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दिल्ली के सरकारी हॉस्पिटल में ‘हैप्पीनेस थेरेपी’ कारगर साबित होगी?

हाल ही में दिल्ली के गुरु तेग बहादुर हॉस्पिटल में ‘हैप्पीनेस थेरेपी’ का प्रयोग शुरू किया गया है.

डॉ शिबल भारतीय
फिट
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दिल्ली के सरकारी अस्पताल, जहां मरीजों की तादाद बहुत हो, वहां हैप्पीनेस थेरेपी कैसे काम करेगी?
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दिल्ली के सरकारी अस्पताल, जहां मरीजों की तादाद बहुत हो, वहां हैप्पीनेस थेरेपी कैसे काम करेगी?
(फोटो: iStock)

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हाल ही में दिल्ली सरकार के गुरु तेग बहादुर अस्पताल ने ‘हैप्पीनेस थेरेपी’ का प्रयोग शुरू किया है. इसने एक बार फिर उस अंतर पर जोर दिया कि हमारे नीति निर्माता क्या करने के लिए तैयार हैं और जमीनी तौर पर उन्हें क्या करने की जरूरत है.

दिल्ली के स्वास्थ मंत्री सत्येंद्र जैन ने गुरु तेग बहादुर (जीटीबी) अस्पताल में इस पायलट प्रोजेक्ट की शुरुआत मैटरनिटी वॉर्ड से की. रोगियों के जल्द ठीक होने और उनके स्वास्थ्य में तेजी से सुधार के लिए इसे दूसरे विभागों में भी शुरू किया जाएगा. इमरजेंसी और आईसीयू को इससे अलग रखा गया है. इस कार्यक्रम का मकसद रोगियों के अनुभवों में सुधार और डॉक्टरों व सहयोगी स्टाफ के साथ मरीजों के रिश्तों को बेहतर बनाना है.

बिना सोचे-समझे और जल्दबाजी में शुरू किए प्रयोग को सत्ता का बौद्धिक दिवालियापन ही कहा जा सकता है. वास्तव में जिनके पास हेल्थकेयर देने की जिम्मेदारी है और जिन्हें जमीनी तौर पर इसे प्रदान करना है, उनके बीच सामंजस्य का ऐसा अभाव है, जिसे खत्म करना मुश्किल है.

हॉस्पिटल में लॉजिस्टिक्स की रियल टाइम निगरानी

अधिकतर सार्वजनिक हेल्थकेयर सिस्टम के बारे में जो सच्चाई है और विशेष रूप से भारत में कि उन्हें सीमित संसाधनों में तेजी से बढ़ रही आबादी की असीमित मांग को पूरा करना होता है. हेल्थ केयर डिलिवरी सिस्टम के बारे में कोई भी निर्णय, विशेष रूप से उन अस्पतालों जिन पर रोगियों का अधिक बोझ है, दुर्लभ संसाधनों का कुशल आवंटन बेहद सोच-समझ करना चाहिए. डॉक्टरों और हेल्थकेयर वर्कर्स निश्चित रूप से अत्यधिक दबाव वाले संसाधनों के प्रति जिम्मेदार होते हैं.

अगर आप कभी दिल्ली के अस्पतालों में गए हैं, तो आपको वहां लोगों का सैलाब दिखाई देगा. रोगियों को महज दो मिनट की सलाह के लिए दो घंटे से अधिक का इंतजार करना पड़ता है. परेशान डॉक्टर, गायब रहने वाली नर्सें. ये कहानी मेडिकल संस्थानों, मेडिकल कॉलेजों और यहां तक की मोहल्ला क्लीनिकों की है.

दिल्ली के सरकारी अस्पतालों का सामान्य माहौल अराजकता जैसा होता है और मैं इस बात को जोर देकर कह रही हूं. ओपीडी में एक सामान्य डॉक्टर बड़ी संख्या में आ रहे रोगियों का इलाज करने के लिए संघर्ष कर रहा है. यहां ऐसे रोगियों की पहचान करनी होती हैं, जिन्हें इमरजेंसी देखभाल की जरूरत है या जो शायद थोड़ा ध्यान देने से ठीक हो जाएंगे या फिर जिन्हें जल्दबाजी में पर्ची पर दवाई लिख कर घर भेज देने की जरूरत है.

