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स्पॉयलर अलर्ट
“हर पब्बी और मोंटी सिंह को पकड़ने के लिए इस देश में एक नहीं कई अभिनव माथुर होंगे.“
Zee के ओवर द टॉप (ओटीटी) प्लेटफॉर्म जी5 पर 55 मिनट से कम समय वाली संजय गढवी की शॉर्ट फिल्म ऑपरेशन परिंदे के आखिर में यह पंच लाइन दिया गया है. यह साफ नहीं है कि नायक कहना क्या चाह रहा है, लेकिन सिख खलनायक और हिन्दू हीरो के बीच मुकाबला जबरदस्त है.
टाइम्स ग्रुप के एमएक्स प्लेयर पर एक अन्य वेब सीरीज ‘भौकाल’ पर यह और भी सीधा है. नायक नवीन सिकेरा (मोहित रैना) जो पुलिस अफसर है, अपने लोगों को खलनायक शौकीन खान (अभिमन्यु सिंह) को गोली मारने का आदेश देने से पहले “ईद मुबारक” कहता है.
‘ऑपरेशन परिंदे’ और ‘भौकाल’ दोनों ‘सत्य घटनाओं से प्रेरित’ क्राइम शो की बढ़ती संख्या की कड़ी हैं, जो ओटीटी प्लेटफॉर्म पर भारतीयों को दिखाए जा रहे हैं.
और इन सीरीज में से कई ऐसे हैं, जिनमें घटनाओं की नाटकीयता का अंत बहुसंख्यकवादी संदेश को आगे बढ़ाते हुए होता है.
उदाहरण के तौर पर ऑपरेशन परिंदे में लगातार खालिस्तान और पाकिस्तान एंगल को जरूरत से ज्यादा दिखाया गया है. यह फिल्म पंजाब के नाभा में 28 नवंबर 2016 को हुए कुख्यात जेल ब्रेक पर आधारित है. इस जेल ब्रेक को 2016 में सर्जिकल स्ट्राइक के खिलाफ पाकिस्तान का बदला के तौर पर दिखाया गया है जबकि इसकी पुष्टि के लिए कोई तथ्य नहीं है.
जेल से भागने के तुरंत बाद उसे पाकिस्तान में अपने हैंडलरों से बातचीत करते हुए और उनको ‘अस्सलाम अलैकुम’ कहते हुए रहस्यमय रूप में दिखाया गया है.
मोंटी को जेल ब्रेक का मास्टरमाइंड बताते हुए दिखाया गया है, जबकि वास्तविकता में अगर तुलना की जाए तो गैंगस्टरों रमनजीत रोमी, हरजिंदर भुल्लर उर्फ विक्की गोंडर और गुरप्रीत सेखों उर्फ सोनू के मुकाबले आतंकी हरमिंदर मिन्टू और कश्मीर सिंह छोटे खिलाड़ी थे.
एक बुजुर्ग पगड़ीधारी सिख पुलिसकर्मी को मोंटी से ‘प्रभावित’ होते हुए दिखाया गया है. यहां तक कि आतंकवादियों को सम्मान के साथ ‘बाबाजी’ कहा गया है. उसका अंत आतंकियों का ‘महिमामंडन’ करने के जवाब में ‘अच्छे सिपाही’ अभिनव माथुर से अपमानित होते हुए होता है. इसके अलावा माथुर की ओर से अप्राकृतिक यौनाचार की धमकियां भी दी जाती हैं.
एक अहम सिख किरदार है गैंगस्टर पब्बी (पलविंदर ‘पिंडा’ पर आधारित नाम) जिसे शामली में उत्तर प्रदेश के पुलिस अफसर कोमल भारद्वाज के हाथों गिरफ्तार होते हुए दिखाया गया है.
माथुर के बॉस इकलौते सांकेतिक सकारात्मक पगड़ीधारी सिख हैं जिनकी भूमिका कुछ और नहीं, बस नायक को आगे बढ़ाते रहने की है. दूसरी ओर ज्यादातर ‘अच्छे लड़के’ हिन्दू नाम वाले हैं और उनमें से कोई पगड़ीधारी सिख नहीं है.
