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वरुण धवन और कृति सेनन अभिनीत 'भेड़िया' फिल्म का निर्देशन अमर कौशिक ने किया है. अमर कौशिक द्वारा निर्देशित भेड़िया, दिनेश विजन की हॉरर यूनिवर्स की तीसरी किस्त है; जिसमें एक संदेश में हॉरर और कॉमेडी का तड़का लगाया गया है.
भास्कर (वरुण धवन) एक ऑफिस प्रोजेक्ट के लिए अपने चचेरे भाई जेडी (अभिषेक बनर्जी) के साथ जीरो जाता है, जहां उसका दोस्त जोमिन (पॉलिन कबाक) भी उनके साथ शामिल हो जाता है.
इस विवादास्पद परियोजना के तहत, जीरो में एक सड़क का निर्माण होना है और भास्कर का प्रस्ताव है कि वे जंगल के रास्ते से सड़क का निर्माण करें. वह इस विचार को एक ज्यादा किफायती विकल्प के रूप में बेचता है (पढ़ें: जिससे बची हुई रकम उनकी जेब में जाये).
उसके इस प्रस्ताव को डॉ. अनिका (कृति सेनन), एक लोकल आदमी राजू (दीपक डोबरियाल), और आदिवासी बुजुर्गों के विरोध का सामना करना पड़ता है, जो भास्कर को उसकी परियोजना के नाम पर प्रकृति को नष्ट करने के खिलाफ चेतावनी देते हैं.
इस सब के बीच, भास्कर पर एक भेड़िये द्वारा हमला किया जाता है जिससे उसमें वेयरवोल्फ (भेड़िया मानव) जैसी विशेषतायें आ जाती हैं (हालांकि, उसकी शक्तियां एक लाइकन से ज्यादा सटीक मेल खाती हैं).
इन सबसे उठकर, फिल्म 'बाहरी' के विचार से संबंधित है. भास्कर को आश्चर्य होता है कि जंगल से गुजरते समय एक सांप उनके रास्ते में क्यों है. उसी तरह, उन्हें आश्चर्य होता है कि आदिवासी बुजुर्ग उनकी कंपनी को उनकी जमीन तक पहुंच देने से इनकार क्यों करते हैं, भले ही वे उस जंगल को काट रहे हों जिसे वे महत्वपूर्ण और पवित्र मानते हैं.
इन सबसे ऊपर, फिल्म 'बाहरी' के विचार से संबंधित है. भास्कर को आश्चर्य होता है कि जंगल से गुजरते समय एक सांप 'उनके रास्ते में' क्यों है. इसी तरह, उन्हें आश्चर्य होता है कि आदिवासी बुजुर्ग उनकी कंपनी को उनकी जमीन तक जाने देने से इंकार क्यों करते हैं, भले ही वे खुद उस जंगल को काट रहे हों जिसे वे महत्वपूर्ण और पवित्र मानते हैं.
जीरो में भास्कर और जेडी भी 'बाहरी' हैं. वे अपने आस-पास के लोगों के साथ ऐसे पेश आते हैं, जैसे कि वे कुछ नहीं हैं. जेडी खुद को जोमिन से श्रेष्ठ मानता है क्योंकि उसकी हिंदी ज्याद अच्छी और वह जोमिन के प्रति नस्लवादी बर्ताव करता रहता है.
शुक्र है, फिल्म जेडी और भास्कर के व्यवहार को उचित नहीं मानती है, उत्तर-पूर्व भारत के नस्लवादी निवासियों पर एक टिप्पणी करती है (इस बात के विशिष्ट संदर्भ के साथ कि वे COVID-19 महामारी के दौरान दुनिया भर में बड़े पैमाने पर फैले ज़ेनोफोबिया से कैसे प्रभावित हुए थे).
वरुण का इंसान से भेड़िये में रूपांतरण वूल्वरिन में ह्यू जैकमैन की याद दिलाता है (शायद नकल खुशामद का सबसे मजबूत रूप है) और इस मसाले में एक ब्रेकिंग बैड संवाद भी है.
हालांकि भेड़िया की कास्ट दमदार है. वरुण धवन अपने पात्र के लिए एकदम सही चयन हैं, उन्हें देखकर खुशी मिलती है और एक मजेदार हास्य जोड़ी बनर्जी और कबक की उपस्थिति उनके किरदार व प्रदर्शन को और मजबूती देती है.
