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पीएम नरेंद्र मोदी की चीन यात्रा चर्चा में है. मोदी को जून में शंघाई को-ऑपरेशन ऑर्गेनाइजेशन (SCO) की बैठक में हिस्सा लेने जाना है. फिर अप्रैल में जिनपिंग से अनौपचारिक कही जाने वाली इस बैठक में हिस्सा लेने क्या मतलब है. जिनपिंग का भी आधा चीन पार कर वुहान में मोदी से मिलने का क्या सबब है? क्या भारत-चीन रिश्तों से डोकलाम विवाद की फांस निकल गई है. क्या मोदी-जिनपिंग मुलाकात के बाद भारत-चीन के रिश्तों की राह खुशगवार हो जाएगी? इन तमाम सवालों को जवाब जानिये सिर्फ 6 कार्ड में.
पिछले साल डोकलाम में जिस तरह भारत और चीन के बीच तनातनी से रिश्ते खराब हुए थे, उसे लेकर चीनी नेतृत्व में कहीं न कहीं यह अहसास है कि यह दोनों के हित में नहीं है. लिहाजा सोच यह है कि अब रिश्तों को री-सेट किया जाए. जेएनयू में पूर्वी एशियाई अध्ययन विभाग की प्रोफेसर अलका आचार्य के मुताबिक दोनों देशों के बीच विकास को लेकर एक सकारात्मक सोच बनी है. वे अपनी-अपनी सैन्य ताकत के बूते भिड़ंत नहीं चाहते. चीन को लगता है कि अपनी आर्थिक महत्वाकांक्षाएं पूरी करने के लिए भारत से अच्छा बाजार नहीं मिलेगा तो भारत चाहता है कि चीन से अच्छे रिश्ते घरेलू मोर्चे पर मौजूदा सरकार को राहत दिलाएगी ताकि वह विकास कार्यों पर ध्यान दे सके.
हालांकि 'चाइना रिपोर्ट' के एसोसिएट एडिटर रह चुके जबिन टी जेकब का कहना है कि मोदी की चीन यात्रा के घरेलू राजनीतिक कारण हैं. इस साल कई राज्यों के चुनाव हैं और अगले साल लोकसभा चुनाव. अगर इस दौरान चीन के साथ डोकलाम विवाद पैदा होगा तो देश में यह संदेश जाएगा कि खुद को विदेश नीति के मोर्चे पर मजबूत कही जाने वाली बीजेपी सरकार से चीनी मामला नहीं संभल रहा है. यही पहलू पीएम मोदी को चीन को शांत बनाए रखने की कोशिश के लिए प्रेरित कर रहा है. इंस्टीट्यूट ऑफ चाइनीज स्टडीज के असिस्टेंट डायरेक्टर अरविंद येलेरी का भी कहना है नरेंद्र मोदी और चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग की इस मुलाकात का मकसद डोकलाम से खराब हुए रिश्तों को नॉर्मल करने की कोशिश है. सीमा विवाद को लेकर भारत के साथ चीन बहुत लचीलापन दिखाएगा इसकी उम्मीद नहीं है.
अलका आचार्य की नजर में भारत और चीन, दोनों की लीडरशिप की सीमा को लेकर अपने विचार और मतभेद हैं. इसी वजह से डोकलाम जैसी स्थिति आई और लगता नहीं कि सीमा को लेकर दोनों नेतृत्व की मानसिकता में कोई ठोस बदलाव होगा. जबिन टी जेकब का कहना है कि बातचीत से सीमा पर विवाद पर रुक जाएंगे, इसकी संभावना कम है. वह कहते हैं- डोकलम में हालात हमारे पक्ष में थे. लेकिन वास्तविक नियंत्रण रेखा के दूसरे इलाकों में ऐसी स्थिति नहीं है.
