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साल है 2067...धरती बदल चुकी है. ये ग्रह एक ऐसी दुनिया में बदल चुका है जहां हर चीज की कीमत है. कुछ अगर फ्री है तो बस-- कार्बन. वही कार्बन जो इंसानों की सांसों में घुलकर उन्हें मौत बांट रहा है. हर तरफ बिखरे इस कार्बन के बीच कुछ बेशकीमती बन गया है तो वो है ऑक्सीजन. इसका कारोबार ड्रग की तरहअंडरग्राउंड होता है. दर्शक को कुछ इसी तरह की दुनिया में ले जाती है, 24 मिनट 51 सेकेंड की ये शॉर्ट फिल्म जिसे बनाया है जैकी भगनानी ने. वही जैकी भगनानी जो चंद याद न रखने लायक फिल्में करने के बाद बॉलीवुड से गायब हो गए.
फिल्म 21 अगस्त को यू ट्यूब पर रिलीज हुई और महज दो दिन के भीतर 50 लाख से ज्यादा लोग इसे देख चुकें हैं. बॉलीवुड के कई कलाकारों ने फिल्म को लेकर अपना समर्थन भी दिखाया.
रैंडम शुक्ला (जैकी भगनानी) एक आर्टिफिशियल दिल के साथ जीने वाला युवा है जिसे एक अंजान शख्स को ताजा ऑक्सीजन के कुछ कैन डिलिवर करने हैं. इसके बदले याकूब (यशपाल शर्मा) उसे चार करोड़ रुपये देने वाला है. वो चाहता है कि कुछ पैसा बनाकर, अपने दिल का इलाज कराके वो मंगल ग्रह पर शिफ्ट हो जाए. रैंडम, बचते-बचाते जिस आदमी के पास ऑक्सीजन कैन लेकर पहुंचता है, वो खुद को शाह(नवाजुद्दीन सिद्दीकी) बताता है जो कुछ दिन के लिए पृथ्वी पर आया है. इसी बिल्डिंग में उसकी मुलाकात परी (प्राची देसाई) से होती है जो एक रोबॉट है लेकिन उसे मालूम नहीं कि वो रोबॉट है. शाह ने उसे कैद किया हुआ है. शाह से कहासुनी के बाद, रैंडम परी को वहां से रेस्क्यू कराता है. लेकिन इसके बाद क्या होता है ये हम बिल्कुल नहीं समझ पाते.
सीधे सवाल का सीधा जवाब देना हो तो--बिल्कुल नहीं. ये एक बड़े बजट की छोटी फिल्म है, जो बेहद खराब ढंग से बनाई गई है. फिल्म का कॉन्सेप्ट बेशक लाजवाब है. लेकिन इस कॉन्सेप्ट की बुनियाद पर जो इमारत बनाने की कोशिश की गई है वो बनने से पहले ही भरभराकर गिर जाती है. जैकी भगनानी अभिनेता नहीं है, इस छोटी सी बात को मानने के लिए कई फीचर फिल्मों के बाद शॉर्ट फिल्म की जरूरत क्यों पड़ी. अब ये बात उन्हें समझ आ जानी चाहिए. नवाजुद्दीन सिद्दीकी जैसे अदाकार को इस शॉर्ट फिल्म में बर्बाद कर दिया गया है. मतलब, आप नवाज को लें और ऐसी लाइनें, ऐसा किरदार दें जो उन्हें नमूना बनाकर पेश करे तो ये ज्यादती है. महज एक सीन में नजर आए नवाज को ये फिल्म करनी ही नहीं चाहिए थी. फिल्म में क्या हो रहा है, क्यों हो रहा है, किस रफ्तार में हो रहा है जैसे सवाल हर 30 सेकेंड में आपका इम्तेहान लेंगे. फिल्म में अगर कुछ अच्छा ढूंढ़ना हो तो जैकी की एंट्री से पहले के 2 मिनट काफी हैं. वो फिल्म की औपचारिक शुरूआत से कहीं बेहतर तरीके से अपनी बात रखते हैं.
फिल्म खराब ढंग से बनी है, इसमें कोई एक से दो राय नहीं. लेकिन ये भी तय है कि इस तरह की कई और फिल्मों की जरूरत है. हां, इतना जरूर है कि फिल्ममेकर इस तरह के कॉन्सेप्ट्स पर फिल्में बनाते समय लॉजिक, स्क्रीनप्ले और स्पेशल इफेक्ट्स में तालमेल बिठा सकें.
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