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बिहार के सारण में मवेशी चोरी के आरोप में तीनों लोगों को गांव वालों ने पकड़ा और तब तक पीटते रहे जब तक उनकी जान नहीं चली गई.
चोरी के संदिग्ध आरोपित एक मुस्लिम शख्स को कथित तौर पर जय श्रीराम का नारा लगवाने के बाद भीड़ द्वारा पीट-पीट कर मार डाला जाता है. झारखंड में सात लोगों को वाट्सएप पर फॉरवर्ड मैसेज, जिसमें दावा किया गया है कि ये बच्चे चुराने वाले हैं, मिलने के बाद पीटकर मार डाला जाता है.
एक अफवाह, वाट्सएप पर फॉरवर्ड एक मैसेज से लोगों का कोई ग्रुप किसी की जान ले लेता है- आरोप की पुष्टि करने की कोई कोशिश किए बिना.
FIT ने ये समझने के लिए कि समूह में लोगों को इस तरह बिना सोचे-समझे बर्बर और उत्पाती हरकत के लिए कौन सी चीज प्रेरित करती है, जसलोक हॉस्पिटल एंड रिसर्च सेंटर की कंसल्टेंट साइकोलॉजिस्ट रितिका अग्रवाल मेहता और क्लीनिकल एंड फोरेंसिक साइकोलॉजिस्ट व ‘माइंड मंडला’ की सह-संस्थापक हवोवी हैदराबादवाला से बात की.
कानून हाथ में ले लेना एक चरम स्थिति है, लेकिन इस तरह समूह से प्रभावित व्यवहार के बहुत ही सरल उदाहरण भी हैं. लेटेस्ट नेटफ्लिक्स सीरीज को इसलिए देखना क्योंकि हर कोई इस पर चर्चा कर रहा है, एक खास शेयर में निवेश करना क्योंकि हर कोई इसमें निवेश कर रहा है, फटी जींस खरीदना क्योंकि हर कोई उन्हें पहन रहा है- ये सभी एक ही व्यवहार के अलग-अलग पहलू हैं.
ऐसे मामलों में, व्यक्ति ऐसे काम कर गुजरता है, जो वो अन्यथा नहीं करता.
रितिका अग्रवाल मेहता बताती हैं कि इस भीड़ में लोग हमेशा तर्कसंगत रूप से नहीं सोचते हैं.
हैदराबादवाला कहती हैं, “यह मुख्यतः एक भावनात्मक जुड़ाव है, जो एक समूह और व्यक्ति के बीच पैदा होता है.”
साउथ सोर्स (साउथ यूनिवर्सिटी का एक पब्लिकेशन) में पब्लिश एक लेख के अनुसार, “जब लोग एक समूह का हिस्सा होते हैं, तो वे अक्सर आत्म-ज्ञान, या आत्म-बोध हीनता का अनुभव करते हैं. जब लोगों में आत्म-बोध नहीं रह जाता है, तो उनके सामान्य प्रतिबंधों और रुकावटों का पालन करने की कम संभावना होती है और व्यक्तिगत पहचान की भावना छोड़ देने की संभावना अधिक होती है. ”
यूनिवर्सिटी ऑफ लीड्स के वैज्ञानिकों ने पाया कि मनुष्य भेड़-बकरियों की तरह झुंड बनाते हैं, अवचेतन रूप से व्यक्तियों के अल्पमत समूह का अनुसरण करते हैं.
शोध के निष्कर्ष बताते हैं कि जैसे-जैसे भीड़ में लोगों की संख्या बढ़ती है, वैसे-वैसे समझदार व्यक्तियों की संख्या घटती जाती है.
एक अन्य अध्ययन में, शोधकर्ताओं ने इस बात पर ध्यान केंद्रित किया कि ‘भीड़’ का हिस्सा बनने की हमारी स्वाभाविक इच्छा हमारी स्वतंत्र निर्णय लेने की क्षमता को किस तरह नुकसान पहुंचा सकती है.
“एक्सेटर यूनिवर्सिटी के नेतृत्व में हुए शोध से पता चला है कि इंसान खुद की समझ पर भरोसा करने की बजाए अपने पड़ोसियों से प्रभावित होने के लिए बने हैं. नतीजन, समूह अपने प्राकृतिक वातावरण में परिवर्तन को लेकर कम ख्वाहिशमंद होते हैं.”
साइंस डेली की एक रिपोर्ट में शोध के मुख्य लेखक यूनिवर्सिटी ऑफ एक्सेटर के डॉ कॉलिन टॉरनी के हवाले से कहा गया है कि सामाजिक प्रभाव प्रकृति और समाज में एक प्रभावशाली कारक है.
