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इरोड वेंकट नायकर रामास्वामी यानि पेरियार का जन्म 17 सितम्बर 1879 को तमिलनाडु के इरोड में एक सम्पन्न और परम्परावादी हिन्दू परिवार में हुआ था. पेरियार ने छुआछूत के खिलाफ और हिंदू कुरीतियों के खिलाफ लड़ाई लड़ी. आइए जानते हैं कौन थे पेरियार और दक्षिणपंथी क्यों करते हैं उन्हें नापसंद. रूढ़िवादी सोच तोड़ने वाले पेरियार की प्रतिमा पिछले दिनों तोड़ दी गई थी.
ई.वी. रामास्वामी राजनेता और सामाजिक कार्यकर्ता थे. इनके चाहने वाले इन्हें प्यार और सम्मान से ‘पेरियार’ बुलाते थे. पेरियार को ‘आत्म सम्मान आन्दोलन’ या ‘द्रविड़ आन्दोलन’ शुरू करने के लिए जाना जाता है. उन्होंने जस्टिस पार्टी का गठन किया जो बाद में जाकर ‘द्रविड़ कड़गम’ हो गई. पेरियार आजीवन रुढ़िवादी हिन्दुत्व का विरोध करते रहे. उन्होंने हिन्दी को जरूरी बनाने का भी घोर विरोध किया. उन्होंने ब्राह्मणवाद पर करारा प्रहार किया और एक अलग ‘द्रविड़ नाडु’ की मांग की.
पेरियार ई.वी. रामास्वामी ने तर्कवाद, आत्म सम्मान और महिला अधिकार जैसे मुद्दों पर जोर दिया और जाति प्रथा का घोर विरोध किया. उन्होंने दक्षिण भारतीय गैर-तमिल लोगों के हक की लड़ाई लड़ी और उत्तर भारतीयों के प्रभुत्व का भी विरोध किया. उनके कार्यों से ही तमिल समाज में बहुत परिवर्तन आया और जातिगत भेदभाव बहुत हद तक कम हुआ.
इरोड वेंकट नायकर रामास्वामी का जन्म 17 सितम्बर 1879 को तमिलनाडु के इरोड में एक सम्पन्न और परम्परावादी हिन्दू परिवार में हुआ था. उनके पिता वेंकटप्पा नायडू एक धनी व्यापारी थे. उनकी माता का नाम चिन्ना थायाम्मल था. उनका एक बड़ा भाई और दो बहने थीं.
साल 1885 में उन्होंने स्थानीय प्राथमिक विद्यालय में शिक्षा के लिए दाखिला लिया पर कुछ सालों की औपचारिक शिक्षा के बाद वे अपने पिता के व्यवसाय से जुड़ गए. बचपन से ही वे रूढ़िवादिता, अंधविश्वासों और धार्मिक उपदशों में कही गयी बातों की प्रामाणिकता पर सवाल उठाते रहते थे. उन्होंने हिन्दू महाकाव्यों और पुराणों में कही गई परस्पर विरोधी बातों को बेतुका कहा और उनका मखौल भी उड़ाया.
पेरियार जाति व्यवस्था के खिलाफ थे. साल 1904 में पेरियार काशी गए, जहां हुई एक घटना ने उनका जीवन बदल दिया. दरअसल, पेरियार को भूख लगी तो वह एक जगह हो रहे निःशुल्क भोज में गए. जहां उन्हें पता चला कि यह भोज सिर्फ ब्राह्मणों के लिए था.
उन्होंने वहां भोजन पाने की कोशिश की, लेकिन उन्हें धक्का मारकर अपमानित किया गया. इसके बाद ही वे रुढ़िवादी हिन्दुत्व के विरोधी हो गए. उन्होंने किसी भी धर्म को नहीं स्वीकारा और आजीवन नास्तिक रहे.
पेरियार ने इरोड के नगर निगम अध्यक्ष रहे. उन्होंने सामाजिक उत्थान के कामों को बढ़ावा दिया. चक्रवर्ती राजगोपालाचारी की पहल पर साल 1919 में उन्होंने कांग्रेस की सदस्यता ले ली. उन्होंने असहयोग आन्दोलन में भाग लिया और गिरफ्तार भी हुए. साल 1922 के तिरुपुर सत्र में वे मद्रास प्रेसीडेंसी कांग्रेस समिति के अध्यक्ष बन गए और सरकारी नौकरियों और शिक्षा के क्षेत्र में आरक्षण की वकालत की.
इसके बाद कांग्रेस के प्रशिक्षण शिविर में ब्राह्मण प्रशिक्षक के गैर-ब्राह्मण छात्रों के प्रति भेदभाव बरतने से उनका कांग्रेस से मोहभंग हो गया. बाद में उन्होंने कांग्रेस के नेताओं के सामने दलितों और पीड़ितों के लिए आरक्षण का प्रस्ताव भी रखा, जिसे मंजूरी नहीं मिल सकी. इसके बाद उन्होंने साल 1925 में कांग्रेस छोड़ दी.
केरल के वायकोम में छूआछूत की जड़ें काफी गहरी जमीं हुई थीं. यहां सवर्णों से अवर्णों को 16 से 32 फीट की दूरी बनाये रखनी होती थी. किसी भी मंदिर के आस-पास वाली सड़क पर दलित वर्जित थे.
इसके खिलाफ पेरियार ने केरल के कांग्रेस नेताओं के निवेदन पर वायकोम आन्दोलन का नेतृत्व किया. यह आन्दोलन मन्दिरों की ओर जाने वाली सड़कों पर दलितों के चलने की मनाही को हटाने के लिए किया गया था. इस आन्दोलन में उनकी पत्नी और मित्रों ने भी उनका साथ दिया.
पेरियार और उनके समर्थकों ने समाज से असमानता कम करने के लिए अधिकारियों और सरकार पर हमेशा दबाव बनाया. ‘आत्म सम्मान आन्दोलन’ या द्रविड़ आंदोलन का का मुख्य लक्ष्य गैर-ब्राह्मण द्रविड़ों को उनके सुनहरे अतीत पर अभिमान कराना था.
साल 1925 के बाद पेरियार ने ‘आत्म सम्मान आन्दोलन’ के प्रचार-प्रसार पर पूरा ध्यान केन्द्रित किया. आन्दोलन के प्रचार के एक तमिल साप्ताहिकी ‘कुडी अरासु’ (1925 में प्रारंभ) और अंग्रेजी जर्नल ‘रिवोल्ट’ (1928 में प्रारंभ) का प्रकाशन शुरू किया गया.
साल 1937 में जब सी. राजगोपालाचारी मद्रास प्रेसीडेंसी के मुख्यमंत्री बने, तब उन्होंने स्कूलों में हिंदी भाषा की पढ़ाई को अनिवार्य कर दिया, जिससे हिंदी विरोधी आन्दोलन उग्र हो गया. तमिल राष्ट्रवादी नेताओं, जस्टिस पार्टी और पेरियार ने हिंदी-विरोधी आंदोलन किया. इसे लेकर साल 1938 में कई लोग गिरफ्तार किये गए. उसी साल पेरियार ने हिंदी के विरोध में ‘तमिलनाडु तमिलों के लिए’ का नारा दिया. उनका मानना था कि हिंदी लागू होने के बाद तमिल संस्कृति नष्ट हो जाएगी और तमिल समुदाय उत्तर भारतीयों के अधीन हो जायेगा.
अपनी राजनैतिक विचारधाराओं को छोड़ सभी दक्षिण भारतीय दलों के नेताओं ने मिलकर हिंदी का विरोध किया.
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