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रक्षा बंधन फिल्म (Raksha Bandhan Review) से आप अपनी 'रक्षा' कैसे करेंगे- दरअसल सबसे बड़ा सवाल यही है. शोर-शराबे से भरा, संकीर्ण ख्यालों को दोहराती यह फिल्म- रक्षा बंधन दर्शकों के लिए असहनीय है और थिएटर सीट पर बैठकर इसको देखना कष्टदायी है. इस फिल्म में महिलाएं शादी का इंतजार कर रही हैं - या तो यह इंतजार खुद अक्षय कुमार कर रहे हैं या उनसे शादी का कोई इंतजार कर रहा है.
गोलगप्पे बेचने वाला लाला केदारनाथ का किरदार अपनी चार छोटी बहनों के लिए दूल्हा खोज रहा है. यहां कोई भी बहन नौकरी-पेशा नहीं है और उनकी सहमति या राय वास्तव में मायने नहीं रखती. बस एक ही उद्देश्य है कि "अग्नि के सात फेरे" ले लिया जाए. बहनें सिर्फ इस वास्ते मौजूद हैं कि भाई उनके लिए रिश्ता खोज दे. केदारनाथ की बचपन की प्यारी सपना (भूमि पेडनेकर) पड़ोस में ही रहती है और वो भी उसके साथ फेरे लेने के लंबे इंतजार से परेशान रहती है.
फिल्म में दिखाया गया है कि अपनी चार बहनों की शादी करना अक्षय कुमार के किरदार के लिए एक कठिन काम है, यह देखते हुए कि प्रत्येक बहनों के बारे में एकमात्र दिखाई गयी विशेषता उनकी शारीरिक विशेषताएं हैं.
पहली बहन, गायत्री (सादिया खतीब), भारतीय वैवाहिक विज्ञापन में दिखने वाली 'सर्वगुण संपन्न' कन्या है. एक पतली, गोरी और घरेलू लड़की जो अपने भाई के "शादी पक्की है" बोलते ही मुस्कुराती है और शरमा जाती है. वह यहां तक कि लड़के के बारे में पूछती भी नहीं है, क्योंकि इसका शायद ही कोई असर पड़े. दूसरी बहनों की बात करें तो - एक मोटी है, एक सांवली है और सबसे छोटी वाली टॉम बॉय है.
फिल्म का पहला भाग इन्हीं बहनों के ऊपर बनाए गए जोक्स से भरा है. फैट-शेमिंग और कलर-शेमिंग इतना अविश्वसनीय रूप से भरा है कि दर्शकों को यह भ्रम रहता सोचता है कि जल्द ही कोई प्लॉट ट्विस्ट होगा.
दर्शकों को लगता है कि हिमांशु शर्मा और कनिका ढिल्लों जैसे राइटर वास्तव में केवल सस्ते हंसी के लिए किरदारों को ऐसे नहीं लिखेंगे. लेकिन ठीक ऐसा ही किया जाता है. भाई (अक्षय कुमार) यह करता है, भाई की 'जन्म से मंगेतर' यह करती है, और यहां तक कि 'सर्वगुण संपन्न' बड़ी बहन भी यही करती है- तीन छोटी बहनों को केवल उनके रूप-रंग और वजन के रूढ़िवादी पैमाने पर तौलते हैं. फिल्म और उसके निर्माताओं ने इसका तहे दिल से समर्थन भी किया है.
फिल्म बासी पुरानी लाइनों और चुटकुलों को फिर से भुनाना चाहती है, और फिर भी दर्शकों को हंसने का मौका देने में विफल रहती है. आखिर में यह उपदेश/सीख देने की कोशिश करती है, लेकिन इस मोर्चे पर भी इसमें वजन नहीं है. और यही रक्षा बंधन फिल्म की सबसे बड़ी समस्या है.
दहेज जैसी सामाजिक बुराइयों पर बात करने और केवल भाई की दुर्दशा पर ध्यान केंद्रित करके इसकी कुरूपता को सामने की कोशिश करते-करते यह फिल्म एक गंभीर मुद्दे को हल्का कर देती है. हमें इसके बीच उन मानसिक और शारीरिक परेशानियों के बारे में कुछ भी पता नहीं है जो इन महिला किरदारों ने सहे होंगे. अक्षय कुमार को हर फ्रेम में शामिल करने की जिद की कीमत फिल्म की कहानी को भुगतना पड़ती है- भूमि पेडनेकर और अन्य महिला कलाकारों को केवल प्रॉप के रूप में छोड़ दिया जाता है. रक्षाबंधन- इस फिल्म से हम सभी को रक्षा चाहिए.
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