एक रेजिडेंट डॉक्टर सुपरमैन की तरह एक हफ्ते में 80 से 100 घंटे तक काम करता है. (नहीं, संसद में कहा गया एक हफ्ते में 40 घंटे काम, मिथक है और हमेशा रहेगा.)

जब मैं जीटीबी में रेजिडेंट थी, उस समय से चीजों में अगर नाटकीय रूप से परिवर्तन नहीं हुआ हो, तो अक्सर सर्जरी के बाद सफाई के लिए पानी की कमी, जाम शौचालय और खराब एसी से जूझना पड़ता था. इसके अलावा हिंसा का मंडराता खतरा, एक ऐसा खतरा जो अब डॉक्टरों के घरों तक भी पीछा नहीं छोड़ता है. आप अकेले हैं, अधिक काम करते हैं, अधिक तनाव में है, तो आप खतरे के मुहाने पर हैं. नर्सों के लिए भी लाइफ कुछ अलग नहीं है.

अगर आप सही से काम ना करने वाले उपकरण और मशीनें देखेंगे, तो पाएंगे कि इनकी लंबे समय से सर्विसिंग नहीं हुई है और ना ही इन्हें सालों से अपडेट किया गया है. यहां एमआरआई मशीन जल्द ही आने वाली है. (जीटीबी को एमआरआई के लिए साल 2016 में ही फंड मिल गया था, लेकिन अभी तक मशीन नहीं लगी है) जमीनी स्तर पर हालात बिल्कुल असंभव से दिखाई देते हैं.

मौजूदा सूरत में व्यक्तिगत करुणामय देखभाल (Individualized compassionate care) दैनिक हकीकत की बजाए भविष्य का विजन है. ऐसा रोगियों की संख्या और भौतिक संसाधनों की कमी के कारण है.

बहुप्रचारित मोहल्ला क्लीनिक में भी हेल्थ केयर डिलिवरी के लिए जरूरी मशीन और उपकरण उपलब्ध कराने में सरकार संघर्ष कर रही है. यह खाई और चौड़ी होती जा रही है.

ऐसी निराशाजनक परिस्थितियों में डॉक्टरों और पैरामेडिकल स्टाफ से आधा घंटा निकाल कर रोगियों के साथ डांस करने को कहना एक पूरी तरह से अंतरदृष्टि का अभाव है. यह केवल तर्कसंगत है, जीटीबी के रेजिडेंट डॉक्टरों ने दिल्ली सरकार द्वारा प्रस्तावित गीत और डांस रूटीन का हिस्सा बनने से पूरी तरह से इनकार कर दिया है, ये प्रस्ताव हेल्थकेयर सिस्टम की सभी समस्याओं के लिए समाधान उपलब्ध नहीं कराता है. वास्तव में यह पहले से दबाव झेल रहे रेजिडेंट डॉक्टरों, नर्सों और स्टाफ कर्मचारियों के साथ ही रोगियों के जख्मों को कुरेदने जैसा है.

असल हालात की पहचान है जरूरी

दिल्ली के स्वास्थ्य मंत्री सत्येंद्र जैन ने जीटीबी अस्पताल में इस पायलट प्रोजेक्ट की शुरुआत की. (फोटो: रॉयटर्स)

हां, मरीज स्वास्थ्य परिणामों से परे स्वास्थ्य देखभाल के कई पहलुओं को लेकर चिंतित हैं. उनकी प्राथमिक चिंता, निश्चित रूप से बेहतर महसूस करना है, लेकिन वे स्वास्थ्य के लिए अपने रास्ते में आने वाली दूसरी चीजों की भी परवाह करते हैं.

लेकिन अगर आप उन सभी निर्धारकों को देखें, जो एक अस्पताल में होने पर मरीजों के जीवन की गुणवत्ता को प्रभावित करते हैं, तो अधिकतर व्यक्ति जिन मापदंडों पर ध्यान केंद्रित करेंगे, वे मरीजों को इलाज मिलने में लगने वाला समय, शीघ्र उपचार, डायग्नोस्टिक टेस्ट और दवा की उपलब्धता, हेल्थकेयर उपलब्ध कराने वाले कर्मचारी (सलाहकार डॉक्टर, विशेषज्ञ नर्स और फिजियोथेरेपिस्ट) इस लिस्ट में सबसे पहले होंगे.