वास्तविकता बिल्कुल अलग है. पंजाब पुलिस स्पेशल टास्क फोर्स, जिस पर मिन्टू यानी पलविंदर ‘पिंडा’ और साथियों ने कब्जा कर लिया था, उसमें बड़े पैमाने पर न सिर्फ पगड़ीधारी सिख अफसर थे बल्कि उसका नेत़त्व तत्कालीन एजीजीपी दिनकर गुप्ता ने किया था जो अब पंजाब के डीजीपी हैं.
यह फिल्म बगैर किसी बाधा के इस बात पर जोर देती है कि नोटबंदी के कारण जेल ब्रेक जैसी घटनाएं तकरीबन खत्म हो चुकी थीं. यह राज्य सरकार के प्रपंच को आगे बढ़ाती है.
सन् 2000 के शुरुआती सालों में मुजफ्फरनगर में पुलिस अधीक्षक के तौर पर जज्बा दिखाने वाले उत्तर प्रदेश कैडर के आईपीएस अफसर नवनीत सिकेरा के वास्तविक जीवन से प्रेरित है एमएक्स प्लेयर की ‘भौकाल’.
यहां नायक नवीन सिकेरा (मोहित रैना अभिनीत) डेढ़ा बंधुओं और शौकीन खान (अभिमन्यू सिंह) के नेतृत्व वाले दो गैंग के खिलाफ जंग छेड़ता है. हालांकि पहले दौर के बाद खान ही मुख्य खलनायक के तौर पर उभरकर सामने आता है.
फिल्मनिर्माता ने खान को क्रूर, दूसरों के दुख में खुश होने वाला और खतरनाक दिखाने के लिए बहुत मेहनत की है जबकि उसे धार्मिक मुसलमान के तौर पर भी दिखाया गया है.
चीजों को संभालने वाला मुस्लिम राजनेता भी है यहां जिन्हें आजम खान के कपड़ो में दिखाया गया है.
सांप्रदायिक दंगों में गैंगस्टर्स की भूमिका और उसमें कुछ मुस्लिम चरित्र, जैसे कि सर्वोत्कृष्ट मुस्लिम मुखबिर और सिपाही, के जरिए सकारात्मकता दिखाते हुए यह सीरीज कुछ राजनीतिक गहराई दिखाने का दिखावा भी करती है. लेकिन यह खान के लोगों और सिपाहियों के बीच खून-खराबे को बहुत निम्न स्तर पर ले जाता है.
भारत में अधिकांश पुलिस कहानियों की तरह ही यह सीरीज मुठभेड़ों में मौत का महिमामंडन करती है. लेकिन ऐसा करते हुए इसका पूरा ध्यान सिकेरा और शौकीन खान के बीच गतिरोध पर रहता है, जबकि उनके कार्यकाल में मुजफ्फरनगर में कई अन्य मुठभेड़ भी हुए.
उत्तर प्रदेश में आम तौर पर और मुजफ्फरनगर में खासकर मुठभेड़ के दौरान मौत के महिमामंडन का इतिहास रहा है. ऐसे अफसरों में एसएन सबत, आशुतोष पांडे, नवनीत सिकेरा और हाल में अनन्त देव तिवारी व उनके अधीनस्थ शामिल रहे हैं जिन्हें मुजफ्फरनगर में मुठभेडों के जरिए अपराधियों को खत्म करने के लिए ‘सम्मानित’ किया गया है.
ओटीटी प्लेटफॉर्म्स पर क्राइम सीरीज में जिस तरह सवर्ण गैंगस्टरों का महिमामंडन होता है उससे बिल्कुल अलग हिन्दू पुलिस और मुस्लिम/सिख खलनायक के बीच के संघर्ष में एक को सही और दूसरे को गलत दिखाया जाता है.
उदाहरण के लिए रंगबाज सीजन 1 शिव प्रकाश शुक्ला के मुख्य किरदार का (अभिनीत साकिब सलीम) महिमामंडन करता है जो गोरखपुर के कुख्यात गैंगस्टर श्री प्रकाश शुक्ला पर आधारित है.
वास्तविक जीवन में 1998 में मार गिराए जाने से पहले ही पूर्वी उत्तर प्रदेश में सक्रिय माफियाओं के बीच शुक्ला का कद बड़ा हो चुका था. तब वह अपनी उम्र के तीसरे दशक में था. 2005 में कबीर कौशिक की निर्देशित फिल्म ‘सेहर’ का वह मुख्य विषय था. बॉलीवुड से निकली गैंगस्टर पर बनी श्रेष्ठ फिल्मों में एक ‘सेहर’ किसी भी जगह पर मुख्य चरित्र गजराज सिंह (अभिनीत सुशांत सिंह) को न मानवीय बताता है और न ही उसकी खलनायकी को बढ़ा-चढ़ा कर दिखाता है.
