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फिल्म रिव्यू: महिला स्वतंत्रता पर रोड़ा, दर्शकों को निराश करती 'लाइगर'

एक्शन, लवस्टोरी और देशभक्ति को मिलाकर दिखाने के चक्कर में 'लाइगर' एक खिचड़ी की तरह लगने लगती है

हिमांशु जोशी
एंटरटेनमेंट
Published:
<div class="paragraphs"><p>फिल्म रिव्यू: महिला स्वतंत्रता पर रोड़ा लगाती 'लाइगर'</p></div>
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फिल्म रिव्यू: महिला स्वतंत्रता पर रोड़ा लगाती 'लाइगर'

फोटो: फिल्म पोस्टर

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लाइगर (Liger) को प्रतिष्ठित धर्मा प्रोडक्शन (Dharma Production) और पुरी कनेक्ट्स (Puri Connects) द्वारा प्रोड्यूस किया गया है. इसका इंट्रोडक्शन देख तो लगता है कि फिल्म कमाल होगी पर बहुत जल्द ही दर्शक निराश होने लगते हैं.

एक्शन, लवस्टोरी और देशभक्ति को मिलाकर दिखाने के चक्कर में फिल्म एक खिचड़ी की तरह लगने लगती है और इसकी कहानी जबरदस्ती खींची हुई लगती है. फिल्म में माइक टायसन (Mike Tyson) हों या चंकी पांडे इनका आना भी जबरदस्ती का ही लगता है.

औसत अभिनय, नीरस कहानी और कमजोर पटकथा

लाइगर का पहला हाफ पूरा होने तक भी दर्शक इसके पात्रों से जुड़ नही पाते और फिल्म खत्म होते भी उनके हाथ कुछ नही लगता. 'एमएमए' जैसी प्रतिष्ठित फाइट का बॉलीवुड रूपांतरण करते हुए फिल्म में इसे लगभग एक घंटा दिया गया है पर दर्शक उससे बिल्कुल प्रभावित नही होंगे.

लाइगर के निर्देशक पुरी जगन्नाध सुपरहिट तेलुगु फिल्म 'टेम्पर' बना चुके हैं और बॉलीवुड में वह 'बुड्ढा होगा तेरा बाप' के लिए पहचाने जाते हैं. फिल्म में उन्होंने एक्शन वाले दृश्यों के पीछे उत्तेजक पार्श्व संगीत रखा है, जिसकी ओवरडोज से दर्शक खीजने लगते हैं.

इन सब के बीच फिल्म में खेलों के विकास को लेकर हमारी सरकार के रुख को भी दिखाने की थोड़ी बहुत कोशिश की गई है.

'डीअर कॉमरेड' और 'अर्जुन रेड्डी' से दर्शकों के दिलों में राज करने वाले विजय देवरकोंडा की लाइगर पहली बॉलीवुड फिल्म है. अपने संवादों में कमी और पटकथा के कमजोर होने से विजय 'लाइगर' के जरिए अपनी छाप छोड़ने में असफल रहे हैं.

राम्या कृष्णन के लिए भी फिल्म विजय देवरकोंडा की तरह ही साबित हुई है, उन्हें देखकर लगता है कि निर्देशक उन्हें अब भी ब्लॉकबस्टर फिल्म बाहुबली की तरह ही एक दमदार किरदार में देखना चाहते हैं. इस चक्कर में उनके किरदार को ऐसी मां का लिख दिया गया जो अपने बेटे की जिंदगी में ज्यादा ही दखल देती है और ये दखल दर्शकों को भी भारी लगने लगती है.

अनन्या पांडे को फिल्म में दिखाने के लिए ही लाया गया है, अपने अभिनय से वह बिल्कुल प्रभावित नहीं करती हैं. रोनित रॉय एक कोच की भूमिका में ठीक लगे हैं.

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औसत संवाद और आफत बनकर बरसता गाना

फिल्म में सिर्फ एक संवाद - 'माता पिता नाम देते हैं लेकिन बेटे को नाम कमाना पड़ता है', थोड़ा बहुत प्रभावित करता है, बाकी संवाद औसत ही हैं.

'उनकी एक्टिंग के लिए ऑस्कर अवॉर्ड उनके हाथ में रखकर बुर्ज खलीफा भी उनके नाम कर देना चाहिए' इसका उदाहरण है.

फिल्म का गाना 'आफत' दर्शकों पर आफत बन कर ही टुटा हुआ लगता है, 'अकड़ी बकड़ी' गाना कुछ महीनों के लिए पार्टियों में बज सकता है पर इसकी कोरियोग्राफी कमाल की है और लंबे समय तक आजमाई जाएगी.

महिलाओं की छवि पर कुछ तो सोचे केन्द्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड

राम्या ने जिस तरह से अनन्या पांडे के कपड़े का वर्णन फिल्म लाइगर में किया है, वह बिल्कुल ठीक नही लगता. " छोटी चड्डी या फटी मिडी पहनकर आड़ी टेढ़ी लिपिस्टिक लगाकर और अपने बालों को खुला छोड़कर मटक मटक कर जो आती है न वही चुड़ैल है "

संवाद आज महिला स्वतंत्रता पर सवाल की तरह है. आज हम महिलाओं की स्वतंत्रता पर बात तो करते हैं पर फिल्मों में ऐसे संवाद समाज पर असर डालते हैं.

"मंदिर में आकर लाली पाउडर पोतकर वीडियो बनाती है. थू. शर्म नही आती तुझे. तेरे मां बाप का न मुंह तोड़ देना चाहिए, जो तुझे इस तरह से बड़ा किया है"

संवाद भी इसी कड़ी का हिस्सा है. इक्कीसवीं शताब्दी में बन रही फिल्मों में ऐसे संवादों की कितनी जगह है , इसका फैसला केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड को लेना ही होगा.

क्या भारत के कानून इतने कच्चे हैं!

फिल्म की शूटिंग जब भारत में की जाती है तो नायक अपनी नायिका को बाइक में बिना हेलमेट अपने आगे बैठा कर बाइक चला सकता है पर अमरीका में शूटिंग पर पहुंचते ही यही नायक कार चलाने से पहले सीट बेल्ट लगाना नहीं भूलते, फिल्म बनाने वालों की यह सोच समझ नहीं आती.

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