रोगियों को जो इलाज की सुविधा मिलती है, वास्तव में उपरोक्त चीजें उस प्रक्रिया की विशेषताएं हैं. ये चीजें औसत दर्जे की, मात्रात्मक और उपलब्धता के आधार पर बहुत कम अनुपात में हैं. जहां तक अस्पतालों की बात है, इनमें सभी मामलों में गंभीरता की कमी है.

वॉर्ड के राउंड बहुत महत्वपूर्ण माने जाते हैं. ये वो समय होता है, जब हेल्थकेयर डिलीवरी में शामिल लोग एक दूसरे से बातचीत करते हैं, रोगियों की देखभाल के लिए आगे की रणनीति बनाते हैं. नर्सें अपने विचार या राय देती हैं, रेजिडेंट डॉक्टरों से इलाज की प्रासंगिकता के बारे में सवाल पूछे जाते हैं. यही कारण है कि मेडिकल कॉलेज से जुड़े अस्पतालों में इन्हें टीचिंग राउंड कहा जाता है.

एक औसत डॉक्टर क्लासरूम की तुलना में इन राउंड्स से अधिक सीखता है. ऐसे में डॉक्टरों को सॉन्ग और डांस रूटीन तक सीमित कर देना तर्कसंगत नहीं होगा.
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पहले जमीनी जरूरत पर ध्यान दें

मां बनने वाली औरतों को स्प्रिचुअल केयर या इमोशनल सपोर्ट पर जोर देने से पहले क्या हमें यकीन है कि उन्हें अच्छे से तैयार किया गर्म भोजन दिया गया? क्या नई माताओं में से हरेक के पास खुद के लिए बेड था, या एक बेड पर तीन-तीन महिलाएं थीं? क्या उन्हें स्तनपान की तकनीक पर सलाह दी गई, क्या उनकी किसी देखभाल करने वाले तक पहुंच है, जो उन्हें नवजात शिशु की देखभाल करने के लिए तैयार करे? और क्या हमने यह सुनिश्चित किया कि जिन बच्चों की जन्म के बाद मौत हो गई, वे मूलभूत सुविधाओं, स्वच्छता, अनुपलब्ध दवाओं की कमी के कारण नहीं मरे थे?

यह केवल तभी है, जब उन बुनियादी जरूरतों को पूरा करते हैं, जिनका हम सामना करते हैं. हम इलाज की जटिलताओं से जुड़े दूसरे छोर से बाद में भी निपट सकते हैं.

स्वास्थ्य देखभाल उपलब्ध कराने के हालिया ट्रेंड्स ने लोगों के स्वास्थ्य, रोगियों और डॉक्टरों के अनुभवों को अधिक मजबूत बनाया है. बजाए इसके कि सिस्टम में अधिक पैसा डाला जाए.

डॉक्टरों और नर्सों समेत हेल्थकेयर वर्कर्स की अधिक भर्ती करें, सुपर स्पेशलिस्ट रखें, उनके कौशल को अपग्रेड करें. तर्कसंगत और बेहतर स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध कराने के लिए उन्हें तकनीक और बुनियादी ढांचा प्रदान करें.

हालांकि घुटने के बल चलना आसान है, ‘चलिए ब्राजील के अस्पताल की नकल करते हैं, जहां डॉक्टर और नर्स मरीजों को बेहतर महसूस कराने के लिए डांस करते हैं.’ हम जिन लोगों की सेवा कर रहे हैं, उनकी सामाजिक-सांस्कृतिक गतिशीलता और आर्थिक स्थिति से भी अवगत होने की आवश्यकता है. स्वास्थ्य सेवाओं में निर्णय, चाहे इलाज संबंधी नियमों के बारे में हो या रोगी की देखभाल के बारे में, ट्रायल और औपचारिक विश्लेषणों के साक्ष्य पर आधारित होना चाहिए.

वास्तविक दुनिया के हालात पर गौर करें

उस युवा रेजिडेंट डॉक्टर के बारे में सोचें, जिसे उसके मरीज ने युवा होने या जेंडर के कारण गंभीरता से नहीं लिया है (मुझे मौलाना आजाद मेडिकल कॉलेज, गुरु तेग बहादुर अस्पताल और एम्स में मेरे स्पेशलिस्ट क्लीनिकल ट्रेनिंग के 9 साल के दौरान सिस्टर के रूप में संबोधित किया गया था). उस नर्स के बारे में सोचें, जिसे वो काम करना है, जिसे आप किसी अपने प्रियजन के लिए नहीं करना चाहते हैं. उन्हें अपने रोगियों के सामने नाचने के बारे में सोचें, जब वे पूरे दिन खुद को गंभीरता से लिए जाने के लिए संघर्ष करते हैं. जब उन्हें 22 की बजाए 68 रोगियों की देखभाल करनी होती है, जहां एक बेड पर तीन-तीन रोगियों को रखा गया है.

