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अमेरिका से लेकर भारत तक शेयर बाजारों में भारी गिरावट देखने को मिल रही है. इस गिरावट के कारण निवेशकों के मन में कई सवाल उठ रहे होंगे. आइए जानते हैं ऐसे ही कुछ सवालों के जवाब-
शेयर बाजार में मौजूदा गिरावट की शुरुआत अमेरिकी बाजारों से हुई है, जिसका असर भारत समेत तमाम एशियाई बाजारों पर पड़ा है. अमेरिकी शेयर बाजार में गिरावट की सबसे बड़ी वजह मानी जा रही है बॉन्ड की यील्ड में हुई बढ़ोतरी. ऐसे में सवाल ये है कि आखिर बॉन्ड यील्ड में बढ़ोतरी का मतलब क्या है?
बॉन्ड यील्ड में दो शब्द हैं - बॉन्ड और यील्ड. पहले जानते हैं कि बॉन्ड क्या है. बॉन्ड दरअसल लोन इंस्ट्रूमेंट हैं, जो सरकारी भी हो सकते हैं और कॉरपोरेट यानी निजी कंपनियों के भी. सरकारी बॉन्ड को ट्रेजरी बिल्स भी कहते हैं. आप जब भी कोई बॉन्ड खरीदते हैं तो आप उसे जारी करने वाली सरकार या कंपनी को लोन यानी कर्ज देते हैं. बॉन्ड जितने वक्त के लिए जारी किया जाता है, उसे मैच्योरिटी पीरियड कहते हैं. मसलन एक साल, 5 साल या 10 साल.
इतना वक्त पूरा होने पर बॉन्ड जारी करने वाला बॉन्ड वापस लेकर आपकी रकम चुका देता है. किसी बॉन्ड में वक्त से पहले पैसे चुकाने का ऑप्शन भी हो सकता है, जिसे कॉलेबल या कॉल ऑप्शन वाला बॉन्ड कह सकते हैं.
बॉन्ड जारी करने वाली सरकार या कंपनी, लोन पर जिस रेट से ब्याज देने का वादा करती है उसे कूपन रेट कहा जाता है. बॉन्ड की यील्ड उसके खरीद मूल्य, मैच्योरिटी पीरियड और कूपन रेट के आधार पर ही कैलकुलेट की जाती है. यील्ड का ये हिसाब कई तरह से लगाया जा सकता है. मसलन, यील्ड टू मैच्योरिटी (YTM), करेंट यील्ड या यील्ड टू कॉल.
(आर्थिक शब्दावली में यील्ड का मतलब होता है किसी भी निवेश से होने वाली कमाई की दर. वित्तीय बाजारों से बाहर यील्ड शब्द आपने खेतीबाड़ी से जुड़ी चर्चाओं में भी सुना होगा. जहां इसका मतलब होता है खेतों की पैदावार या उपज. जिस तरह खेतों की यील्ड से तय होता है कि उससे किसान को कितनी कमाई होगी. वैसे ही बॉन्ड की यील्ड से पता चलता है कि उसे खरीदने या होल्ड करने वाले को उससे कितनी कमाई होने वाली है.)
ब्याज तो आपको बैंक या पोस्ट ऑफिस के डिपॉजिट पर भी मिलता है. लेकिन इसमें और बॉन्ड में सबसे बड़ा फर्क ये है कि बॉन्ड को शेयर की तरह खरीदा-बेचा भी जा सकता है. ये खरीद-बिक्री बॉन्ड की घोषित वैल्यू के मुकाबले डिस्काउंटेड या प्रीमियम प्राइस पर हो सकती है. मसलन 10 हजार रुपये का 8 फीसदी कूपन रेट वाला बॉन्ड, जो दो साल बाद मैच्योर होना है, वो हो सकता है अभी आपको 8500 से 9000 रुपये के आसपास की डिस्काउंट प्राइस पर मिल जाए.
वहीं, अगर किसी फिक्स्ड मैच्योरिटी वाले बॉन्ड का कूपन रेट बाजार की मौजूदा ब्याज दरों से काफी ज्यादा हो, तो वो प्रीमियम पर भी बिक सकता है. किसी बॉन्ड की मौजूदा डिस्काउंट प्राइस कई बातों से तय होती है. बाजार में ब्याज दरें बढ़ने पर बॉन्ड की कीमतें आमतौर पर घट जाती हैं, जबकि बाजार में ब्याज दरें घटने पर बॉन्ड की कीमतें बढ़ सकती हैं.
बॉन्ड पर यील्ड बढ़ने का मतलब है उसमें निवेश पर होने वाली कमाई में बढ़ोतरी. शेयर के मुकाबले बॉन्ड ज्यादा सुरक्षित और निश्चित रिटर्न देने वाले माने जाते हैं. खास तौर पर सरकारी बॉन्ड यानी ट्रेजरी बिल्स में निवेश तो काफी हद तक रिस्क फ्री होता है.
ऐसे में अगर बॉन्ड की यील्ड यानी कमाई बढ़ जाए और उस दौरान शेयर बाजार में उथल-पुथल का माहौल हो, या बाजार ऐसी ऊंचाई पर हो, जहां उसमें बड़े पैमाने पर मुनाफा वसूली की गुंजाइश हो, तो इनवेस्टर अपने पैसे शेयर से निकालकर बॉन्ड में लगाने के लिए प्रेरित हो सकते हैं. जाहिर है, अगर बड़ी संख्या में निवेशक ऐसा करने लगें तो शेयरों में बिकवाली तेज हो जाएगी और उनकी कीमतें गिरने लगेंगी. जानकारों का मानना है कि शेयर बाजारों में आजकल यही हो रहा है.
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