रंगबाज का दूसरा सीजन भी बहुत कुछ ऐसा ही है जिसमें मुख्य भूमिका निभा रहे अमरपाल सिंह (जिम्मी शेरगिल) को ऐसे नायक के रूप में दिखाया गया है जिसका अंत दुखद होता है.
यह सीजन राजपूत गैंगस्टर आनंदपाल सिंह और जाट गैंगस्टर गोपाल फोगावट के बीच दुश्मनी पर आधारित है और इस बात पर भी कि किस तरह राजस्थान के राजनीतिज्ञों द्वारा उसका मोहरे के तौर पर इस्तेमाल किया जाता है.
हालांकि अमरपाल को पकड़ने गये पुलिस अफसर संजय मीणा (मोहम्मद जीशान अय्यूब) को कॉलेज के दिनों से उसके प्रशंसक के तौर पर दिखाया गया है.
रंगबाज फिर से में सवर्ण नजरिया कुछ ऐसा है कि आईपीएस अफसर संजय मीणा, जो पिछड़े समुदाय से आते हैं उनका महिमामंडन ‘सामान्य वर्ग में आईपीएस बनने वाले’ के तौर पर किया गया है.
आरक्षण विरोधी भावना रंगबाज सीजन वन का भी हिस्सा रही थी जिसमें किरदार निभाते हुए तिग्मांशु धुलिया कह रहे हैं कि “आरक्षण के नाम पर ब्राह्मण युवाओं को प्रताड़ित किया जा रहा है”. वे आगे कहते जाते हैं कि “ब्राह्मण सर्वश्रेष्ठ रहेगा और हमेशा उसी रूप में रहेगा.”
जब राम गोपाल वर्मा से 2005 में पूछा गया था कि उनकी ओर से प्रोड्यूस होने वाली फिल्म ‘डी’ क्या दाऊद इब्राहिम पर आधारित है, तो उनका जवाब था, “नहीं सदर्भ अलग है...डी महाराष्ट्रियन हिन्दू है.”
फिर भी फिल्म निर्माताओं ने गैंग्स ऑफ वासेपुर, वन्स अपॉन ए टाइम इन मुंबई, रईस और हसीना पार्कर जैसी फिल्मों में मुस्लिम गैंग्स्टरों को मानवीय दिखाया है. वर्मा की यह अहम स्वीकारोक्ति है जो बॉलीवुड की गैंगस्टर फिल्मों में आकार लेती चली गयी.
शायद फिल्म निर्माता महसूस करते हैं कि हिन्दू गैंगस्टरों को मानवीय दिखाना आसान है, अल्पसंख्यक गैंगस्टरों को ऐसा दिखा पाना मुश्किल. शाहरूख खान द्वारा अभिनीत राहुल ढोलकिया की रईस (2017) ने भी इस विश्वास को मजबूत किया.
ऐसे फिल्म निर्माताओं की संख्या लगातार बढ़ी है जो बहुसंख्यक गैलरी में खेलना पसंद करते हैं जो उन्हें भारत में बृहत राजनीतिक वातावरण देता है. आश्चर्य नहीं है कि यह बात वेब सीरीज में भी जाहिर हुई है.
तो इस तरह यह ‘ए फैमिली मैन’ जैसी सीरीज के लिए स्वीकार्य हो जाता है जिसमें एक कश्मीरी और एक मलयाली मुस्लिम को भारत पर आतंकी हमले के लिए आईएसआईएस में भर्तियां करते दिखाया जाता है. और, इसके मुख्य किरदार श्रीकांत तिवारी (मनोज बाजपेयी) अपने मुस्लिम अधीनस्थों को कहते हैं, “बार-बार आपके राष्ट्रवाद साबित करने में गलत क्या है?”
अपराध और आतंकवाद की लोकप्रियता से जुड़े वेब सीरीज को मिली लोकप्रियता को देखते हुए अल्पसंख्यक समुदाय को खलनायक और धोखेबाज के तौर पर सिमटने के लिए तैयार रहना चाहिए जब तिवारी, माथुर, सिकेरा और भारद्वाज जैसे किरदार देश को बचाएंगे.
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