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डॉलर के मुकाबले रुपया कमजोर होने की अटकलों के बीच जब गुरुवार सुबह बाजार खुलने पर रुपये में तेज गिरावट दर्ज की गई, तो वित्त मंत्रालय और वाणिज्य मंत्रालय सफाई देने सामने आ गए. उन्होंने जोर देकर कहा कि रुपये के अवमूल्यन की सरकार की कोई योजना नहीं है और रुपये की विनिमय दर या एक्सचेंज रेट बाजार ही तय करेगा.
बहरहाल, सरकार आधिकारिक तौर पर रुपये का अवमूल्यन करे या नहीं, लेकिन हम आपको बताते हैं कि आखिर ये अवमूल्यन होता क्या है और इसके क्या फायदे-नुकसान होते हैं.
अर्थशास्त्र में किसी मुद्रा के अवमूल्यन का मतलब होता है उसकी कीमत का किसी दूसरी मुद्रा के मुकाबले कम कर देना. इसे ऐसे समझें कि अगर रुपये का अवमूल्यन होता है, तो इसका मतलब होगा कि अब एक डॉलर खरीदने के लिए आपको ज्यादा रुपये खर्च करने पड़ेंगे, यानी रुपये की कीमत कम हो जाएगी.
वैसे तो रुपये की कीमत मुद्रा बाजार में डॉलर की मांग के मुताबिक घटती-बढ़ती रहती है, जिसमें कई बार स्वाभाविक तौर पर इसका अवमूल्यन होता है, तो कभी अधिमूल्यन (कीमत में बढ़ोतरी). लेकिन जब कोई सरकार अपनी मुद्रा का अवमूल्यन करने का फैसला करती है, तो इसके काफी दूरगामी परिणाम होते हैं.
दरअसल, केंद्र सरकार की तमाम कोशिशों के बावजूद पिछले 20 महीनों में से 19 महीनों में देश का एक्सपोर्ट लगातार गिरावट ही दर्ज करता आ रहा है. ऐसे में माना जाने लगा है कि वाणिज्य मंत्रालय रुपये के अवमूल्यन की संभावना पर वित्त मंत्रालय से चर्चा कर सकता है, ताकि अंतरराष्ट्रीय बाजार में भारतीय सामानों की कीमत दूसरे देशों के मुकाबले कम हो जाएं और एक्सपोर्ट बढ़ाया जा सके. पिछले कुछ समय से एक्सपोर्टरों के दबाव में वाणिज्य मंत्रालय में इस मुद्दे पर विचार-विमर्श होता रहा है.
यहां ये बताना जरूरी होगा कि पिछले साल अगस्त में चीन ने तीन किश्तों में अपनी मुद्रा युआन का अवमूल्यन किया था. चीन ने ये कदम लगातार कमजोर होती अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के मकसद से किया था, क्योंकि साल 2015 में चीन का एक्सपोर्ट 2014 के मुकाबले 8% गिर गया था. उस समय छपी रिपोर्ट के मुताबिक, चीन ने युआन का अवमूल्यन करीब 10% किया था.
हालांकि इकॉनोमिक्स के जानकार बताते हैं कि देश की अर्थव्यवस्था को मजबूती देने के लिए या एक्सपोर्ट को बढ़ावा देने के लिए रुपये का अवमूल्यन सही कदम नहीं है. ये जरूर है कि दूसरे देश की मुद्रा के मुकाबले अगर रुपया महंगा हो, तो यहां के एक्सपोर्टरों के लिए प्रतिस्पर्धा कड़ी होगी, लेकिन, एक्सपोर्ट का बढ़ना सिर्फ रुपये के सस्ते होने पर निर्भर नहीं करता है.
गौरतलब है कि 2004 से 2008 की अवधि में भारत से एक्सपोर्ट सालाना 25% की दर से बढ़ रहा था और इसी दौरान रुपया भी डॉलर के मुकाबले उछाल भरता जा रहा था. 2002-03 में जिस रुपये की कीमत डॉलर के मुकाबले 48.3 थी वो 2007-08 में 40.2 पर पहुंच गया था. लेकिन यहां ये भी याद रखना जरूरी है कि इस अवधि में पूरी दुनिया की इकोनॉमी चरम पर थी.
अगर आज रुपये का अवमूल्यन होता है, तो हो सकता है कि फौरी तौर पर एक्सपोर्ट बढ़ जाए, लेकिन कमजोर रुपया दूसरी मुश्किलें खड़ी करेगा. मसलन जिन कंपनियों ने विदेशों से कर्ज ले रखा है, उनके लिए ब्याज के खर्चे काफी बढ़ जाएंगे. साथ ही देश में होने वाला इंपोर्ट महंगा हो जाएगा. और हमारे इंपोर्ट में सबसे बड़ा हिस्सा कच्चे तेल का है, जिसके महंगा होने का असर देश में पैदा होने वाले हर उत्पाद और सेवा पर होना तय है.
ऐसे में सरकार के लिए घरेलू मोर्चे पर महंगाई को काबू में करना मुश्किल हो जाएगा. और एक बार महंगाई बढ़ी, तो ब्याज दरों में कमी का सिलसिला रुक जाएगा. इसका बुरा असर देश में घरेलू निवेश और कंपनी की विस्तार योजनाओं पर पड़ेगा. कुल मिलाकर रुपये का अवमूल्यन देश की अर्थव्यवस्था के लिए खास अच्छे नतीजे नहीं लाएगा.
भारत में रुपये का पहला बड़ा अवमूल्यन जून 1966 में किया गया था, जब देश की अर्थव्यवस्था चीन और पाकिस्तान के साथ युद्ध और सूखे के असर से चरमरा गई थी. इस अवमूल्यन में केंद्र सरकार ने एक झटके में डॉलर के मुकाबले रुपये की कीमत 57% कम कर दी थी.
जिस डॉलर की कीमत 4.75 रुपये थी, वो इस अवमूल्यन के बाद 7.5 रुपये का हो गया था. हालांकि तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की इस कदम के लिए काफी आलोचना भी हुई थी और इस अवमूल्यन का कोई खास फायदा देश की अर्थव्यवस्था को हुआ भी नहीं था.
देश में दूसरा बड़ा अवमूल्यन हुआ था साल 1991 में, जब देश भुगतान संकट और खाली विदेशी मुद्रा भंडार की समस्या से जूझ रहा था. ये अवमूल्यन 2 चरणों में किया गया था, पहले चरण में 1 जुलाई को रुपये की कीमत 9% और फिर 3 जुलाई को 11% कम कर दी गई थी.
हालांकि ये वही समय था जब आर्थिक सुधार के दूसरे कदम भी उठाए गए थे और इन सभी कदमों का सकारात्मक प्रभाव भारतीय अर्थव्यवस्था पर दिखा था.
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