उस चिड़चिड़े रिश्तेदार के बारे में सोचें, जिसने मरीज को देखने के लिए छह घंटे इंतजार किया है, उस मरीज के बारे में सोचें, जो अपने बेड पर पड़ी गंदी चादर के बदले जाने का इंतजार कर रहा है. उस रोगी के बारे में सोचे जिसका गर्भाशय निकाला गया है, जिसका गुर्दा प्रत्यारोपण किया है या जो कीमोथेरेपी के दौर से गुजर रहा है.

एक ही बेड पर पड़े तीन बीमार रोगियों के बारे में सोचें. जब एक रोगी को करवट बदलने के लिए एडजस्टमेंट की जरूरत होती है और एक रोगी के पैर की अंगुली किसी दूसरे रोगी के चेहरे पर लगती है.

अब डॉक्टरों और नर्सों की उस परेशान टीम के बारे में सोचें, जो फाल्गुनी पाठक के गाने पर डांस कर रही है. बजाए वो करने के, जिसके लिए उन्हें ट्रेनिंग दी गई है या जिसके लिए उन्हें सैलरी दी जा रही है.

और अब स्वास्थ्य मंत्री के साथ वीडियो में उस नई मां के बारे में सोचें, क्या वह 20 मिनट के गाने और डांस रूटीन को या फिर अपने नवजात शिशु और नर्स के साथ 20 मिनट शांत रहना पसंद करती, जो उसे स्तन के दूध पिलाने का तरीका सिखा सकती है, या यहां तक कि बच्चे को स्नान भी करा सकती है.

इसका जवाब पाने के लिए आपको डॉक्टर, या स्वास्थ्य मंत्रालय का अधिकारी होने की आवश्यकता नहीं है.

झूठे साइंटिफिक बबल हार्ड फैक्ट्स को रिप्लेस नहीं कर सकते

सच्चाई ये है कि हमें और अधिक डॉक्टरों, नर्सों, पैरामेडिकल स्टाफ की जरूरत है. हमें अपने रोगियों के लिए बेहतरीन अस्पताल, अधिक बेड, अधिक वॉर्ड, बेहतर आईसीयू की जरूरत है.

हमें स्वच्छता, उपकरण, उपकरणों के रखरखाव, वेस्ट मैनेजमेंट और जॉब ट्रेनिंग के साथ ही हेल्थकेयर सिस्टम में शामिल हर व्यक्ति के स्किल को अपग्रेड करने की जरूरत है.

हमें अधिक दवाओं, दस्ताने, कैनुला, सीरिंज और सुइयों की आवश्यकता है.

हमें इन बदलावों को लाने के लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति की आवश्यकता है. हमें उन पॉलिसी मेकर्स की आवश्यकता है, जो सभी के लिए यूनिवर्सल हेल्थकेयर की बात करें.

हम, भारत में, बदलाव के शुरुआती बिंदु पर हैं. तात्कालिक समाधान और लोकलुभावन उपाय सोशल मीडिया पर लोगों का ध्यान और पोलिंग बूथ पर वोट तो खींच सकते हैं, लेकिन सड़क पर औसत आदमी के जीवन को बदलने या अस्पताल में अपनी जिंदगी के लिए लड़ने वाले व्यक्ति के जीवन की गुणवत्ता के लिए काफी नहीं हैं. फिर भी, हमें उन लोगों द्वारा नकार दिया जाता है, जो हमारी ओर से निर्णय लेने के लिए होते हैं.

(डॉ शिबल भारतीय, फोर्टिस मेमोरियल रिसर्च इंस्टीट्यूट, गुड़गांव में ऑप्थैमोलॉजी की सीनियर कंसल्टेंट हैं.)

(ऊपर व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. फिट हिंदी न तो इसका समर्थन करता है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)

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Published: 30 Jan 2019,05:32 PM IST

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