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विधु विनोद चोपड़ा की फिल्म ‘शिकारा’ एक डिस्क्लेमर से शुरू होती है - यह सच्ची घटनाओं पर आधारित एक उपन्यास पर बनी है. यह भी बताया गया है कि फिल्म स्क्रीन पर जो लोग दिख रहे हैं वे एक्टर्स नहीं बल्कि वास्तविक रिफ्यूजी है. ये कश्मीरी पंडितों के पलायन के त्रासद अध्याय के पात्र हैं. बेघर हो चुके हैं . दर-दर की ठोकरें खा रहे हैं.
चोपड़ा की यह फिल्म उनके निजी अनुभवों पर भी आधारित है. स्क्रीनप्ले राहुल पंडिता, अभिजात जोशी और उन्होंने मिलकर लिखा है, जो प्यार और पुरानी यादों की कहानी बयां करती है. यह कश्मीर की सारी अच्छाइयों से एक अलग संदर्भ रचती है.
फिल्म में मेलोड्रामा से बचने की एक सतर्क कोशिश दिखती है. लेकिन स्क्रीन पर इसके लिए जो आवेग पैदा किया गया है वह इस तरह की कहानी के लिए स्वाभाविक उदासी का माहौल नहीं बना पाता है. शायद इसकी एक वजह कश्मीर का मौजूदा राजनीतिक माहौल है.
'शिकारा' एक लव स्टोरी की तरह शुरू होती है. कश्मीर की वादियों में खिलते रोमांस की तरह. एक ऐसा रोमांस, जहां लतीफ अपने क्रिकेट मैच और दोस्त शिव (आदिल खान) की सेंचुरी की संभावनाओं को छोड़ सादिया को लव लेटर देने पहुंच सके. पर्दे पर इस रोमांस को जीवंत करने का क्रेडिट खूबसूरत सादिया और आदिल खान को जाता है. दोनों की यह पहली फिल्म है. लेकिन यह जन्नत तब थरथरा जाती है जब अचानक कश्मीर में हत्याएं शुरू हो जाती हैं. कश्मीरी पंडितों को चुन-चुन कर निशाना बनाया जाता है.
फिल्म का टोन अचानक बदल जाता है और इस बात की तारीफ होनी चाहिए कि पूरे नैरेटिव में संयम बरकरार रखा गया है. सब कुछ जल्दी-जल्दी घटता है. घाटी में रहने वाले पंडितों के लिए जान बचाने का कोई रास्ता नहीं बचता. उन्हें घर-बार छोड़ कर भागना पड़ता है. कोई कहता है '' पार्लियामेंट में शोर मचेगा'' क्योंकि इतनी बड़ी तादाद में कश्मीरी पंडितों का विस्थापन हुआ है. लेकिन हर तरफ एक अजीब सी चुप्पी है. कुछ भी नहीं होता है.
फिल्म यह कहने की कोशिश करती है कहीं न कहीं हमने अपने ही लोगों को नीचा दिखाया है. उनकी अनदेखी की है. फिल्म में बगैर शोर-शराबा के यह बात कह दी गई है. अब हम फिल्म के प्रेमी जोड़े पर आते हैं. फिल्म दिखाती है कि कैसे इस जोड़े की आइडेंटिटी उस धरती से जुड़ी है जहां वे लौट कर नहीं जा सकते. जिंदगी धीरे-धीरे पटरी पर लौटने लगती है लेकिन क्या वे उनके पुराने दिन लौटाए जा सकेंगे? शायद कभी नहीं. फिल्म हमें इसी का अहसास कराती है.
फिल्म के पीछे निर्माता-निर्देशक की मेहनत और गहरी प्लानिंग दिखती है. लेकिन कश्मीर काफी जटिल मामला है. इस एक मुद्दे के तमाम पक्ष हैं. हर किसी के अपने हित. ऐसे में फिल्म का फोकस इतना अधिक सीमित कर देना कहीं न कहीं इसका असर खत्म कर देता है.
घर पीछे छूट जाने का दर्द. दोस्तों से बिछड़ने का गम और परिचित माहौल की सुरक्षा से महरूम हो जाना इस फिल्म की थीम है. लेकिन इस दर्द का अहसास कराने के साथ ही फिल्म एक खूबसूरत कहानी भी कहती है. इस खूबसूरत कहानी के लिए इस फिल्म को जरूर देखिये. यह आपको निराश नहीं करेगी. मैं इस फिल्म को पांच में से तीन क्विंट देती हूं. बहरहाल, कश्मीरी पंडितों के पलायन को दिखाने के लिए शायद किसी और दमदार फिल्म की जरूरत है.
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