के किरदार से बोला गया ये डायलॉग फिल्म को दिलचस्प बनाने के लिए लिखा गया है. 2009 में कांग्रेस के दूसरे टर्म के संदर्भ में यह कहा गया था.
फिल्म
किताब
फिल्म में, सोनिया गांधी के भरोसेमंद सहयोगी, अहमद पटेल के किरदार को उनके बॉस की तुलना में काफी ज्यादा स्क्रीन पर समय मिला है. सोनिया गांधी के दूत के तौर पर, उन्हें लगभग हमेशा चालाक और धूर्त जैसा दिखाया गया है. हालांकि, किताब में ऐसा कोई जिक्र नहीं है.
फिल्म
किताब
किताब में मनमोहन सिंह को जिस तरह एक 'लायबिलिटी' के तौर पर पेश किया गया, उस तरह से फिल्म में नहीं दिखाया गया.
फिल्म
किताब
हालांकि, यह बताने के लिए कोई सबूत नहीं है कि उन्होंने सोनिया गांधी के सामने यह कहा था, जैसा कि फिल्म में दिखाया गया है. बारू ने सिंह के दूसरे कार्यकाल पर कुछ इसी तरह की राय जाहिर की थी. फिल्म में दिखाया गया है कि बारू टीवी पर ये बोल रहे हैं.
फिल्म
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इसके उलट, बारू ने किताब के इंट्रोडक्शन में ही साफ कर दिया था कि सिंह इस किताब के बारे में नहीं जानते थे. फिल्म में इस एपिसोड को पूरी तरह से नाटकीय रूप दिया गया है. ऐसा लगता है कि जैसे कि इस किताब को लिखने से पहले पीएम की रजामंदी ली गई थी.
फिल्म
किताब
किताब में इस तरह की बातचीत का कोई जिक्र नहीं है. मुमकिन है कि श्रीमती गुरशरण कौर और संजय बारू के बीच ऐसी बातचीत कभी हुई ही न हो.
फिल्म के एक सीन में राहुल गांधी को एक अध्यादेश को फाड़ते हुए दिखाया गया है. यह केंद्रीय कैबिनेट की ओर से मंजूर किया हुआ अध्यादेश था, जिसमें किसी अपराध में दोषी पाए जाने और जेल जाने पर सांसदों और विधायकों की योग्यता रद्द करने को रोकने की मांग की गई थी. दरअसल, राहुल गांधी ने कहा था कि अध्यादेश को फाड़कर फेंक दिया जाना चाहिए. उन्होंने असल में इसे कभी नहीं फाड़ा.
फिल्म का ये सीन दिखाता है कि मनमोहन सिंह ने यूपीए-2 के शासनकाल के दौरान 2013 में इस्तीफे की पेशकश की थी. ऐसी रिपोर्ट आई थी कि मनमोहन सिंह ने यूपीए के पहले शासन के दौरान इस्तीफे की पेशकश की थी. लेकिन अपने दूसरे कार्यकाल के दौरान ऐसा करने का कोई सबूत नहीं है.
इसके अलावा, उस पेशकश पर सोनिया गांधी की प्रतिक्रिया का किताब में कहीं जिक्र नहीं मिलता. बारू ने लिखा है कि जब सिंह ने इस्तीफा देने की पेशकश की थी और दूसरे भरोसेमंद सूत्रों से इसके बारे में सुना था, तो वे बैठक में मौजूद नहीं थे.
जब नीरा राडिया टेप विवादों में घिर गए और 2010 में सत्ता के गलियारों में खलबली मच गई, उन्हें बारू की किताब में कोई जिक्र नहीं मिला.
निष्कर्ष ये है कि फिल्म में अनुपम खेर ज्यादा हैं और मनमोहन सिंह कम. उनके बीच तथ्यात्मक सटीकता का पूरा स्पेक्ट्रम मौजूद है.
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