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खाकी द बिहार चैप्टर (Khaki The Bihar Chapter)- एक सत्य घटना और IPS अमित लोढ़ा की किताब की सीरीज अडेप्टेशन है. यह बिहार में खाकी की इज्जत के लिए अमित लोढ़ा के संघर्ष और सबसे टकराने की कहानी को बताता तो है लेकिन खादी और अपराध के बिहारी समाज के अतंरविरोध को बस ऊपर ऊपर से छूकर ही निकल जाती है.
नीरज पांडेय की स्टोरी टेलिंग के फैंस के लिए खाकी- बिहार चैप्टर एक नई पेशकश है. लेकिन पूरी सीरीज देखने के बाद सबसे ज्यादा जो बात अखरती है वो है सब्जेक्ट को ऊपर ऊपर से छूने और बिहारी कॉन्ट्रैडिक्शन की सपाट बयानी. बड़े पर्दे पर हम बिहार में अपराध को शूल, अपहरण और गंगाजल , और अविभाजित बिहार की स्टोरी गैंग्स ऑफ वॉसेपुर में देख चुके हैं ..लेकिन OTT के लिए यह बड़े स्केल पर पुलिस के पर्सपेक्टिव से नई कोशिश है जो सब्जेक्ट को समझने में दिलचस्पी बढ़ाती है.
यह एक सच्ची घटना से प्रेरित सीरीज है. इस पर IPS अमिता लोढ़ा ने बिहार डायरी नाम से किताब भी लिखी है. इसमें उन्होंने विजय सम्राट और हॉर्लिक्स सम्राट के खिलाफ पुलिस ऑपरेशन का जिक्र किया है. इसको ही फ्राइडे स्टोरीटेलर्स ने अडेप्ट किया है. यह एक चोर-पुलिस यानि कॉप ड्रामा है. बिहारी संदर्भ में हम ऐसे नैरेटिव देखते सुनते रहे हैं सो, इसमें बहुत नयापन नहीं है. लेकिन जिस स्टाइल में एक ही वक्त में दो अलग –अलग लोगों की कहानी को फिल्माया गया है वो बढ़िया प्रीमाइस सेट कर देती है.
एक ईमानदार और आदर्श पुलिस वाला कैसे अपनी ड्यूटी पूरी करने की जद्दोजहद से जूझता है और कैसे एक ड्राइवर ‘अपराध सम्राट’ बन जाता है. दोनों की समानांतर कहानी और दो अलग अलग दुनिया के पैरालल को JUXTOPOSE किया गया है.
कहानी बिहार के लय-ताल की बात करती है. जब अमित लोढ़ा जयपुर से बिहार के लिए अपनी नई नवेली पत्नी के साथ ट्रेन में रवाना होते हैं तो उन्हें पहला सबक यहीं मिलता है. IITIAN अमित को टोकाटाकी पसंद नहीं है लेकिन सामने वाली सीट पर बैठा बुजुर्ग दंपत्ति एक ज्ञान दे देते हैं. बिहार में जो अफसर आता है वो दो ही चीज कमाके जाता है. या तो खूब सारा पैसा या फिर खूब सारी इज्जत.
अब बिहार में जो लोग रहे हैं वो जानते हैं कि वहां पर SP या फिर पुलिस से होने का क्या मतलब है. हम शूल, गंगाजल से लेकर दूसरी फिल्मों में इस नैरेटिव को देख चुके हैं... चूंकि कहानी उस पीरियड की है जब कहा जाता था कि कानून-व्यवस्था एक दम खत्म और जंगल राज चरम पर था, सो वो सब आपको इसमें आगे देखने को मिलेगा.
यहीं पर VIP के लिए कितना खास अरेंजमेंट हो सकता है. उसका भी अहसास अमित को हो जाता है लेकिन असल इम्तिहान होता है फील्ड में. जहां खाकी और खादी की मिलीभगत से एक बड़ा खतरा है और एक अपराइट पुलिस अफसर के लिए काम करना बहुत बड़ी चुनौती.