इन इलाकों में चीन का इन्फ्रास्ट्रक्चर काफी अच्छा है हमारे लिए यहां उसे जवाब देना मुश्किल होगा. सीमा को लेकर दोनों देशों को जो नजरिया फिलहाल है, उससे सीमा विवाद इतनी आसानी से सुलझता नहीं दिखता. अरविंद येलेरी का कहना है कि ऐसी परिस्थिति नहीं है कि सीमा को लेकर नरेंद्र मोदी की बात मानी जाए. चीन के घरेलू मोर्चे पर काफी जोखिम हैं और राजनीतिक नेतृत्व पर दबाव है. ऐसे में चीनी नेतृत्व भारतीय पक्ष को कोई छूट देने का लचीला रवैया अपना कर जोखिम मोल नहीं लेगा.
चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग की अति महत्वाकांक्षी परियोजना बेल्ट रोड इनिशिएटिव पर दोनों ओर से नया रुख दिख सकता है. अलका आचार्य कहती हैं कि भारत के साथ उसका रुख ऐसा रहेगा जिससे बेल्ट रोड इनिशिएटिव को आगे बढ़ाया जा सके. जबिन टी जेकब कहते हैं कि हमने बेल्ट रोड इनिशिएटिव के खिलाफ बेहद आक्रामक रुख अपनाया. हमें इसका फायदा उठाना चाहिए था. हम संप्रभुता से समझौता करने के लिए नहीं कह रहे हैं. इसके बगैर भी उसकी कुछ परियोजनाओं में शामिल हुआ जा सकता था ताकि इन्फ्रास्ट्रक्चर विकास में उसके निवेश का फायदा मिले. हालांकि अरविंद येलेरी का कहना है कि बीआरआई को लेकर हमारा स्टैंड क्लियर है.
पीओके में इन्फ्रास्ट्रक्चर को भारत नहीं मानेगा. इससे इसकी सार्वभौमिकता को नुकसान है. यह चीन को भी मालूम है. लिहाजा उसकी तरफ से दो-तीन प्रपोजल आ सकते हैं. इसमें कनेक्टिविटी के मद्देनजर कुछ इन्फ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट में भारत को शामिल किया जाएगा. कुछेक के नाम बदल देंगे या फिर भारत से अफ्रीका में चल रहे चीन के प्रोजेक्ट में सहयोगी की भूमिका निभाने की अपील की जा सकती है.
जबिन टी जेकब कहते हैं कि भारत के लिए जरूरी निवेश सिर्फ चीन से आएगा. हमें चीनी निवेश को लेकर ओपन रहना होगा. हम ओपन रहेंगे तो चीन निवेश करेगा. चीन बहुत स्पीड से काम कर सकता है. मेक इन इंडिया को चीन के निवेश से ही रफ्तार मिलेगी. मेक इन इंडिया के नाम पर एमओयू हुए हैं लेकिन निवेश आया नहीं. सरकार के आंकड़ों में ग्रोथ है लेकिन नौकरियां नहीं हैं. रोजगार के लिए मैन्यूफैक्चरिंग चाहिए.
मैन्यूफैक्चरिंग और इन्फ्रास्ट्रक्चर विकास में निवेश सिर्फ चीन दे सकता है. अरविंद येलेरी का मानना है कि चीन को भारत की जरूरत ज्यादा है. भारत की उस पर निर्भरता कम है. भारत सुपरपावर नहीं है लेकिन इसमें काफी संभावना है. चीन जो जगह खाली कर रहा है खास कर मैन्यूफैक्चरिंग में उसे भरने की भारत में काफी संभावना है. इस लिहाज से भी चीन के लिए भारत अहम है.
