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(यह स्टोरी पहली बार 17 नवंबर को पब्लिश हुई थी. एमपी के अगले सीएम के रूप में मोहन यादव के चुने जाने के बाद इस स्टोरी को अपडेट कर रिपब किया जा रहा है.)
मध्य प्रदेश विधानसभा चुनावों में बीजेपी को शानदार जीत दिलाने के बावजूद, सीएम के रूप में शिवराज सिंह चौहान का कार्यकाल समाप्त हो गया है. बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व - पीएम नरेंद्र मोदी, गृह मंत्री अमित शाह और पार्टी अध्यक्ष जेपी नड्डा ने उनकी जगह लो प्रोफाइल उज्जैन दक्षिण से विधायक मोहन यादव को सीएम की कुर्सी पर लाने का फैसला किया है.
बीजेपी ने शिवराज चौहान को हटाने का फैसला क्यों किया?
शिवराज के लिए आगे की राह क्या होगी?
यह स्टोरी में हम इन्हीं दोनों सवालों का जवाब देने की कोशिश करेंगे.
दोनों राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) पृष्ठभूमि से आने वाले ओबीसी नेता हैं, लेकिन दोनों की राजनीतिक शैली एक-दूसरे से जुदा है. जहां मोदी ने बहुत विशाल छवि बना ली है, वहीं शिवराज ने विनम्र और सहज 'मामाजी' (Mamaji) की छवि कायम रखी है.
दोनों नेताओं के बीच सटीक समीकरण बता पाना मुश्किल है. उनके बीच कोई दुश्मनी नहीं रही है. हालांकि, यह सच है कि मोदी के पीएम बनने के बाद से शिवराज चौहान के कद में कटौती हुई है.
इस आर्टिकल में हम जानेंगे कि कैसे सीएम शिवराज के राजनीतिक कद में बदलाव आया है और इसमें पीएम मोदी की क्या भूमिका है?
मध्य प्रदेश बीजेपी के एक पूर्व पदाधिकारी ने द क्विंट से बातचीत में कहा, “किस्मत हमेशा साथ नहीं देती. देर-सबेर आपकी किस्मत साथ छोड़ ही जाती है. शिवराज सिंह चौहान के साथ यही हुआ है.”
उन्हें हमेशा एक जिम्मेदार और मेहनती राजनेता के रूप में जाना जाता है, लेकिन किस्मत और सही समय पर सही जगह पर होना, शिवराज चौहान की राजनीतिक यात्रा में खास फैक्टर रहे हैं.
उस साल के अंत में तत्कालीन प्रधानमंत्री वीपी सिंह की भोपाल यात्रा के दौरान उनके खिलाफ विरोध प्रदर्शन से शिवराज को पहचान मिली. ओबीसी आरक्षण के लिए वीपी सिंह के दबाव ने भी बीजेपी को शिवराज जैसे ज्यादा ओबीसी चेहरों को आगे बढ़ाने के लिए मजबूर किया था, जो ओबीसी किरार (OBC Kirar) समुदाय से आते हैं.
शिवराज को अपने अगले ब्रेक के लिए लंबा इंतजार नहीं करना पड़ा. 1991 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी के दिग्गज नेता अटल बिहारी वाजपेयी ने दो सीटों-उत्तर प्रदेश की लखनऊ और मध्य प्रदेश की विदिशा से चुनाव लड़ा. दोनों में जीत के बाद वाजपेयी ने विदिशा सीट खाली कर दी. बीजेपी ने उपचुनाव में शिवराज चौहान को उतारा, जिसे उन्होंने आसानी से जीत लिया और महज 32 साल की उम्र में सांसद बन गए.
उनकी जीत आश्चर्यजनक नहीं थी क्योंकि विदिशा बीजेपी के पूर्ववर्ती जनसंघ के दिनों से ही एक मजबूत हिंदुत्व समर्थक सीट रही है. जनसंघ ने 1967 और 1971 में यहां से जीत हासिल की थी.
इसके चलते उन्हें मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देना पड़ा. उनकी जगह वरिष्ठ नेता बाबूलाल गौर ने ली, लेकिन गौर प्रभाव नहीं छोड़ पाए और 2005 में गौर की जगह शिवराज को लाया गया.
किस्मत ने एक बार फिर शिवराज का साथ दिया.
इस दौरान पार्टी में उमा भारती के समीकरण तेजी से खराब होते गए. लालकृष्ण आडवाणी के साथ उनका सार्वजनिक विवाद हुआ और उन्हें पार्टी से निलंबित कर दिया गया. बार-बार 'कारण बताओ नोटिस' की अनदेखी करने के बाद उन्हें बीजेपी से निकाल दिया गया. उन्होंने 2006 में भारतीय जनशक्ति पार्टी का गठन किया. 2008 के चुनाव में इससे बीजेपी को हालांकि थोड़ा नुकसान हुआ, लेकिन वह शिवराज को सत्ता में वापसी से नहीं रोक सकीं.
