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खून से लथपथ एक कमरा, मैं उस कमरे में जाते ही सबको गोलियों से भूनने लगती हूं, गोलियां कभी दीवार के पार निकल जातीं तो कभी किसी सिपाही को लग जातीं, गोली लगते ही वो सिपाही चारों खाने चित हो जाता है, मैं बहुत घबरा जाती हूं. क्योंकि इससे पहले मैंने किसी इंसान को क्या किसी मच्छर को भी नहीं मारा था. घबराहट में मुझसे बंदूक चलना बंद हो जाती है. इतने में दुश्मन सिपाही की गोली आ कर मुझे लग जाती है और मैं मर जाती हूं.
ये वो दिन था जब अपने छोटे भाई के चौबीस घंटे लगातार कंप्यूटर के सामने बैठे रहने पर मैंने सवाल किया और उसने मुझे गेम खेलने के लिए कहा. पहले तो मैंने मना कर दिया, लेकिन उसकी जिद की वजह से बैठ गई. वॉयलेंट गेम की वजह से थोड़ी देर के लिए जब मैं सुन्न हो गई तो कान में आवाज आई - अप्पी यू आर डेड. .योर गेम इज ओवर.
घर में उस वक्त बस एक लैपटॉप था और वो मुझसे अक्सर अलग-अलग गेम के नाम लेकर डाउनलोड करने के लिए कहता और मैं मना कर दिया करती.
उसने पापा से बहुत जिद कर के महंगे ग्राफिक कार्ड वाला कंप्यूटर खरीदवाया था. ये तो बस शुरुआत थी.धीरे-धीरे एक सुलझा हुआ बच्चा चिड़चिड़ा और गुस्सैल हो गया. पढ़ाई-लिखाई से दूर होने लगा. मंहगे गेम और महंगे ग्राफिक कार्ड पर पैसे पानी की तरह बहाने लगा. गेम खेलने के नशे में उसे न दिन का पता होता न रात का. डेली रूटीन की जगह गेम ने ले ली थी. पापा गुस्से में कभी-कभी उस पर हाथ भी उठाने लगे, लेकिन उसे कहां होश आने वाला था. उसने अपनी एक ऐसी दुनिया बना ली थी जहां बस वो और उसके गेम कैरेक्टर्स थे.
स्कूल, सोशल सर्कल, घर में बात-चीत, डेली रूटीन सब पर असर पड़ा था. रिश्तेदारों ने ये तक कहना शुरू कर दिया कि आप का लड़का बिगड़ गया है, लेकिन सिर्फ हम लोग ये समझ रहे थे कि एक नॉर्मल बच्चा अचानक नहीं बिगड़ सकता है.मैं दिल्ली में और मेरी फैमिली पूर्वी उत्तर प्रदेश में रहती थी तो भाई की वजह से मैंने 2014 में फैमिली को भी दिल्ली बुला लिया.
दिल्ली आने के बाद सबसे पहले एक जाने मानें मेंटल हेल्थ हॉस्पिटल में अपने भाई को दिखाया. डॉक्टर ने बायपोलर बताकर भाई की दवाएं शुरू कर दीं.दवाओं का ये असर हुआ कि उसे बस नींद आने लगी. उसका गुस्सा और बढ़ गया. हमने दवाओं का उल्टा असर देख इन्हें बंद कर दिया.
मैंने भाई के केस पर रिसर्च करना शुरू किया तो ये पता चला कि भाई की जो परेशानी थी उसे ‘गेमिंग एडिक्शन’ कहते हैं. भारत में 2014 तक ऐसे बहुत कम केस थे और इस एडिक्शन के इलाज के लिए डॉक्टर भी बहुत कम थे.
मैं अक्सर उसके साथ गेम खेलने बैठ जाती थी, उससे गेम पर बात करने लगी, उसकी वर्चुअल दुनिया में जा कर उसे वापस लाने की कोशिश करती रही. मैं दोस्त बन के उसका भरोसा जीतने लगी.
प्यार से कहने से उसने भी सुनना शुरू किया. हमने कभी उम्मीद नहीं छोड़ी. उसके साथ प्यार और स्पोर्ट हमेशा रखा ताकि उसे अपनी दुनिया में वापस ला पाएं.
साल 2018 का आधा वक्त गुजर चुका है. अब भाई में काफी बदलाव दिख रहा है. उसने गेम खेलना बंद तो नहीं लेकिन कम जरूर कर दिया है. उसने 10वीं का इम्तहान भी अच्छे नंबरों से पास किया है. दोस्त भी बनाए हैं और बाहर घूमने भी जाता है. भविष्य में एक गेम या ग्राफिक डिजाइनर बनना चाहता है. हमारी उम्मीदें अब उससे बढ़ गई हैं. हमें भरोसा है कि जल्द ही वह अपनी उम्र के दूसरे बच्चों की तरह अपनी पुरानी जिंदगी में लौट आएगा.
उसके हालात बेहतर करने में जिन चीजों ने मदद की वो हैं.
मेरा और मेरे परिवार का अब तक का अनुभव यह रहा है कि ऐसे बच्चों या बड़ों से गुस्से में बात करने से केस और खराब होने का खतरा रहता है. इसलिए जितना हो सके प्यार से स्थिति को संभाले और अगर दवा से इलाज करना चाहते हैं तो साइबर एडिक्शन या गेम एडिक्शन विशेषज्ञ से ही इलाज कराएं.
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Published: 22 Jun 2018,05:57 PM IST