वैश्विक आर्थिक हालात में भी भारत की भूमिका चीन के लिए अहम है.अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों में चीन को भारत के समर्थन की बहुत जरूरत है. चाइनीज करेंसी Renminbi का आईएमएफ के बास्केट में शामिल होने में भारत का बड़ा समर्थन रहा है. भारत चीन का अहम ट्रेडिंग पार्टनर है. ऐसे में वह भारत से अंतरराष्ट्रीय मोर्चे पर तालमेल दिखाना चाहेगा. डब्ल्यूटीओ, और जलवायु परिवर्तन के मोर्चे पर वह भारत के साथ साझेदारी कर चुका है. ऐसे में, चीन चाहेगा कि भारत से रिश्ते सुधरे. जून में वहां एससीओ की बैठक है. सितंबर में अफ्रीकी देशों के साथ बैठक है. दिसंबर में डावोस मे एक और अंतरराष्ट्रीय आर्थिक जमावड़ा है. चीन चाहेगा कि इन मंचों पर भारत और उसका रुझान एक दिखे. चीन अब निवेश को लेकर उदारीकरण की एक नई नीति अपना रहा है. पहली बार चीन बाहर के देशों के लिए- कुछ क्वालिफाइड एरिया में सॉवरेन फंड खरीदने की इजाजत दे रहा है. इंश्योरेंस सेक्टर खोलने जा रहा है. हमने 1999 में यह कर दिया था.
चीन ऑटोमोबाइल सेक्टर खोल कर रहा है ताकि 80 फीसदी तक बाहरी निवेश हो सके. चीन महिंद्रा, टाटा और किर्लोस्कर को अपने बाजार में मौका देने वाला है. ये भारत के इंटरेस्ट में है. भारत और चीन के बीच कारोबारी संघर्ष कम करने की कोशिश हो रही है. डोकलाम के बाद भी निवेश आना घटा नहीं है. हाल के दिनों में निवेश बढ़ा है. चीनी कंपनी ज्यादा आ रही हैं. पहले इन्फ्रास्ट्रक्चर में आती थीं. ट्रेड में आते थे. अब एग्रीकल्चर प्रोडक्ट में आने की कोशिश कर रही हैं. सर्विस सेक्टर में आ रही हैं. हार्वेस्टिंग मशीन बेचने की कोशिश कर रही हैं. मेडिकल सेक्टर में चीन में निवेश जा सके इस पर भारत का दबाव है. इस पर भी चीनी नियमों को ढील देने के संकेत है. कहने का मतलब यह है कि दोनों देश अपने साझा कारोबारी हितों को पहचान रहे हैं. खास कर अमेरिका से ट्रेड वॉर बढ़ने की आशंका के बाद चीन का भारत की ओर रुझान और सकारात्मक हुआ है. भारत में ताइवान, द. कोरिया और जापान से निवेश आ रहा है. चीन भी भारत में निवेश बढ़ाना चाहता है.
अरविंद येलेरी का कहना है कि भारत की क्षमता के बारे में चीन को पता है. भारत अंतरराष्ट्रीय मंच पर कुछ चीजों को प्रभावित कर सकता है इसलिए वह भारत का समर्थन चाहता है. लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि हिंद महासागर और दक्षिण चीन सागर में उसकी पॉलिसी बदल जाएगी. भारत और चीन दोनों का नजरिया अंतरराष्ट्रीय नियमों, मानकों को लेकर अलग-अलग है. हमारी नीति में निरंतरता है. विदेश नीति को लेकर एक स्थायित्व रही है. लेकिन चीन का नजरिया बदलता रहता है. समुद्री नियमों को लेकर, खास जगहों पर गतिविधियों के संबंध में, समुद्र में गतिविधियों को लेकर हमारा चीन से अलग नजरिया है.
डब्ल्यूटीओ, पर्यावरण आदि मामलों में चीन भारत के साथ है लेकिन कई मामलों पर नहीं. वह संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा के परिषद के विस्तार और एनएसजी की सदस्यता के मामले में भारत के साथ नहीं है. चीन का ये जो सेलेक्टिवनेस है, वह समस्या पैदा करता है. उम्मीद नहीं मोदी-जिनपिंग की इस बैठक के बाद चीन के इस सेलेक्टिवनेस पर कोई फर्क पड़ेगा. लेकिन अगर मोदी इन मामलों में चीन के रुख की ओर से इशारा करता है तो हो सकता है वह इस पर गौर करने की शुरुआत करे.
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