इन सभी घटनाक्रमों ने शिवराज को मध्य प्रदेश में बीजेपी का निर्विवाद चेहरा बना दिया.
साल 2011 में उमा भारती की पार्टी में वापसी हुई लेकिन शिवराज को आश्वासन दिया गया कि वह मध्य प्रदेश की राजनीति से दूर रहेंगी. इसकी जगह उन्हें 2012 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में बीजेपी का चेहरा बनाया गया, जो दो दशक में राज्य में बीजेपी के सबसे खराब प्रदर्शनों में से एक था.
उस समय, शिवराज कई मायनों में अपनी ताकत के चरम पर थे.
सिर्फ बीजेपी में ही नहीं, विरोधियों ने भी एमपी के सीएम के काम की सराहना की.
उदाहरण के लिए भूमि अधिग्रहण विधेयक का मसौदा तैयार करने के दौरान राज्यों से सलाह लेने की कोई जरूरत नहीं थी, फिर भी तत्कालीन ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश ने शिवराज से इनपुट लिया. संसद में विधेयक पेश करते समय जयराम ने दलीय सीमा से ऊपर उठकर इन संशोधनों को ‘शिवराज चौहान संशोधन’ कहा था.
हालांकि, राजनीतिक रूप से शिवराज ने अपने हिस्से से ज्यादा दुश्मन बनाए, खासकर अपनी पार्टी के अंदर.
कैलाश विजयवर्गीय पर आरोप है कि उन्होंने शिवराज के विरोधियों के साथ गुप्त बैठकें कीं. ऐसी अफवाहें भी थीं कि उनमें से कुछ लोगों ने उन्हें ‘गब्बर सिंह’ का नाम दिया था.
प्रह्लाद सिंह पटेल और नरोत्तम मिश्रा मध्य प्रदेश बीजेपी में शिवराज के दो और प्रतिद्वंद्वी रहे हैं.
मुख्यमंत्री के रूप में कम से कम अपने शुरुआती 10 सालों के दौरान जब मुसलमानों के साथ रिश्तों की बात आती थी तो शिवराज को तुलनात्मक रूप से ज्यादा समावेशी बीजेपी नेता के रूप में देखा जाता था.
मोदी के उलट, जिन्होंने गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में एक मुस्लिम शख्स द्वारा उन्हें दी गई टोपी (skull-cap) पहनने से इनकार कर दिया था, शिवराज को टोपी पहने मुस्लिम समारोहों में शामिल होते देखा गया था. नीचे दी गई यह तस्वीर 2013 में ईद-उल-फितर की है.
तब्लीगी जमात ने 2010 में अपने सालाना इज्तेमा (सम्मेलन) में सरकार की मदद के लिए शिवराज की तारीफ की. बताया जाता है कि शिवराज ने व्यवस्थाओं की निगरानी के लिए खुद कार्यक्रम स्थल का दौरा किया था.
शिवराज सरकार ने 2012 में भोपाल में मुस्लिम सरकारी कर्मचारियों को आधे दिन की छुट्टी भी दी ताकि वे इज्तेमा के आखिरी दिन “दुआ” में हिस्सा ले सकें.
शिवराज के नजरिये की वजह से ही बीजेपी ने 2018 के विधानसभा चुनावों में 16 फीसद मुस्लिम वोट (CSDS के आंकड़े के अनुसार) हासिल किए, जो किसी भी राज्य में पार्टी का सबसे बड़ा हिस्सा है.
मोदी के साथ शिवराज का समीकरण उन कोशिशों से जटिल हुआ, जब गुजरात के मुख्यमंत्री मोदी ताकत जुटा रहे थे, और दूसरों ने उन्हें 2013 में मोदी के खिलाफ खड़ा कर दिया था.
बताते हैं कि उस साल की शुरुआत में आडवाणी ने शिवराज को बीजेपी के संसदीय बोर्ड में शामिल करने की कोशिश की थी, ऐसा कहा जाता है कि इस कोशिश को मोदी और तत्कालीन बीजेपी अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने नाकाम कर दिया था.
मामला निपट गया होता लेकिन शिवराज की पुरानी आलोचक उमा भारती ने इसका इस्तेमाल मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री से हिसाब बराबर करने और उन्हें मोदी के खिलाफ खड़ा करने के लिए किया.
“मैं बहुत आहत हूं कि मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री के बगल में खड़े एक सी-ग्रेड अभिनेता ने नरेंद्र मोदी का मजाक उड़ाया. मैं अचंभित हूं कि यह कैसे हुआ.” उन्होंने मुस्लिम टोपी पहनने के लिए शिवराज की आलोचना भी की थी.
