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ऑक्सीजन, बेड और वैक्सीन की कमी के लिए क्या सिर्फ डॉ. हर्षवर्धन जिम्मेदार थे?

कोरोना संकट के करीब डेढ़ साल बाद स्वास्थ्य मंत्री हर्षवर्धन को बाहर का रास्ता दिखा दिया गया

वैशाली सूद
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<div class="paragraphs"><p>स्वास्थ्य मंत्री डॉ. हर्षवर्धन</p></div>
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स्वास्थ्य मंत्री डॉ. हर्षवर्धन

(फोटो- क्विंट हिंदी)

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बतौर स्वास्थ्य मंत्री डॉ. हर्षवर्धन का कार्यकाल आजाद भारत का सबसे चुनौतीपूर्ण दौर रहा है. भारत पिछले डेढ़ साल से कोरोना वायरस संकट (Corona Crisis) का सामना कर रहा है और स्वास्थ्य मंत्रालय वायरस के खिलाफ इस पूरी जंग के केंद्र में रहा है. भारत में कोरोना वायरस की एंट्री 30 जनवरी 2020 को हुई और तब से परिस्थितियां बदलना शुरू हो गईं. कोरोना का प्रकोप दुनियाभर में दिखा लेकिन भारत का रिस्पॉन्स सुस्त दिखा.

एक्सपर्ट्स के बीच चर्चा चली की भारत ने अपनी अंतरराष्ट्रीय सीमाएं बंद करने में देरी कर दी और अगर पब्लिक हेल्थ से जुड़ी बुनियादी चीजें जैसे- कॉन्टैक्ट, ट्रेस, आइसोलेट बहुत जल्दी भुला दिया गया. सवाल ये भी उठा कि क्या लॉकडाउन ने अपने उद्देश्य को पूरा भी किया?

कोरोना संकट के करीब डेढ़ साल बाद स्वास्थ्य मंत्री हर्षवर्धन को बाहर का रास्ता दिखा दिया गया. ऐसा माना गया कि सरकार ने कोरोना वायरस संक्रमण को ठीक तरह संभाल नहीं पाने की गलती स्वीकार कर ली है.

भारत की कोरोना के खिलाफ लड़ाई- धारणा प्रबंधन का खेल

कोरोना वायरस संकट के शुरुआती दिनों में स्वास्थ्य मंत्रालय के अधिकारी रोजाना प्रेस कॉन्फ्रेंस करके सरकार के कामों का अपडेट दिया करते थे. ऐसा लगता था कि 'सरकार काम कर रही है'. लेकिन जैसे-जैसे केस बढ़ने लगे प्रेस ब्रीफिंग की संख्या घटती चली गई. केस बढ़ने के साथ जरूरी स्वास्थ्य उपकरणों जैसे पीपीई किट, आईसीयू, वेंटिलेटर्स की कमी की खबरें आने लगीं. इसके बाद भारत के कमजोर स्वास्थ्य ढांचे की परतें खुलने लगीं.

एक्सपर्ट ने ये सारे सवाल अलग से पूछे कि भारत ने पीपीई किट, टेस्ट किट, वेंटिलेटर्स, आईसीयू के वक्त पर ऑर्डर क्यों नहीं दिए? ताकि महामारी के खिलाफ लड़ाई मजबूती से लड़ी जाए.

RTPCR टेस्टिंग की कीमतों, प्राइवेट हॉस्पिटल के चार्ज, दवाओं की कीमत, क्वॉरंटीन सुविधाओं को लेकर सरकार से सवाल किए गए. भारत की कई सारी फार्मा कंपनियों ने वैक्सीन खोजने के लिए अपने हाथ-पैर चलाए. इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च और नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ वायरोलॉजी के साथ मिलकर भारत बायोटेक ने स्वदेशी वैक्सीन तैयार की.

सब कुछ ठीक ही चल रहा था लेकिन ICMR के चीफ बलराम भार्गव ने अचानक आदेश दे दिया कि भारतीय संस्थाएं अपने वैक्सीन के क्लीनिकल ट्रायल 15 अगस्त तक ही पूरे कर लें. ताकि स्वतंत्रता दिवस पर देश को वैक्सीन का तोहफा दिया जा सके. लेकिन ये संभव ही नहीं था, और इसकी जमकर आलोचना की गई.

विज्ञान पर जोर जबरदस्ती, अजीब से उत्साह का माहौल, तार्किकता से ऊपर देशभक्ति का खुलेआम प्रदर्शन किया गया. वैक्सीन को तैयार होने में वक्त लगता है, इसे कई बार टेस्ट किया जाता है, कई सारे वैज्ञानिक पैमानों पर इसका परीक्षण होता है. वैक्सीन राजनीति की चीज नहीं है, ये लोगों की जिंदगी से जुड़ा सवाल है.
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लेकिन ICMR जैसी वैज्ञानिक संस्था को ये सब क्यों करना पड़ा?