यहां तक कि कृति सनोन की भूमिका छोटी है, लेकिन उनका काम महत्वपूर्ण है, जिसमें वे अपने चरित्र के साथ न्याय करते हुए काफी प्रभावशाली नजर आई हैं. दीपक डोबरियाल की कॉमेडी की टाइमिंग बेहतरीन है. फिल्म के सभी प्रमुख किरदारों में एक अच्छी केमिस्ट्री देखी जा सकती है जो फिल्म को बेहतर बनाती है.
शिकायत तो बनती है: प्रतीकात्मक महिला किरदार एक अहम मुद्दा है. आपके लिए फिल्म का मजा खराब किए बिना, फिल्म में महिला प्रतिनिधित्व की आलोचना मेरे लिए थोड़ी मुश्किल है. लेकिन, पूरी फिल्म में केवल एक ही महिला है, जिसके किरदार में कुछ दम है. इसलिए, इसकी बजाय, आइए 'द वर्ल्ड्स एक्सपर्ट ऑन गेटिंग किल्ड' रूपक पर ही चर्चा करते हैं. भेड़िया एक ऐसी फिल्म नहीं है जो बहुत ज्यादा तार्किक कही जा सके. लेकिन यह अभी भी यह समझाने में विफल है कि फिल्म एक ऐसे चरित्र से छुटकारा, वह भी शर्मनाक तरीकों से, क्यों पाती है जो दशकों से आसपास रहा है.
स्व-घोषित 'नायक नहीं', ‘एक नायक की यात्रा’ पर जोर देने के प्रयास में, तर्क को ताक पर रख दिया गया है, जहां नायक की कहानी में अपने हिस्से का काम पूरा करने के बाद हर चरित्र गैरजरूरी हो जाता है.
भास्कर का लाइकन अचानक जंगल के रखवाले से ज्यादा मजबूत कैसे हो जाता है? अपने जंगल के साथ लोगों के संबंधों को समझाने में कुछ समय व्यतीत करने वाली इस कहानी में, अपने रक्षक को खतरे में पाकर भी, किसी ने ज्यादा लड़ाई क्यों नहीं की?
हाल ही में बॉलीवुड के दिमाग में जो टॉपिक आया है, उस पर आते हैं, यह है VFX. भेड़िया में विज्युअल इफेक्ट्स अद्भुत हैं. एक ऐसी फिल्म के लिए जिसका उद्देश्य प्रकृति को सबसे आगे रखना है, ये दृश्य इसे हासिल करने में फिल्म की मदद करते हैं. स्टूडियो एमपीसी द्वारा बनाए गए वीएफएक्स पेड़ों, घास, गंदगी और लताओं की प्रचुरता से आप सम्मोहित न हों, यह लगभग असंभव है.
कोई आश्चर्य की बात नहीं कि यह वही स्टूडियो है जिसके खाते में अकादमी पुरस्कार विजेता फिल्म ‘द जंगल बुक’ जैसी फिल्में हैं. इसका प्रभाव भेडिया में भी स्पष्ट है और इसमें पुरानी यादें ताजा करने वाला 'जंगल जंगल बात चली है, पता चला है' भी शामिल है.
छायांकन निदेशक के रूप में जिशु भट्टाचार्जी का काम सराहनीय है और संपादक संयुक्ता काजा ने कहानी कहने में, उनके बेहतरीन दृश्यों का उपयोग करने में अपनी अधिकतम संभावनाओं से काम लिया है. अमिताभ भट्टाचार्य के गीतों के साथ सचिन-जिगर का संगीत आकर्षक है, लेकिन कुछ के लिए यह एक जबर्दस्ती वाला जायका हो सकता है.
जब कॉमेडी की बात आती है, तो भेड़िया मजाकिया और जुगुप्सा के रास्ते पर चलते हुए, अक्सर दोनों ही तरफ हिचकोले खाती है (शायद इसलिए कि मैं टॉयलेट ह्यूमर की फैन नहीं हूं).
कुछ चुटकुले जमीन से जुड़े होते हैं, और शायद भेड़िया जैसी फिल्म अगर क्रांतिकारी नहीं तो मनोरंजक होने की उम्मीद जगाती है. इस हिसाब से यह कामयाब रही है और अपनी खामियों के बावजूद स्पष्ट रूप से मनोरंजन प्रदान करती है.
अगर फिल्म वास्तव में जंगल और उसके रहस्यमय रक्षक के ही वास्तविक नायक होने के विचार पर केंद्रित रहती तो क्या बेहतर होती? हां ! क्या इसने ऐसा किया? नहीं.
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