इस घटना के कुछ महीनों बाद 2013 के विधानसभा चुनाव में, शिवराज ने अपने अभियान में मोदी के सलाहकारों के दखल का कथित तौर पर विरोध किया, यहां तक कि प्रचार सामग्री में उनका नाम शामिल करने से भी इनकार कर दिया.
शिवराज चौहान के करीबी सूत्रों का कहना है कि कभी भी उनका इरादा संभावित पीएम उम्मीदवार के रूप में अपना नाम उछालने या मोदी के लिए चुनौती बनने का नहीं था. मध्य प्रदेश के एक बीजेपी विधायक नाम न छापने की शर्त के साथ कहते हैं,
नेता ने आगे कहा, “लेकिन वह मोदी और अमित शाह के कामकाज के तरीके को ठीक से नहीं समझ सके. किसी भी नेता को खुली छूट नहीं है, चाहे वह शिवराज चौहान हों या वसुंधरा राजे या (बीएस) येदियुरप्पा.”
2014 में सत्ता में आने के बाद प्रधानमंत्री मोदी और अमित शाह ने बीजेपी सहित देश में राजनीतिक परिदृश्य को अपने हिसाब से ढालना शुरू कर दिया. सत्ता केंद्रों का आकार छोटा कर दिया गया, कई प्रमुख नेताओं को किनारे लगा दिया गया.
उमा भारती 2014 में केंद्र सरकार में मंत्री बनीं. प्रभात झा का भी कद बढ़ गया. फिर दो और विरोधी प्रह्लाद सिंह पटेल और फग्गन सिंह कुलस्ते 2019 में मंत्री बनाए गए.
शिवराज चौहान को सबसे बड़ा झटका 2018 में लगा, जब बीजेपी विधानसभा चुनाव में कांग्रेस से मामूली अंतर से हार गई.
उनकी यह भी दलील है कि बीजेपी की हार में योगदान देने वाली कुछ वजहों पर शिवराज का वश नहीं था- नोटबंदी और GST दोनों केंद्र सरकार के फैसले थे, एससी और एसटी (अत्याचार) कानून को कमजोर करने का काम सुप्रीम कोर्ट ने किया, जिससे एससी/एसटी तबका नाराज हो गया. बदलावों को पलटने वाला कानून बनाने का फैसला केंद्र सरकार द्वारा लिया गया और इससे दबंग जातियां नाराज हो गईं.
2019 में ज्योतिरादित्य सिंधिया और उनके वफादार विधायकों ने कांग्रेस से बगावत कर दी और राज्य में कमलनाथ सरकार गिरा दी. बीजेपी के पास नाजुक बहुमत होने के कारण पार्टी आलाकमान को शिवराज चौहान की शरण में जाने के लिए मजबूर होना पड़ा.
लेकिन चूंकि सिंधिया की एंट्री करीब-करीब पूरी तरह केंद्र की बदौलत हुई थी, इसलिए साफ था कि शिवराज की नई पारी का श्रेय मोदी और शाह को जाना था.
शिवराज का अब वैसी स्वायत्तता या कद नहीं रहा, जैसा 2013 में था.
सबसे वरिष्ठ मुख्यमंत्री होने के बावजूद आज पार्टी में शिवराज का रुतबा योगी आदित्यनाथ और हिमंता बिस्वा सरमा जैसे जूनियर मुख्यमंत्रियों से कम है.
आज शिवराज लगभग पूरी तरह बीजेपी आलाकमान के रहमो-करम पर हैं. एक ऐसे नेता से, जिसने कथित तौर पर 2013 में प्रचार सामग्री में मोदी को शामिल करने से इनकार कर दिया था, अब वह 17 साल सरकार चलाने के बावजूद आधिकारिक तौर पर पार्टी के मुख्यमंत्री उम्मीदवार के रूप में नामित किए जाने के लिए भी संघर्ष कर रहे हैं.
हालांकि, इसका कतई यह मतलब नहीं है कि अगर बीजेपी सत्ता में आती है तो मोदी और शाह ने शिवराज को बदलने का फैसला ले लिया है. उनकी मुख्य प्राथमिकता 2024 के लोकसभा चुनाव में मध्य प्रदेश की सभी 29 सीटें जीतना है. अगर इसके लिए शिवराज को सीएम बनाना जरूरी है तो वे ऐसा करेंगे. अगर इसके लिए उन्हें दिल्ली भेजना जरूरी है, तो वे वैसा करेंगे.
मौजूदा समय में शिवराज को जाति जनगणना के चलते थोड़ा फायदा हो सकता है, जिसे विपक्ष एक प्रमुख मुद्दा बना रहा है.
बीजेपी के लिए मौजूदा समय में अपने इकलौते ओबीसी मुख्यमंत्री को दरकिनार करना आसान नहीं होगा, खासकर तब जबकि विपक्ष राष्ट्रव्यापी जाति जनगणना के आधार पर राष्ट्रीय स्तर पर OBC के लिए आरक्षण बढ़ाने का वादा कर सकता है.
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