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वन संरक्षण अधिनियम (Forest Conservation Act 1980) में सरकार कुछ संशोधन करना चाहती है, जिससे एक्टविस्ट परेशान हैं. इस संशोधन के बाद वन भूमि क्षेत्रों को गैर-वन उपयोग के लिए प्रयोग में लाना आसान हो जाएगा. एक्टविस्ट स्टेकहोल्डर्स को जवाब देने के लिए दिए गए 15 दिनों के सीमित समय से भी परेशान हैं. उनका आरोप है कि पूरी कवायद सरकार को अपने संशोधनों को बिना किसी बहस के आगे बढ़ाने में मदद करने के लिए की गई है.
पर्यावरण वकीलों और कार्यकर्ताओं के एक समूह और वन अधिकारों पर एक स्वतंत्र शोधकर्ता व CFRLA (Community Forest Rights Learning And Advocacy) के सदस्य, संघमित्रा दुबे ने कहा कि अभी इन संशोधनों की क्या आवश्यकता है? केंद्र सरकार FCA (Forest Conservation Act 1980) में संशोधन करने की इतनी जल्दी में क्यों हैं.
हम इन संशोधनों के बारे में क्यों बात कर रहे हैं? हमें परवाह क्यों करनी चाहिए?
भारत के पहले से ही सिकुड़ते वन क्षेत्र के साथ, क्या इन संशोधनों से सरकार के लिए वन भूमि को छीनना आसान हो जाएगा? आदिवासियों का क्या होगा, क्या इस पर उनकी राय मांगी गई है? आइए बात करते हैं सारे तथ्यों परः
वन संरक्षण अधिनियम-1980 को लागू करने का प्राथमिक उद्देश्य वनों की कटाई और वन शासन से संबंधित मुद्दों का समाधान करना था. इससे पहले सभी वन संबंधी कार्य 'निष्कर्षण' पर केंद्रित थे, न कि 'संरक्षण' पर.
संरक्षण अधिनियम आने के बाद किसी भी Non-Foresty उद्देश्यों के लिए 'वन-भूमि' का उपयोग करने के लिए केंद्र की मंजूरी अनिवार्य हो गयी है. यह अनिवार्य रूप से सभी संस्थाओं - राज्य या निजी के लिए निर्माण, बुनियादी ढांचा परियोजनाओं, ड्रिलिंग, निष्कर्षण आदि के लिए इस भूमि तक पहुंचना मुश्किल था.
पिछले दिनों सरकारी एजेंसियों के खिलाफ ढांचागत परियोजनाओं के लिए फॉरेस्ट एक्ट अधिनियम के उल्लंघन के कई मामले सामने आए हैं, जिनमें कथित तौर पर वन भूमि और वनवासियों के भूमि अधिकारों को नुकसान पहुंचाया गया है.
अब सुझाए गए संशोधनों में केंद्र की अनुमति लेने से Non-Foresty उद्देश्यों के लिए क्या प्रावधान बनाने का प्रस्ताव है, इस पर हम विस्तार से आगे बता रहे हैं.
जैसे-जैसे वन संरक्षण अभियान दशकों से मजबूत हुआ, वन आवरण बढ़ाने का दबाव भी बढ़ता गया.
यह काफी हद तक 2015 में पेरिस समझौते के तहत घोषित, India’s Nationally Determined Contributions (NDCs) द्वारा संचालित था, जिसका उद्देश्य वन कवर को बढ़ाकर कार्बन सिंक का विस्तार करना था.
इससे वन भूमि के वास्तविक मतलब का विस्तार हुआ. वन भूमि का अर्थ है वाणिज्यिक वृक्षारोपण सहित सरकारी अभिलेखों में "वन" के रूप में डेमोक्रैडेट सभी भूमि.
यह लंबे समय से विवाद का विषय रहा है कि क्या कवर वाले सभी क्षेत्रों को वनों के रूप में गिना जाना चाहिए या यह शब्द अधिक समग्र होना चाहिए.
वन भूमि को समझने और परिभाषित करने के लिए विभिन्न अवसरों पर इस संबंध में अधिनियम की अलग-अलग व्याख्या की गई है, साथ ही संशोधनों में इसे बदलने का प्रस्ताव है.
The Ministry of Environment, Forest and Climate Change (MoEFCC) ने 2 अक्टूबर 2021 को वन (संरक्षण) अधिनियम-1980 (FCA) में महत्वपूर्ण संशोधनों का प्रस्ताव रखा है. मंत्रालय द्वारा अपलोड किए गए एक कन्सल्टेशन पेपर में, वन भूमि में Non-Foresty गतिविधियों पर विनियम, दंड और मानदंडों का सुझाव दिया गया है.
मंत्रालय ने इन संशोधनों की एक प्रति सभी राज्यों को भेजी है और उनसे अगले पंद्रह दिनों में अपने सुझावों और आपत्तियों के साथ वापस आने को कहा है, जिसके बाद इन संशोधनों का एक मसौदा संसद में पेश किया जाएगा.
मोटे तौर पर ये संशोधन FCA के दायरे को सीमित कर रहे हैं, जिससे Non-Foresty उद्देश्यों के लिए वन भूमि के डायवर्जन को आसान बना दिया गया है और रेलवे व सड़क मंत्रालयों जैसी कुछ एजेंसियों को "रणनीतिक और सुरक्षा" परियोजनाओं के लिए केंद्र से अनुमति लेने से पहले छूट देने का प्रस्ताव है.
संघमित्र ने कहा कि वन अधिकार अधिनियम (FRA) अभी भी वास्तविक रूप में लागू नहीं हुआ है. जब तक ऐसा नहीं होता है, तब तक एफसीए में संशोधन करने का कोई मतलब नहीं है.