सामाजिक मनोविज्ञान की एक पूरी शाखा भीड़ के व्यवहार पर केंद्रित है और यह उन व्यक्तियों से एकदम अलग होते हैं, जो भीड़ में शामिल होते हैं. फ्रांसीसी सामाजिक मनोवैज्ञानिक गुस्ताव ले बॉन ने, जो कि ‘क्राउड साइकोलॉजी’ के क्षेत्र के अग्रणी विद्वान हैं, ने अपनी किताब ‘द क्राउड: ए स्टडी ऑफ द पॉपुलर माइंड’ में इस विषय की पड़ताल की है.
Independent.ie में छपे एक लेख में इनमें से कुछ बिंदुओं पर विस्तार से चर्चा की गई है.
“उनका मानना था कि व्यक्ति भीड़ में डूब जाता है और व्यक्तिगत जिम्मेदारी का एहसास खो बैठता है. वह डूबी हुई हालत में, छूत की बीमारी की तरह भीड़ के मुख्य विचार या भावना का बिना सवाल पूछे पालन करता है.”
बेशक, उनके कुछ सिद्धांतों को नकारा जाता है, लेकिन कई का अन्य शोधकर्ताओं जैसे फिलिप जिंमार्डो, जेननेस और सोलोमन एश द्वारा किए गए प्रयोगों के साथ समर्थन किया गया है.
Psychology Today में अनुरूपता को इस तरह परिभाषित किया गया है, “हमारे दृष्टिकोण, आस्था और व्यवहार को हमारे आसपास के लोगों के साथ एक करने की प्रवृत्ति.”
रितिका मेहता के अनुसार, हम जिस आसानी से एक समूह के हिस्से के रूप में जिम्मेदारी से बच सकते हैं, उससे इस तरह की प्रवृत्ति को समझा सकता है.
इसके अलावा, हम इसे त्वरित निर्णय लेने के लिए एक मंसूबे के रूप में विकसित करते हैं. यह हमें बचपन से ही सिखाया जाता रहा है. हमें एकदम शुरू से ही प्रशिक्षित, संवारा और निर्देशित किया गया है. मेहता के शब्दों में, “जब आपके माता-पिता ने आपको कुछ बताया, तो आपने उन पर यकीन कर लिया क्योंकि आप मान कर चलते थे कि वे सही ही होंगे.”
किसी चीज को लेकर किसी शख्स के मन में मामूली से यकीन, असमंजस या शक के कारण भी यह प्रवृत्ति आ सकती है. ऐसे मामले में सोचने, पड़ताल करने या जांच करने की बजाए, वह सिर्फ दूसरों का अनुसरण करता है- फिर से, ऐसा इसलिए होता है क्योंकि यह आसान है.
नतीजन, जब एक जैसी विचारधारा वाले लोग एक साथ आ जाते हैं, तो वे एक-दूसरे की विचारधाराओं और आस्थाओं को मजबूत करते हैं, और अंतिम नतीजा चीजों के बारे में ज्यादा सघन, स्थिर और निश्चित मानसिकता है.
हैदराबादवाला बताती हैं, एक अन्य प्रमुख कारण ‘जुड़ाव की भावना’ है, जिसके कारण इंसान एक निश्चित समूह के साथ खुद को एकाकार करता है.
मेहता कहती हैं, "वास्तव में, कुछ शोधों में पाया गया है कि दिमाग का एक हिस्सा, जो निर्णय लेने से संबंधित होता है, उस समय थोड़ा निष्क्रिय होता है."
कई मामलों में, लोग बस वही दोहराते हैं जो वे देखते हैं.
दूसरों का आंख बंद करके अनुसरण करना या सिर्फ ‘हवा के साथ चलना’ फायदेमंद हो सकता है, जैसे कि आपात स्थिति में घटनास्थल से भागने के दौरान होता है या ऐतिहासिक क्रांतियों में था. हालांकि, भीड़ की हिंसा या आतंकवाद जैसे कई अन्य मौकों पर, यह लोगों से उनकी पहचान छीन सकता है और उन्हें मात्र कठपुतलियों में बदल सकता है.
मनुष्य हालांकि स्वाभाविक रूप से अनुसरण करने का इच्छुक हो सकता है (जैसा कि विभिन्न अध्ययनों ने बार-बार साबित किया है), लेकिन किसी का अपनी मान्यताओं और नैतिकता को कायम रखना या इसके लिए लड़ना भी संभव है- यहां तक कि कठिन परिस्थितियों में भी.
मेहता आत्म-ज्ञान प्राप्त करने के लिए कई कदम उठाने का सुझाव देती हैं. उनके शब्दों में,
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Published: 02 Jul 2019,03:39 PM IST