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“शरिया कोर्ट के आते ही भारत इस्लामिक रिपब्लिक ऑफ इंडिया बन जाएगा’’
‘’शरिया कोर्ट बनाने का मकसद देश में पैरलल जुडिशियल सिस्टम खड़ा करना है’’
‘’शरिया कोर्ट का मतलब, मुसलमानों को देश के कानून पर यकीन नहीं है”
पिछले कुछ दिनों से आप ऐसी ही कुछ बातें सोशल मीडिया से लेकर न्यूज चैनल पर सुन रहे होंगे, लेकिन क्या ये बातें सच हैं? क्या सच में हिंदुस्तान में कोई शरिया कोर्ट या पैरलल कोर्ट की बात हो रही है? तो जवाब है, नहीं. बिलकुल नहीं.
लेकिन ये सवाल क्यों उठ रहे हैं? इस सवाल के पीछे की कहानी जानने से पहले जानना जरूरी है कि क्या है ये पूरा विवाद.
दरअसल, हाल ही में ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने देश के हर जिले में 'दारुल कजा' यानी इस्लामिक कानून की रौशनी में मुसलमानों के निजी मामलों के निपटारे के लिए काउंसिलिंग सेंटर खोलने की बात कही. हालांकि ये कोई पहला दारुल कजा खोलने की बात नहीं थी. देश में मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की देख-रेख में अभी करीब 100 दारुल कजा चल रहे हैं.
अब सवाल है कि दारुल कजा शरिया कोर्ट में कैसे बदल गया? 1993 में शुरू हुए दारुल कजा को मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड चलता है. तो आपको बता दें कि जैसे ही हर जिले में दारुल कजा खोलने की बात शुरू हुई, तभी कुछ मीडिया संस्थानों ने इसे शरिया कोर्ट कहना शुरू कर दिया. इसके बाद से इसे लेकर हंगामा शुरू हो गया.
सबसे पहले बात शरीयत की. शरीयत शब्द अरबी भाषा से आया है, जिसका मतलब होता है इस्लामिक कानून. या यों कहें कि शरीयत मोटे तौर पर कुरान और पैगंबर मोहम्मद साहब की बताई गई बातों पर आधारित है, जिसे हदीस कहते हैं
ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के सदस्य जफरयाब जिलानी के मुताबिक:
दारुल कजा में लोगों के मामले सुलझाने के लिए एक या उससे अधिक जज हो सकते हैं, जिन्हें काजी कहा जाता है. ये काजी इस्लामिक शरिया के जानकार होते हैं. दारुल कजा में काजी सिर्फ इस्लामिक शरिया के तहत मामले में इस्लामिक कानून बता देते हैं. काजी कोई एनफोर्सिंग एजेंसी नहीं है, न ही वो अपनी बात किसी पर थोप सकते हैं.
दरअसल, कोई भी महिला या पुरुष अपनी अर्जी दारुल कजा में जाकर देता है, फिर इसमें दोनों पक्षों की सुनवाई होती है. काजी दोनों पक्षों को नोटिस जारी करता है. बयान दर्ज होते हैं, सुनवाई के दौरान इस्लामिक शरिया के मुताबिक लिखित रास्ते बताए जाते हैं. या यों कहें इस्लामिक तरीके और शरीयत के हिसाब से उस मसले पर फैसला सुनाया जाता है.
कोर्ट के फैसले से ये बिलकुल अलग होता है. यहां फैसले को काजी जबरदस्ती लागू नहीं कराता है, न ही उसके पास ये पावर होती है. साथ ही दारुल कजा के फैसले को मानना या न मानना दोनों पक्षों पर निर्भर करता है.
दारुल कजा को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने सात जुलाई 2014 को विश्वलोचन मदन मामले में एक फैसला दिया था. फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था:
मतलब ऐसा है, जैसे मोहल्ले में झगड़ा हो जाए और मोहल्ले के किसी बड़े-बुजुर्ग के पास झगड़ा सुलझाने के लिए जाएं और वो दोनों पक्ष की बात सुनकर उनके मामले को सुलझा दें.
संविधान विशेषज्ञ और हैदराबाद स्थित लॉ यूनिवर्सिटी नेशनल अकादमी लीगल स्टडीज एंड रिसर्च के वीसी प्रोफेसर फैजान मुस्तफा इंडियन एक्सप्रेस में लिखते हैं कि सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि दारुल कजा समानांतर न्यायिक व्यवस्था नहीं है. कोई अलग अदालत बनाए, वो मना है. लेकिन उसी कोर्ट ने कहा है कि यह निजी अनौपचारिक विवाद निपटान तंत्र है. कानून इस बात की इजाजत देता है कि कोई अपने मसलों को अदालत के बाहर मध्यस्थता से हल कर ले.
फैजान मुस्तफा कहते हैं:
मुस्तफा बताते हैं कि दोनों में फर्क है. दारुल कजा आपराधिक मामले पर न ही सुनवाई कर सकती है, न ही करती है. दूसरी ओर ऐसा देखा जाता है कि खाप पंचायतें अक्सर आपराधिक मामले में फैसला सुना देती हैं. देश का आपराधिक कानून सारे समुदायों के लिए एक है.
खाप पंचायत के मामले में देखा गया है कि वे अपने फैसले जबरदस्ती लागू करती हैं. अगर उनके फैसले को कोई नहीं मानेगा, तो उन्हें गांव में नहीं घुसने देना, सामाजिक बहिष्कार का ऐलान, जबरदस्ती शादी तोड़ने के लिए मजबूर करना, ऐसी कई घटनाएं सामने आती हैं.
दूसरी ओर दारुल कजा के पास लोग अपनी मर्जी से जाते हैं और जिन्हें न जाना हो, वो नहीं जाते हैं.
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