IPS अमित लोढ़ा जिस वक्त बिहार के एक जिले में अपनी प्रोबेशन पीरियड में अपहरण रोकने और कानून का राज बनाने के लिए कर्तव्यपथ पर जुटे रहते हैं वहीं पटना से दूर जिन्हें अंग्रेजी में बैडलैंड्स कहते हैं वहां चंदन महत्तो नाम का एक शख्स अपनी जिंदगी की अलग पटकथा लिखता रहता है. महतो जाति का चंदन कथित तौर पर निचली जाति से माना जाता है और उसकी लुगाई यानि बीवी उसको छोड़कर भाग गई होती है.
चंदन पहले ड्राइवर बनता है और थोड़ी बहुत चोरी चकारी जैसे पेट्रोल भराते समय पेट्रोल ले लेना और कुछ कुछ स्मगलिंग करता रहता है जो कि ड्राइवरी में बहुत कॉमन है..फिर एक दिन किडनैपिंग में उसके ट्रक की निशानदेही के बाद वो पुलिस ऑपरेशन की जद में आता है लेकिन किसी तरह से जब उसके हाथ रिवॉल्वर लग जाता है और उसको देखकर खाकी यानि सिपाही भी डर जाता है.
पहली बार चंदन को ताकत का अहसास होता है. वो गन अपने पास रख लेता है. यहीं से चंदन की जिंदगी टर्न ले लेती है. पहले ईंट भट्ठा मालिक के पैर में गोली मारना और फिर अभ्युदय सिंह के लिए काम मांगने जाना और फिर उसका हेंच मेन बनकर उसका अपराध सम्राट बनने तक का सफर जानने के लिए आपको पूरी सीरीज देखनी होगी.
चंदन महतो और अमित लोढ़ा तो अपनी अपनी दुनिया में बिजी हैं लेकिन फिर दोनों का आमना सामना कैसे होता है ..इसके लिए अब चलते हैं जरा इसके खादी के एंगल पर. यानि नेतागिरी. बिहार में दादागिरी को दम नेतागिरी से ही मिलता है और फिर हर अपराधी और उसका नेता कनेक्शन होता है.
इस पहलू को खाकी में पकड़ने की कोशिश तो हुई है लेकिन जैसा कि मैंने शुरू में ही कहा यह वैसे ही है जैसे में हम एरियल शॉट लेते हैं ..बहरहाल ..सत्ताधारी पार्टी के नेता उजियार बाबू यानी कथित तौर पर लालू प्रसाद यादव और विपक्षी नेता सर्वेश बाबू की चुनावी लड़ाई चलती है और इसमें अप्रत्याशित तौर पर सर्वेश बाबू चुनाव जीत जाते हैं ...सर्वेश बाबू का हाथ चंदन महत्तो के सिर पर होता है ..ये हमें इशारों इशारों में बताया जाता है लेकिन जब चंदन महतो सर्वेश बाबू के सुशासन में खून का धब्बा लगा जाता है तो सर्वेश बाबू अपने इस अपराइट ऑफिसर को उसके पीछे छोड़ देते हैं.
इसके बाद का पूरा ड्रामा और थ्रिलर ऑपरेशन चंदन मह्तो के इर्दगिर्द है. इसमें पुलिस की अपनी कमजोरी मसलन चंदन के आदमी का पुलिस में और समाज में मिलाजुला होना और फिर उस चुनौती को एक IITIAN IPS अफसर अपनी समझ से कैसे जीतता है ..ये सब समझने के लिए आपको खाकी देखनी पड़ेगी.
