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सेंट जेवियर्स की क्लास से भागकर मुंबई के सबसे शुरुआती आधा डिस्को- आधा कॉफी अड्डा वेनिस पर मस्ती के लिए आने वालों के लिए वह एक मुफ्त का मनोरंजन था. यहां की खस्ताहाल बेंचों के सामने अपनी प्रेमिका- आकर्षक मॉडल गीतांजलि तालिरखान के साथ स्लो डांस करते स्टार एक्टर को देख लोग पलकें झपकाना भूल जाते थे. यह सब होता था सप्ताह के कामकाजी दिनों में दोपहर के 11 बजे.
सेंट जेवियर्स की लड़कियां उस पर लार टपकातीं. उनमें से एक कह रही थी, क्या भरपूर सुंदरता से तराशा यह शख्स स्वर्ग से नहीं आया है? जलन के मारे राख हो चुका लड़का बोलता है- हां. क्यों नहीं, ठीक है वो, लेकिन खलनायक ही तो है वो. उसके समर्थन या विरोध में हमारी जैसी भी फुसफुसाहटें होतीं, वो बमुश्किल अपने पर केंद्रित निगाहों पर ध्यान देता है. और अगर वह ताड़ जैसा लंबा था, तो गीती, मिस तालेरखान का पुकारने का नाम, नाटे कद की मगर दिलकश थी.
एक सेंट जेवराइट ने अपनी राय घुसेड़ी, “वह बस फ्लर्ट कर रहा है. ये फिल्म वाले कभी गंभीर नहीं होते. बेचारी गीती.” कितने गलत थे हम लोग. विनोद के करियर की चढ़ाई पर दोनों ने शादी कर ली. मन का मीत (सुनील दत्त इन्हें फिल्मों में लाए थे) की छोटी भूमिका से रखवाला, आन मिलो सजना, मेरा गांव मेरा देश और खून पसीना होते हुए वह सितारों के सबसे खास क्लब में शामिल होने के करीब थे.
राजेश खन्ना, धर्मेंद्र और अमिताभ बच्चन के साथ जब भी विनोद खन्ना ने किसी फिल्म में भूमिका निभाई, तो वह उन सबसे बेहतर ही लगे. खासकर खून पसीना में तो वह अमिताभ बच्चन से बाजी ही मार ले गए थे.
बच्चन की जगह विनोद खन्ना के सुपर स्टार नंबर-1 बनने की चर्चाएं पूरे जोरों पर थीं, लेकिन ऐसा नहीं हुआ. वर्ष 1982 में खन्ना ने खेल बीच में ही छोड़ दिया. फिल्मी दुनिया की चकाचौंध के पीछे छिपी बनावटी जिंदगी से निकल कर उन्होंने ओशो रजनीश की शरण ली. ये कदम व्यावसायिक आत्महत्या के समान था.
वह एंजोली इला मेनन की पेंटिंग्स से सजे विशाल खुले कमरों वाले मालाबार हिल्स के एक हवादार अपार्टमेंट में रहते थे. जब तक मैंने रिपोर्टर की यूनिफॉर्म पहनी, वह गीतांजलि से अलग हो चुके थे और ओशोलैंड से वापस आ गए थे. फिल्म सिटी में उन्हें घुटनों जितने लंबे उनके बेटों अक्षय और राहुल के साथ देखकर मैंने उन्हें द टाइम्स ऑफ इंडिया के लिए एक इंटरव्यू के बारे में पूछा. स्लेट से भी ज्यादा सपाट चेहरा बनाते हुए उन्होंने जवाब दिया, “नहीं.”
उनकी फिल्मों में वापसी के मौके पर एक पीआर (जनसंपर्क एजेंट) ने सत्यमेव जयते में एक ईमानदार पुलिस वाले की भूमिका निभा रहे विनोद खन्ना से जुहू के एक बंगले पर मुलाकात की दरख्वास्त की. मेरी ख्वाहिश पूरी हो गई थी, करीब-करीब. वह दोपहर का समय था और हीरो की आंखें लाल थीं (फिल्माए जा रहे दृश्य में उन्हें गुस्से में दिखना था.) ओशो आश्रम के लंबे प्रवास पर कोई सवाल नहीं होगा. अमिताभ बच्चन पर भी नहीं, ना ही उनकी मानसिक शांति की तलाश पर सवाल की इजाजत थी.