हमारे 'पूर्व' स्वास्थ्य मंत्री जो खुद डॉक्टर हैं उनको इस बारे में अच्छे से पता ही होगा.

जब पूरी दुनिया में कोरोना वायरस संकट का सामना करने के लिए पब्लिक हेल्थ एक्सपर्ट्स की मदद ली गई, लेकिन तब भी भारत अपनी नीतियां बनाने के लिए आखिर क्यों टेक्नोक्रेट्स पर ही निर्भर रहा?

स्वास्थ्य मंत्री हर्षवर्धन, रामदेव जैसे कारोबारी के साथ नजदीकियां बढ़ाते हुए कोविड-19 के उपचार के तौर पर कोरोनिल का प्रचार करते हुए क्यों दिखे?

'भारत में मृत्यु दर पूरी दुनिया में सबसे कम रही. लेकिन भारत का पॉजिटिविटी रेट दुनिया में सबसे ज्यादा रहा.'

जब कोरोना वायरस की पहली लहर ढलान पर थी, भारत के प्रधानमंत्री और स्वास्थ्य मंत्री ने खुद भारत के अपवाद वाले सिद्धांत पर ठप्पा लगाया.

राष्ट्रवाद पहले- 1 जनवरी 2021 को भारत ने 'मेड इन इंडिया वैक्सीन' को आपातकालीन इस्तेमाल की मंजूरी दी. सीरम इंस्टीट्यूट की कोविशील्ड और भारत बायोटेक की कोवैक्सीन को मंजूरी दी. जिस वक्त मंजूरी दी गई कोवैक्सीन अपना फेज 3 ट्रायल शुरू ही कर रही थी. इसी फेज में वैक्सीन की प्रभावी क्षमता का पता चलता है. लेकिन स्वास्थ्य मंत्री ने जिन शब्दों के साथ वैक्सीन को मंजूरी दी, उससे ही पता लगता था कि वो पहले से लिए गए फैसले का पालन कर रहे हैं. इस सबके बाद भी सरकार ने वैक्सीन के बेहद ही कम ऑर्डर दिए.

डॉक्टर हर्षवर्धन की पारी का अंत

जनवरी 2021 में भारत के अपवाद होने वाली प्रवृत्ति ने पीछा नहीं छोड़ा. हमने तब तक जोर-जोर से चीखकर वायरस को हराने का ऐलान कर दिया था और दुनिया को बता दिया था कि भारत दूसरी लहर से अछूता रह गया है. पब्लिक हेल्थ से जुड़े सभी कायदे कानून ताक पर रख दिए गए. आम बातचीत से वैज्ञानिकता गायब हो गई थी.

फरवरी की शुरुआत में वैज्ञानिक बढ़ते हुए कोरोना संक्रमण को लेकर चेतावनी दे रहे थे. तब सरकार का शीर्ष नेतृत्व विधानसभा चुनाव में रैलियों पर रैलियां कर रहा था.

इन सब के बीच स्वास्थ्य मंत्री ने कहा था कि 'कोरोना महामारी का भारत में अंत हो चुका है.' (एंडगेम)

कोरोना वायरस की दूसरी लहर ने भारत को हिला कर रख दिया. भारत के पास खुद की वैक्सीन होने के बावजूद वैक्सीनेशन में सुस्ती बरती गई. स्वास्थ्य सुविधाओं की अभूतपूर्व किल्लत देखी गई. ऑक्सीजन बेड, कंसनट्रेटर, फ्लोमीटर, मेडिकल ऑक्सीजन, प्लाजमा जैसी जरूरतें सरकार के काबू से बाहर चली गईं और सोशल मीडिया लोगों की SoS कॉल्स की चीखों से भर गया. लोगों ने ही एक दूसरे की जितनी मदद हो सकी की. सरकार नदारद रही. इस कठिन वक्त में ना तो स्वास्थ्य मंत्री कभी सामने आए, ना ही प्रधानमंत्री ने लोगों से बात की, एक ट्वीट तक नहीं किया.

इसके बाद साफ दिखने लगा कि हर्षवर्धन का कार्यकाल आखिरी दौर में है. पीएमओ ने कामकाज हाथ में लिया, कोरोना की ब्रीफिंग नीति आयोग के जरिए होने लगी. प्रधानमंत्री ने संकट में मोर्चा खुद संभालते हुए राज्यों के साथ बैठकों शुरू कीं.

स्वास्थ्य मंत्री की छुट्टी के साथ, सरकार नई शुरुआत करनी चाहती है, सारी गड़बड़ियों से किनारा करना चाहती है और रीसेट बटन दबाना चाहती है. लेकिन महामारी की शुरुआत में और दूसरी लहर के दौरान सरकार नाकामी मिलीजुली रही है. दोष सिर्फ डॉ. हर्षवर्धन अकेले का नहीं है.

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