सीरीज अपने दमदार अभिनय के लिए जानी जाएगी। चंदन महत्तो (अशोक सम्राट से प्रेरित किरदार करने के लिए अविनाश तिवारी) ने बढ़िया एक्टिंग की है . SSP मुक्तेश्वर चौबे के तौर पर आशुतोष राणा ने जानदार भूमिका निभाई है. हालांकि वो बहुत फिल्मी कैरेक्टराइजेशन लगता है लेकिन वो असरदार बन पड़े हैं. उजियार बाबू .. यानि लालू प्रसाद यादव .. पूरी सीरीज में अगर सबसे ज्यादा किसी को वेस्ट किया गया है तो वो हैं उजियार बाबू.
अभ्युदय सिंह के तौर पर रवि किशन ने बहुत बढ़िया काम किया है लेकिन फिर उसमें उसके बैडमिंटन खेलने और मार्टिना हिंगिस का जिक्र लाना थोड़ा समझ से परे है. शायद यहां वो यह दिखाना चाहते हैं कि बिहार में लोग बैडमिंटन और टेनिस का फर्क नहीं जानते थे.
सीरीज का स्क्रीन प्ले नॉन लीनियर है ..शुरु , मध्य और अंत .. जैसा नहीं .. एपिसोडिक बाध्यताओं के चलते लगता है कि कुछ ज्यादा खींचतान है और कई बार यह बहुत प्रीडिक्टिव भी है. कहीं कहीं ऐसा लगता है कि इस पर सत्या और ‘सहर’ फिल्म का बहुत असर है . शुरुआत में गन हाथ में लेने और फिर पावरफुल महसूस करने जैसा सीन सत्या में हम लोग देख चुके हैं और उसी तरह से चंदन महतो को ट्रैक करने के लिए जिस तरह तकनीक को हथियार बनाया जाता है वो सहर फिल्म की याद दिलाता है.
जैसे एक जगह IPS अमित लोढ़ा .. सब धान बाइस पसेरी को कहते हैं कि ‘सब राइस बाइस पसेरी नहीं होता’. बहरहाल इन कुछ छोटी छोटी बातों को छोड़ दें तो बाकी सब ‘ठीकठाक’ है. इशारों इशारों में फिल्म के राइटर उमाशंकर सिंह ने बड़ी बात कह दी कि हर नेता ईमानदार अफसर चाहता है लेकिन अपने शासन में नहीं .. और ऐसा ही कुछ होता है जब IPS अमित लोढ़ा एक बढ़िया ऑपरेशन के लिए इनाम की उम्मीद कर रहा होता है तो उसे शंटिंग की पोस्टिंग मिलती है .लुंगी और लोकेशन की बढ़िया शूटिंग के लिए भी इसकी तारीफ की जाएगी.
सीरीज खाकी द बिहार चैप्टर में कहने के लिए कुछ ज्यादा नहीं है .. डॉ सागर का लिखा टाइटिल सॉन्ग आइए ना हमरा बिहार में बहुत रुमानी है और आसानी से जुबान पर चढ़ने वाला है. लेकिन यह मिर्जापुर और गैंग्स ऑफ वॉसेपुर जैसा कोई असर बनाने से काफी पीछे रह जाती है.. लेकिन हां एक पुलिस अफसर के पर्सपेक्टिव को समझने के लिए वन टाइम वॉच तो है.
खासकर फिल्म की शुरुआत में एक सीन है जिसमें एसएसपी आशुतोष राणा कहते हैं तुम्हारा कंधा थोड़ा कम है ..और वर्दी ढीली लग रही है ..जिम्मेवारी संभाल पाओगे .. यह एक प्वाइंट ऑफ व्यू था कि एक पुलिस वाला जो ये वर्दी पहनता है ..वो क्या यह जानता भी है कि उसकी वर्दी उसके लिए फिट है भी या नहीं ..लेकिन पूरी फिल्म में यह पर्सपेक्टिव उभरकर आ नहीं पाती ..अगर आती तो शायद मजा कुछ और होता. खाकी द बिहार चैप्टर.. खाकी और खादी की गुत्थी को बहुत हद तक खोल पाती है.
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