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'अक्टूबर' हमें उन जगहों पर ले जाती है, जहां बॉलीवुड शायद ही कभी चलती है. होटल के लॉबियों और चमकदार फर्श पर चलते हुए, भारी भरकम फानूसों के नीचे से गुजरते हुए शुजीत सरकार की 'अक्तूबर' हमें होटल इंडस्ट्री के उन पहलुओं को दिखाती है, जिसे हममें से ज्यादातर लोग नजरअंदाज कर देते हैं- जैसे होटल इंडस्ट्री में काम करने के रोजमर्रा की दिक्कतें, साफ-सफाई की चुनौतियां, लॉन्ड्री में कपड़ों के लगातार बढ़ते ढेर, डबल शिफ्ट, ज्यादा डिमांड करने वाले मेहमान, और ड्यूटी मैनेजर्स को खुश रखने की चुनौती.
फिल्म की कहानी के माध्यम से, हम अस्पताल के उदास गलियारों में प्रवेश करते हैं. हम मरीजों के तीमारदारों और उनके निराश और हारे हुए एक्सप्रेशंस को देखते हैं. नर्सों और सफाईकर्मियों के रूटीन कामकाज को देखते हैं. आईसीयू में रोगी की खोखली आंखों के साथ उसके परिवारवालों के बर्ताव को देखते हैं.
डैन (वरुण धवन) एक युवा होटल मैनेजमेंट ट्रेनी है, जो हमेशा अपने सीनियर्स से परेशान रहता है. वो होटल में अपने लॉन्ड्री के काम से खुश नहीं है. ऐसे में उसके साथ काम करने वाली शिउली (बनीता संधू) के साथ अचानक हुई एक ट्रेजडी उसे पूरी तरह हिलाकर रख देती है.
उम्मीद, घबराहट और निराशा के साथ गुजरने वाले लंबे दिनों को भावात्मक ढंग से कहानी में इस तरह पिरोया गया है, जो असलियत के बिलकुल करीब है. इस फिल्म से वो लोग भी जुड़ाव महसूस करेंगे, जिन्होंने अपनी जिंदगी में इस तरह के हालातों का सामना नहीं किया है.
बेशक, 'अक्टूबर' सभी तरह के दर्शकों के लिए नहीं है, खासकर उन लोगों के लिए बिल्कुल नहीं, जिन्हें बॉलीवुड के मेलोड्रामा और हाई वोल्टेज एक्शन देखना पसंद हैं. लेकिन अगर आप ऐसा कुछ देखना चाहते हैं, जो लीक से हटकर हो और आपके दिल को छू जाए, तो ये फिल्म देख सकते हैं.
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