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चुनाव से पहले टिकट के लिए दल-बदल का खेल तो आम हो चुका था, लेकिन जब चुनाव जीतने के बाद भी विधायक या सांसदों की दलगत आस्था डगमगा जाए तो क्या कहेंगे? हाल ही में गोवा में 15 में से 10 कांग्रेस विधायक सत्ताधारी बीजेपी में शामिल हो गए. तेलंगाना में कांग्रेस के 16 विधायकों में से 12 सत्ताधारी टीआरएस में शामिल हो गए. उधर, कर्नाटक में भी सियासी संकट जारी है. सत्ताधारी कांग्रेस-जेडीएस गठबंधन के विधायक इस्तीफा देकर विपक्षी दल बीजेपी के संपर्क में हैं. यानी कि अब बात सिर्फ टिकट के लिए दलबदल की नहीं, बल्कि इससे आगे की है.
लेकिन क्या देश में ऐसा कोई कानून है, जो विधायकों या सांसदों को निजी फायदे के लिए दलबदल से रोकता हो. जी हां, देश में दलबदल विरोधी कानून है. जो विधायकों या सांसदों को दल बदल से रोकता है.
लोकतांत्रिक प्रक्रिया में राजनीतिक दल सबसे अहम हैं और वे सामूहिक आधार पर फैसले लेते हैं. लेकिन आजादी के कुछ साल बाद ही राजनीतिक दलों को मिलने वाले सामूहिक जनादेश की अनदेखी की जाने लगी. विधायकों और सांसदों के जोड़-तोड़ से सरकारें बनने और गिरने लगीं. इस स्थिति ने राजनीतिक व्यवस्था में अस्थिरता ला दी.
जब गया लाल ने यूनाइटेड फ्रंट छोड़कर कांग्रेस में शामिल होने का फैसला किया, तब कांग्रेस नेता राव बीरेंद्र सिंह उन्हें चंडीगढ़ ले गए, जहां उन्होंने गया लाल का परिचय ‘आया राम-गया राम’ के तौर पर कराया. इसके बाद आया राम-गया राम को लेकर तमाम चुटकले और कार्टून बने और ‘आया राम-गया राम’ स्लोगन चर्चा में आ गया.
इस कानून को बनने और लागू होने में काफी वक्त लगा. दरअसल, शुरुआत में दलबदल विरोधी कानून के बुनियादी प्रावधानों पर कोई सहमति नहीं थी. संसद के सदस्य संसद और अन्य विधानसभाओं में बोलने की स्वतंत्रता को लेकर चिंतित थे क्योंकि उन्हें डर था कि दलबदल पर सख्त कानून से विधायकों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता (जो कि एक संवैधानिक अधिकार है) पर अंकुश लगेगा.
आखिरकार, साल 1985 में, राजीव गांधी सरकार संविधान में संशोधन करने और दलबदल पर रोक लगाने के लिए एक विधेयक लाई और 1 मार्च 1985 को यह लागू हो गया. संविधान की 10 वीं अनुसूची, जिसमें दलबदल विरोधी कानून शामिल है, को इस संशोधन के माध्यम से संविधान में जोड़ा गया.
अगर कोई सदस्य स्पीकर या अध्यक्ष के रूप में चुना जाता है तो वह अपनी पार्टी से इस्तीफा दे सकता है और जब वह पद छोड़ता है तो फिर से पार्टी में शामिल हो सकता है. इस तरह के मामले में उसे अयोग्य नहीं ठहराया जाएगा. इसके अलावा अगर किसी पार्टी के एक-तिहाई विधायकों ने विलय के पक्ष में मतदान किया है तो उस पार्टी का किसी दूसरी पार्टी में विलय किया जा सकता है.
साल 2003 में इस कानून में संशोधन करने की जरूरत पड़ी. दरअसल, 1985 में दलबदल विरोधी कानून विधायकों के दलबदल पर रोक लगाने के लिए लाया गया. लेकिन इस कानून के लागू होने का बाद पहले जो दल-बदल एकल होता था, वो सामूहिक तौर पर होने लगा.
लिहाजा, साल 2003 में संसद को 91वां संविधान संशोधन करना पड़ा, जिसमें व्यक्तिगत ही नहीं बल्कि सामूहिक दल-बदल को भी असंवैधानिक करार दिया गया. अब, केवल एकमात्र प्रावधान है, जिसके जरिए अयोग्यता से बचा जा सकता है, वह है दल के विलय से संबंधित प्रावधान. इसे 10 वीं अनुसूची के अनुच्छेद 4 में शामिल किया गया है.
दलबदल विरोधी कानून निश्चित तौर पर काफी हद तक दलबदल पर अंकुश लगाने में सक्षम है. लेकिन, हालिया माहौल को देखें तो निजी लाभ के लिए निर्वाचित सदस्यों के समूहों में दूसरे दल में शामिल हो जाना लोकतंत्र के लिए खतरनाक है. राज्य विधानसभाओं और यहां तक कि राज्यसभा में दलबदल के हालिया उदाहरणों में यह बात सामने आई है. ऐसे मामले बताते हैं कि कानून की खामियों को दूर करने के लिए इस पर एक बार फिर विचार करने की जरूरत है.
हालांकि, यह तय है कि समाज हित में ये कानून काफी कारगर रहा है. निर्वाचित सदस्यों की दलगत आस्था डगमगाने से राजनीतिक अस्थिरता की स्थिति पैदा होती है. गोवा, तेलंगाना और कर्नाटक इसके ताजा उदाहरण हैं.
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Published: 16 Jul 2019,05:55 PM IST