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सुप्रीम कोर्ट ने 3 जनवरी को एक सुनवाई के दौरान कहा है कि सिनेमा हॉल अपने दर्शकों को सिनेमा हॉल के भीतर खाद्य (food) और पेय (beverage) पदार्थ ले जाने पर रोक लगा सकते हैं. चीफ जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने कहा कि सिनेमा हॉल को खाद्य पदार्थों की बिक्री के लिए नियम और शर्तें तय करने का अधिकार है.
भोजन ऐसी चीज है जो कई लोगों के लिए सिनेमा देखने के अनुभव का एक अभिन्न हिस्सा है फिर भी कई लोगों ने मल्टीप्लेक्स में एफ एंड बी (food and beverage) की जरूरत से ज्यादा कीमतों के बारे में शिकायत की है. आइए जानते हैं आखिर वह कौन सी बात है जिससे थियेटर में मिलने वाला खाना इतना महंगा होता है? आखिर इतने बड़े मार्कअप की जरूरत क्यों है?
मूवी थिएटरों में ऊंची खाद्य कीमतों के पीछे कई वजह हैं:
एक बार जब दर्शक थिएटर्स या सिनेमा हॉल के परिसर में प्रवेश कर जाते हैं तब वहां मार्केट का ऐसा कोई अन्य प्रतिस्पर्धी मौजूद नहीं रहता है जो मार्केट प्राइज में चीजों को बेचने के लिए विवश कर सके. ऐसे में थिएटर ही एकमात्र विक्रेता होता है जो अपने रेट में चीजों को बेचता है.
पीवीआर के अध्यक्ष अजय बिजली ने इकनॉमिक टाइम्स को बताया कि अभी भी भारत में सिनेमाघरों का सिंगल-स्क्रीन से मल्टीप्लेक्स में बदलने का काम चल रहा है. यह देखते हुए कि दोनों (सिंगल-सक्रीन और मल्टीप्लेक्स) को चलाने की लागत अलग-अलग हैं, ऐसे में सिनेमाघरों में परिवर्तन (सिंगल-स्क्रीन से मल्टीप्लेक्स) करने में काफी ज्यादा लागत आती है. उदाहरण के तौर पर मल्टीप्लेक्स में बड़े हॉल और अधिक प्रोजेक्टर सेट-अप होते हैं.
पॉपकॉर्न जैसे प्रोडक्ट्स पर इतने बडे़ मार्कअप की एक अन्य वजह यह भी है कि अधिकांश ग्राहकों के लिए फूड एंड बेवरेज सेकंडरी खर्च (Secondary Spending) होते हैं, जबकि टिकट खरीदना उनका प्राइमरी खर्च (Primary spending) होता है.
हालांकि फिल्म देखते समय खाने-पीने की वस्तुओं का सेवन करना कई लोगों के लिए आम बात होती है, लेकिन यह जरूरी नहीं है कि खाने-पीने की इन वस्तुओं को दर्शक अनिवार्य रूप से खरीदें.
स्टैनफोर्ड जीएसबी और कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय की रिसर्च इस तथ्य का समर्थन करती है कि कई सारे मामलों में, फूड और बेवरेज की कीमतों में वृद्धि से थिएटर को नुकसान में टिकट बेचने की लागत को ऑफसेट (भरपाई) करने में मदद मिलती है.
टिकट की ये कम कीमतें बड़ी संख्या में लोगों को सिनेमाघरों की ओर आकर्षित करती हैं, ऐसे में थिएटर्स में भीड़ बढ़ती है.
भले ही मूवी थियेटर को कंपटीशन का सामना नहीं करना पड़ता है, फिर भी एक बार जब लोग थियेटर में प्रवेश कर जाते हैं तब भी लोगों को सीटों पर बैठाने की बात होती है, खासकर जैसे-जैसे ओटीटी आगे बढ़ रहा है.
कोविड महामारी का थिएटर बिजनेस पर काफी नकारात्मक प्रभाव पड़ा है, क्योंकि लॉकडाउन की वजह से थिएटर्स बंद हो गए थे, वहीं नेटफ्लिक्स और हॉटस्टार जैसे ओटीटी प्लेटफार्म्स पर कंटेंट में बड़ा बदलाव हुआ. इसकी वजह से अब लोगों को थिएटर का ऑप्शन (विकल्प) मिल गया है.
थिएटर का दूसरा विकल्प विकसित होने की वजह से लोगों के बीच विज्ञापन के माध्यम से यह प्रचारित-प्रसारित करने की कोशिश हो रही है कि जो अनुभव (एक्सपीरियंस) सिनेमा हाल या थिएटर्स में मिलता है उसे लिविंग रूम में रीक्रिएट नहीं किया जा सकता है.
मूवी एक्सपीरियंस के लिए जो विज्ञापन कॉस्ट होती है और हाइली पेड ए-लिस्ट स्टार्स की फीस के साथ थिएटर्स जो फिल्में दिखाते हैं, वे उपभोक्ताओं की जेब में ज्यादा भारी पड़ती हैं.
भले ही सुप्रीम कोर्ट का हलिया फैसला इस बात का संकेत है कि जल्द ही कुछ भी नहीं बदलने वाला है, लेकिन कम से कम अगली बार जब आप पॉपकॉर्न के लिए 400 रुपये का भुगतान कर रहे होंगे, तब आपके पास बेहतर जानकारी होगी.
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