साफ कहूं तो मैं बहुत नाराज था. अगर वह बात नहीं करना चाहते थे, तो सिर्फ चले जाओ कहने के लिए, पूरा शहर पार कर मुझे यहां क्यों बुलाया? लेकिन यह मुमकिन हुआ. फिल्मों में वापसी के बाद विनोद खन्ना और डिंपल कपाड़िया को सहज होने में कई महीने लगने थे और आखिर में संयोग से ऐसा हुआ. बीकानेर में जेपी दत्ता की फिल्म क्षत्रिय की शूटिंग के मौके पर मैं विनोद खन्ना से वह लंबा इंटरव्यू कर सका. मेरे लिए दोहरी खुशी का मौका था, कि धर्मेंद्र और विनोद दोनों ने एक साथ बात की. स्कॉच और सोडा की महफिल जमी.
विनोद खन्ना ने ढेर सारी बातें बताईं, साथ ही यह सवाल कि मैं अपनी समीक्षाओं में अमिताभ बच्चन पर इतना फिदा क्यों रहता हूं. बातों का मेला फिल्मफेयर के कई पन्नों में समाना था और उस रात मुझे बहुत गहरी नींद आई.
अगली सुबह खिसियाना और कातर चेहरा बनाए धर्मेंद्र ने कहा, ''बराय मेहरबानी मुझ पर एक एहसान कीजिये. विनोद ने जो कहा है, वह सब मत छापिये. वह बहुत मुंहफट हैं. इससे वो मुश्किल में पड़ जाएंगे.'' उफ! धरम साब सही थे. मैंने विनोद खन्ना की बातचीत में जरूरी कांट-छांट कर दी.
इंटरव्यू छपने के बाद विनोद खन्ना ने फूलों के गुलदस्ते के साथ नोट भेजा, “ख्याल रखने के लिए शुक्रिया. “जब भी आ सकें, आ जाइएगा. हम पड़ोसी हैं.” ऐसा उनका स्वभाव नहीं था. मैं कभी उनका नरम रुख नहीं देखा था. ऑफ द रिकॉर्ड, अनौपचारिक बातों के बात वह मेरी आलोचना करते, “आप प्रभावित हैं. हम सभी अपने वातावरण और परिस्थितियों से प्रभावित होते हैं.” मैं कहता, ''सही है'', और सहमति में हंस देता. उनकी बात काटना फिजूल था. वह तर्कों से परे प्रतिबद्धताओं की शख्सियत थे.
जब अक्षय को लांच करने वाली फिल्म हिमालय पुत्र का निर्माण चल रहा था, उन्होंने एक सुबह फोन किया, “मैं मुश्किल में हूं. क्या आप मेरे लिए डायरेक्टर (पंकज पाराशर) से बात कर सकते हैं? आप उन्हें जानते हैं.” पंकज ने अपने बचाव में कहा, “क्या! वीके ने आपसे यह कहा? वह जरूर आपसे मजाक कर रहे होंगे.” मैंने इस बात को यहीं छोड़ दिया.
हिमालय पुत्र के प्रीमियर से एक महीने पहले उन्होंने पूछा, क्या हम फिल्मफेयर के लिए एक कवर स्टोरी कर सकते हैं. मैंने समझाया, “अगर आप दोनों एक साथ फोटो सेशन नहीं करते तो बेचना मुश्किल होगा.”
कैमरे के मास्टर स्वर्गीय गौतम राजाध्यक्ष को राजी किया गया. जाहिर तौर पर खन्ना पिता-पुत्र सहज दिख रहे थे, लेकिन दिन भर के शूट में मनपसंद फोटो पर सहमत होने में हफ्ता या शायद कुछ ज्यादा समय लग गया. अक्षय कोई अंतिम पसंद तय नहीं कर पा रहा था. एक और चक्र चला, तब विनोद ने कहा, ''मेरा बेटा मुझसे भी ज्यादा मीन-मेख निकालने वाला है. मुझ पर गया है. राहुल अपनी मां जैसा है- शांत.''
इन फोटो सेशन के दौरान, विनोद दूसरी पत्नी कविता दफ्तरी के साथ थे. कोई बेचैनी नहीं, आंखों में लाल डोरे नहीं. लगता था कि अभिनेता खुश है. यह सतही टिप्पणी है, लेकिन निःसंदेह अभिनेता ने बॉलीवुड से इश्क को स्वीकार कर लिया था. वह इसे बदल नहीं सकता था. ना ही इससे भाग सकता था.
विनोद खन्ना के बाद के वर्षों में मेरी उनसे बातचीत का सिलसिला टूट गया. वह गुरदासपुर से सांसद बन गए थे. उन्होंने किसी इंटरव्यू में वादा किया था कि अपने संसदीय क्षेत्र को ऐसा बना देंगे कि 'भारत का पेरिस' कहलाएगा, हालांकि इस पर बहस की गुंजाइश है.
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