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जो लोग अपने परिवार के किसी सदस्य, दोस्त या साथी के बीमार, कमजोर या अक्षम होने पर बिना वेतन या पैसों के उनकी देखभाल करते हैं, उन्हें केयरगिवर्स (Caregivers/carers) कहा जाता है.
हाल के दिनों में कैंसर तेजी से एक बड़े खतरे के रूप में सामने आ रहा है. कैंसर की वजह से ना सिर्फ पीड़ित बल्कि उसके परिवार और दोस्तों की भी जिंदगी में बदलाव आ जाते हैं. मरीज के साथ उसके अपनों को भी दर्द और चिंता के दौर से गुजरना पड़ता है.
कैंसर की पहचान के साथ ही तमाम तरह के टेस्ट और ट्रीटमेंट का सफर, लास्ट स्टेज और मृत्यु की ओर बढ़ना, पेशेंट और उसके करीबियों के लिए इन शारीरिक, वित्तीय और भावनात्मक कष्टों का कोई अंत नहीं होता.
कैंसर रोगी की देखभाल कभी अकेले नहीं हो सकती है और ना ही सिर्फ अस्पताल के माहौल में हो सकती है. कैंसर के लिए स्थापित और बेहतरीन अस्पताल पीड़ित को जरूरी मेडिकल और शुरुआती साइकोलॉजिकल सपोर्ट दे सकते हैं.
हालांकि, रोगी के शारीरिक और भावनात्मक जख्म को भरने के लिए घर पर हर वक्त उनके आसपास सपोर्ट के लिए लोगों की मौजूदगी जरूरी होती है और यहीं पर केयरटेकर्स या यूं कहें कि देखभाल करने वालों की जरूरत होती है.
दुनिया भर में, इस तरह के मामले में एक आम पैटर्न है, जिसमें देखभाल करने वाला ज्यादातर परिवार का कोई सदस्य या दोस्त होता है.
कैंसर रोगी की देखभाल करने वाले को कई तरह की भूमिका निभानी पड़ती है. जिसमें रोगी के रोजमर्रा के कामों में मदद, रोगी के जरूरत की चीजों की शॉपिंग और भोजन की तैयारी जैसे काम शामिल हैं.
वे रोगी को अस्पताल ले जाने के लिए अप्वाइंटमेंट की बुकिंग और अस्पताल पहुंचने के लिए वाहन का इंतजाम करने में मदद करते हैं. कुछ देखभाल करने वाले रोगी के घाव की ड्रेसिंग और कुछ मामलों में इंजेक्शन और आई/ वी फ्लूइड का प्रबंध करके नर्सिंग सपोर्ट भी देते हैं.
इसका उनके जीवन की गुणवत्ता और उनके नियमित काम/ नौकरी पर काफी प्रभाव पड़ता है.
हालांकि, देखभाल करने वाले को विभिन्न देशों में मदद या सपोर्ट मिलने के मामले में बड़ी विसंगति दिखती है.
पश्चिमी दुनिया में, रोगी की देखभाल को एक दायित्व की बजाए औपचारिक व्यवस्था के रूप में माना जाता है. वहां देखभाल करने वालों की जरूरतों को ध्यान में रखते हुए सामाजिक सहायता की पुख्ता व्यवस्था है, जिसे सरकार से वित्तीय सहायता मिलती है. केयरगिवर्स को यहां फिजिकल, इमोशनल, मेडिकल और कुछ हद तक फाइनेंसशियल बैकअप के जरिए मदद दी जाती है.
शारीरिक राहत और सहायता कई बार बहुत जरूरी होती है. इसके लिए, देखभाल करने वाले सामाजिक कार्यकर्ता की सेवा नामांकित कर सकते हैं, जो नहाने/ ड्रेसिंग जैसे कार्यों में मदद कर सकते हैं.
उन रोगियों के लिए जो गंभीर रूप से बीमार होते हैं, जिन्हें इंजेक्शन लगाए जाने की जरूरत होती है या कैंसर के ऐसे मरीज जिनकी ड्रेसिंग होनी रहती है, ऐसे में वहां एक जनरल फिजिशियन और सामुदायिक नर्स सिस्टम होता है, जो रोगी की मूल चिकित्सा मांगों को पूरा करने में मदद करता है.
देखभाल करने वाले सरकारी और गैर-सरकारी संगठनों की सेवाएं ले सकते हैं, जो उन्हें हर कदम पर गाइड (मार्गदर्शन) कर सकते हैं.
ये सेंटर दर्द और बीमारी के दूसरे लक्षणों से राहत दिलाने, मरीज और उसकी फैमिली को सपोर्ट देने और देखभाल करने वालों को ब्रेक देने का काम करते हैं. हॉस्पिस की सेवाएं मुफ्त होती हैं और यहां किसी को बीमारी की पहचान के बाद से जिंदगी के आखिरी दौर के दौरान किसी भी वक्त ले जाया जा सकता है.
दुर्भाग्यवश, ऊपर जितने सिस्टम के बारे में बताया गया है, उनमें से कोई भी व्यवस्था भारत में नहीं है.
ऐसे में परिवार के सदस्य ही मरीज की देखभाल करते हैं, जिन्हें बीमारी या इसके प्रभाव के बारे में ज्यादा समझ नहीं होती. अफसोस की बात ये है कि उन्हें गाइड करने के लिए बहुत कम मदद मिलती है.
ज्यादातर भारतीय शहरों में एक्टिव कैंसर केयर संगठन होता है, लेकिन उनके सीमित संसाधनों के कारण, वे केवल कुछ हद तक ही मदद कर सकते हैं.
यहां तक कि ज्यादातर मिडिल क्लास फैमिली के लिए भी कैंसर पेशेंट के इलाज का खर्च बोझ बन जाता है. समाज के गरीब वर्ग के लिए, जिनकी आबादी अधिक है, उनके लिए ये हालात और भी मुश्किल हो जाते हैं. ऐसे में अगर परिवार में कमाने वाला सदस्य ही मरीज की देखभाल करता है, तो निश्चित रूप से उसके काम और आय पर भी असर पड़ता है.
एक निजी अस्पताल में रोगी की देखभाल करने वाले ज्यादातर समृद्ध वर्ग से आते हैं, उनके लिए धन महत्वपूर्ण चिंता का विषय नहीं हो सकता है.
हालांकि, आम तौर पर बीमारों की देखभाल के लिए व्यवस्थित दृष्टिकोण के मामले में जिन चुनौतियों का सामना करना पड़ता है, वे आम जनता में बराबर हैं. अफसोस की बात है कि परिवारों की मदद या मार्गदर्शन करने के लिए शायद ही कोई सरकारी या निजी एजेंसियां हैं.
जानकारी की कमी चिंता को बढ़ाती है. इस बीमारी से गंभीर रूप से पीड़ित मरीज में सुधार की क्या अपेक्षा की जानी चाहिए और इन रोगियों में पैदा होने वाली चिकित्सीय समस्याओं को संभालने के बारे में बहुत कम जानकारी होती है.
देखभाल करने वाले को भी एक डर का अनुभव होना शुरू हो जाता है कि उससे इमरजेंसी की स्थिति को पहचानने में चूक ना हो जाए या उन्हें ऐसा लगने लगता है कि वो रोगी को उचित तरीके से मदद करने में सक्षम नहीं हैं.
इस समय व्यापक तौर पर जानकारी अभियान चलाए जाने की जरूरत है.
(डॉ कंचन कौर ब्रेस्ट सर्विसेज, मेदांता के कैंसर संस्थान की एसोसिएट निदेशक हैं.)
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Published: 28 Dec 2018,10:55 AM IST