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''अंधे होने का प्रॉब्लम तो सबको पता है, फायदे मैं बताता हूं.''
फिल्म में ये डायलॉग एक अंधे पियानो प्लेयर का है, जिसका नाम है आकाश. शुरुआत में जो किरदार हमारे सामने दिखाया जाता है, सब कुछ वैसा ही लगता है, लेकिन बाद में आपको महसूस होता है हकीकत कुछ और ही है. और यहीं से असली कहानी का मजा शुरू होता है. श्रीराम रावघन की इस फिल्म में आप निश्चित होकर नहीं बैठ सकते.
जो किरदार एक पल को अच्छा लग रहा है, वो अगले ही पल कुछ और लगने लगता है. देखते ही देखते आप खुद ब खुद अंदाजा लगाने को मजबूर हो जाएंगे कि आगे क्या होगा.
अंधाधुन में एंटिसिपेशन और टेंशन दोनों ही है, लाउड बैंकग्राउंड हैं और जबरदस्त कैमरावर्क भी. शॉर्ट फ्रेंच फिल्म द पियानो ट्यूनर पर आधारित अंधाधुन में हर कुछ मिनटों के बाद आप ट्विस्ट देखते हैं.
फिल्म के उस सीन को ही ले लीजिए, जिसमें आयुष्मान खुराना ऐसे प्यानो बजाते हैं कि हवा में बैचेनी फैल जाती है और प्यानो पर कैमरा ऐसा फेरा गया है कि आप एक पल को सीट से ऊपर उठ जाएंगे और सोचने पर मजबूर हो जाएंगे कि अब क्या होगा. फिर अचानक सोचेंगे कि कौन मरा? कैसे? कब? क्यों?
ये सब सोच ही रहे होंगे कि आप एक सिच्युवेशन में घिर जाएंगे. जहां म्यूजिक बंद नहीं होगा और न ही एक शब्द बोला जाएगा. सबकुछ सिर्फ एक्ट के साथ सब समझ आ जाएगा. जैसे ही आगे एक्शन होता है, आप अपनी सांसें छोड़ते हैं, क्योंकि उससे पहले आपको पता ही नहीं चलता कि कितनी देर से सांस रोककर बैठे थे. अच्छी बात ये है कि फिल्म में सिर्फ ये अकेला ऐसा सीन नहीं है. ऐसे मौके कई बार आते हैं.
फिल्म की टोन और मूड 70 के दशक का है क्योंकि श्रीराम राघवन को ये काफी पसंद है. फिल्म में अनिल धवन का किरदार प्रमोद सिन्हा भी ध्यान खींचता है. सिन्हा अपने जमाने का स्टार है और कमरे में अपनी ही फिल्म के पोस्टर के साथ खड़ा रहता है.
वहीं, दूसरी तरफ सिन्हा की पत्नी है सिमी, जिस किरदार को देखकर लगता है कि उसे तब्बू ही निभा सकती थीं. तब्बू को फिल्म में देखकर लगा कि उनको अपने किरदार के बारे में कितनी गहरी समझ थी.
अपने छोटे रोल में राधिका आप्टे ने भी सबको चौंका कर रख देती हैं. इसके बाद फिल्म में पुलिस बने मानव विज हैं. साथ ही जाकिर हुसैन डॉक्टर बने हैं और छाया कदम ऐसे महिला बनी हैं जो लॉटरी टिकट बेचने का काम करती हैं और दोनों ने ही बेहतर काम किया है.
सेकेंड हॉफ में लगता है कि फिल्म में जो साजिश दिखाई जा रही है वो पूरी तरह से काल्पनिक है. लेकिन फिल्म लिखने वाली पूजा लाडा सुरती का पूरा मास्टर पीस काफी कमाल का है. तारीफ केयू मोहन के कैमरे की भी करनी होगी, जो डि-फोकसिंग और जूमिंग से पूरी कहानी को सीन वन से ही जोड़े रखते हैं.
अंधाधुन तारीफ और फुल अटेंशन के काबिल है. फिल्म देखने जाएं तो ध्यान रहे कि एक भी सीन न छूटने दें. फिल्म के शुरुआती सीन से लेकर आखिरी क्रेडिट तक देखिए. हर सीन, हर कैरेक्टर और हर लाइन का फिल्म में एक मतलब है.
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