हालांकि कुछ लोगों को लगता है कि यह अधिनियम पुराना है और इसे फिर से देखने की जरूरत है.
सुप्रीम कोर्ट के एक वरिष्ठ पर्यावरण वकील और पर्यावरण कानून फर्म ईएलडीएफ के प्रबंध भागीदार संजय उपाध्याय ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट के अनुसार जंगल की परिभाषा अभी भी सीमित है, वन को परिभाषित करने के मानदंड सभी राज्यों के लिए अलग-अलग हैं. चार पेज के कानून (FCA) में स्पष्टीकरण से ज्यादा भ्रम हैं, 1980 के बाद बहुत कुछ हुआ है, इसलिए निश्चित रूप से वन अधिनियम पर फिर से विचार करने की आवश्यकता है.
परामर्श पत्र राष्ट्रीय सार्वजनिक अवकाश पर जारी किया गया था और पंद्रह दिनों के भीतर प्रतिक्रिया मांगी गई थी, जो इस तरह के सार्वजनिक परामर्श के लिए कम से कम तीस दिन प्रदान करने की सरकार की अपनी नीति के खिलाफ है.
संघमित्र ने कहा कि मार्च में केंद्र ने एफसीए में संशोधन के लिए एक मसौदा भेजा था, किसी को नहीं पता था कि इस मसौदे में क्या कहा गया है, केवल लीक हुए अंश सभी ने देखे हैं. आखिरकार, अब यह कन्सल्टेशन पेपर्स बहुत जल्दबाजी में सामने आया है.
कन्सल्टेशन पेपर में प्रस्तावित किया गया है कि राष्ट्रीय महत्व की रणनीतिक और सुरक्षा परियोजनाओं पर काम करने वाली एजेंसियों के लिए वन भूमि के उपयोग में छूट दी जानी चाहिए.
छूट प्राप्त भूमि में रेलवे द्वारा 1980 से पहले स्वामित्व वाली और अधिग्रहित सभी वन भूमि शामिल है. हालांकि, मंत्रालय का प्रस्ताव है कि कुछ प्राचीन जंगलों को कुछ समय के लिए “Showcasing Rich Ecological Values” के लिए बरकरार रखा जाना चाहिए.
एक अटॉर्नी जनरल कहते हैं कि रेलवे अधिनियम में एक खंड है, जो कहता है कि यह किसी अन्य अधिनियम के बावजूद है जिसका अर्थ है इसे Forest Conservation Act पर प्राथमिकता होनी चाहिए. मेरा विचार है कि पहले अधिग्रहित भूमि को अभी भी छूट दी जा सकती है लेकिन सभी भूमि जो कि नए सिरे से मूल्यांकन किया जाना है.
प्रस्ताव में यह भी कहा गया है कि वन क्षेत्र को बढ़ाना प्राथमिकता बनी हुई है. वृक्ष उत्पादकों के बीच इस आशंका को दूर करने की आवश्यकता है कि उनकी निजी/गैर वन भूमि पर लगाए गए वनस्पति या वृक्षारोपण अधिनियम के प्रावधानों को आकर्षित करेंगे.
पेपर में इसके ठीक बाहर वन भूमि के नीचे तेल प्राकृतिक गैस निकालने के लिए प्रौद्योगिकी का उपयोग करने का भी प्रस्ताव है. मंत्रालय इस तरह की तकनीक का उपयोग काफी पर्यावरण के अनुकूल मानता है और पेपर के मुताबिक इसे अधिनियम के दायरे से बाहर रखा जाना चाहिए.
Sarma ने कहा कि एफसीए संशोधन इस बात की अनदेखी कर रहे हैं कि वन भूमि का डायवर्जन लोगों को कैसे प्रभावित करेगा.
वन भूमि की निकासी और डायवर्जन को आसान बनाने वाले संशोधन आदिवासियों की भूमिका को पूरी तस्वीर से बाहर कर रहे हैं, जो जंगलों का एक आंतरिक हिस्सा है. इन संशोधनों का स्थानीय समुदायों पर दूरगामी प्रभाव पड़ेगा.
उन्होंने कहा कि वनों के संरक्षण में आदिवासियों की भूमिका को मान्यता देने के लिए वन संरक्षण कानून में संशोधन की जरूरत है.
कन्सल्टेशन अभी भी प्रस्तावित संशोधनों का सुझाव है. राज्यों द्वारा दिए गए सुझावों को शामिल करने के बाद सरकार इन संशोधनों का एक विधेयक संसद में पेश करेगी, जहां पारित होने से पहले इस पर बहस होगी.
हालाँकि, यदि यह प्रस्ताव उस आकार में पारित हो जाता है जो वर्तमान में है, तो यह भारत के जंगलों के लिए हानिकारक होगा.
विशेषज्ञों का कहना है कि संशोधन अधिनियम को कमजोर कर देंगे और वन संरक्षण के मूल उद्देश्यों को नुकसान पहुंचेगा.
विशेषज्ञों ने चेतावनी दी है कि 'स्ट्रैटेजिक' शब्द की अस्पष्टता का इस्तेमाल एजेंसियों द्वारा खामियों का फायदा उठाने के लिए किया जाएगा और आसान मंजूरी प्राप्त करने के लिए एक उपकरण के रूप में इस्तेमाल किया जाएगा.
वन भूमि के रूप में विचार किए बिना 'निजी वृक्षारोपण' को प्रोत्साहन दिया जा रहा है, निजी भूमि पर वृक्षारोपण को बढ़ावा मिलेगा, जिससे सरकार को वन कवर के अपने लक्ष्यों को पूरा करने में मदद मिलेगी.
पूर्व में पर्यावरणविद ऐसे वृक्षारोपण को 'जंगल' के रूप में गिने जाने से आशंकित रहे हैं.
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