विश्व कैंसर दिवस (World Cancer Day) हर साल 4 फ़रवरी को मनाया जाता है. इसको मनाने का मकसद है, लोगों को इस गंभीर बीमारी के प्रति जागरुक करना है. ज्यादातर लोग इसके शुरुआती लक्षणों को या तो समझ नहीं पाते हैं या कई बार अनदेखा कर देते है.
इस लेख में फोर्टिस मेमोरियल रिसर्च इंस्टीट्यूट, गुरुग्राम के सर्जिकल ओंकोलॉजी के डायरेक्टर डॉ निरंजन नायक हमें कैंसर रेकरेंस (उपचार के उपरांत दोबारा कैंसर पनपना) के बारे में विस्तार से बता रहे हैं.
कैंसर रेकरेंस (उपचार के उपरांत दोबारा कैंसर पनपना) मरीज़ों और उनकी देखभाल करने वाले लोगों के लिए चिंता का विषय है। कैंसर दोबारा पनपने की आशंका से जीवन की गुणवत्ता प्रभावित होती है और करीब 7% मरीज़ों में यह डर इतना ज्यादा होता है कि उन्हें बार-बार डरावने विचार आते हैं या वे हल्के-फुल्के लक्षणों को लेकर भी बेहद चिंतित हो जाते हैं।
कैंसर दोबारा होने संबंधी आकलनों में इलाज के नए विकल्पों, जैसे कि टार्गेटेड थेरेपी और इम्युनोथेरेपी को शामिल नहीं किया जाता है, जबकि ऐसा करना महत्वपूर्ण है, खासतौर से उस स्थिति में जबकि इस प्रकार की कैंसररोधी थेरेपी अनेक प्रकार के कैंसर उपचार के लिए लगातार इस्तेमाल में लायी जा रही हैं।
कैंसर दोबारा इस वजह से पनपता है क्योंकि उपचार के बावजूद शरीर में कुछ कैंसर कोशिकाएं(cells) बची रहती हैं। आगे चलकर ये कोशिकाएं बढ़ने लगती हैं और इतनी ज्यादा हो जाती हैं कि जांच करने पर इनका पता लगाया जा सकता है।
कैंसर दोबारा कब और कहां पनपेगा यह काफी हद तक कैंसर के प्रकार पर निर्भर करता है। मरीज़ की उम्र, स्थिति, कैंसर की अवस्था और प्राइमरी ट्यूमर साइट, ट्यूमर साइज़, लोको-रीजनल लिंफ नोड्स तक उनका प्रसार, ट्यूमर ग्रेड, लिंफो-वास्क्युलर तथा पेरीन्यूरल इन्वेज़न और साथ ही, उपचार की प्रकृति भी काफी हद तक कैंसर रेकरेंस को प्रभावित करती है।
अलग-अलग कैंसर की पुनरावृत्ति (रेकरेंस) की दर काफी हद तक कैंसर टाइप, लोकेशन और स्टेज पर निर्भर करती है। कुछ कैंसर ऐसे होते हैं, जिनका इलाज करना मुश्किल होता है और उनके दोबारा लौटने की संभावना भी काफी ज्यादा होती है।
ग्लियोब्लास्टोमा एक प्रकार का मस्तिष्क कैंसर है, जो इलाज के बावजूद, लगभग सभी मरीज़ों में दोबारा लौट जाता है।
इस तरह, अंडाशय (ओवेरियन) कैंसर की रेकरेंस भी काफी अधिक यानी 85% तक रहती है।
एडजुवेंट कीमोथेरेपी के बाद सॉफ्ट टिश्यू सरकोमा करीब 50% मरीज़ों में दोबारा देखा गया है और काफी देरी के चरण में पकड़ में आने वाले कैंसर के मामलों में भी ऐसा होता है, उनमें तो पुनरावृत्ति की आशंका 100% तक देखी गई है।
इसी तरह, ब्लैडर कैंसर से पीड़ित 50% मरीज़ों में उपचार के बावजूद कैंसर दोबारा देखने में आया है, तथा पैंक्रियाटिक कैंसर के इलाज के लिए सर्जरी कराने वाले 36% से 46% मरीज़ों में भी, एडजुवेंट कीमोथेरेपी के बावजूद पुनरावृत्ति देखी गई है।
हिमेटोलॉजिक मैलिग्नेंसी के मामलों में, प्राइमरी उपचार के बाद, नॉन-हॉज़किन लिंफोमा सबटाइप डिफ्यूज़ लार्ज बी-सैल लिंफोमा (DLBCL) में 30% से 40% मरीज़ों में पुनरावृत्ति देखी गई है, जबकि पेरिफेरल टी-सैल लिंफोमा (PTCL) 75% मरीज़ों को दोबारा अपनी गिरफ्त में लेता रहा है।
उधर, गुर्दे के कैंसर से प्रभावित करीब 13% मरीज़ों में, तथा आरंभिक चरण के ऑस्टियोसर्कोमा में स्थानीय पुनरावृत्ति करीब 11% से 12% देखी गई है।
हॉज़किन लिंफोमा में मल्टी-एजेंट कीमोथेरेपी सहित प्राथमिक उपचार के बाद स्वस्थ होने की दर अधिक होती है, और पुनरावृत्ति की दर 10% से 13% है।
श्वसन-पाचन नलिकाओं (aero-digestive tract) के लंबे समय तक कैंसरकारी तत्वों के संपर्क में बने रहने, जैसे कि तंबाकू सेवन, धूम्रपान और मद्यपान आदि से एपिथिलियम की ऊपरी परत में बदलाव आते हैं और उसमें मल्टीफोकल कार्सिनोमा की आशंका बढ़ जाती है। इस प्रक्रिया को ‘फील्ड कैंसेराइज़ेशन’ या ‘फील्ड डिफेक्ट’ कहते हैं।
यह मौजूदा पूर्व-कैंसरकारी घावों में बदलाव होने की जानी-मानी प्रक्रिया है, जो आगे चलकर कैंसर में बदल जाती है। यह प्रक्रिया ही सर्जरी और रेडिएशन थेरेपी के बावजूद मरीज़ों में दोबारा कैंसर पनपने की वजह भी बनती है।
फील्ड कैंसराइज़ेशन सिद्धांत से यह संकेत मिलता है कि कैंसरकारक तत्वों के लगातार संपर्क में आने से, ऊपरी श्वसन-पाचन नलिका (aero-digestive tract) में एपिथिलियम की ऊपरी परत में कई तरह की आनुवांशिक असामान्यताओं के चलते (पूर्व) कैंसरकारी घावों का जोखिम बढ़ता है।
इसका एक क्लीनिकल परिणाम यह होता है कि प्राइमरी ट्यूमर की सर्जरी के बावजूद फील्ड्स बचे रहते हैं और ये नए कैंसर के पनपने की वजह बन सकते हैं, जिन्हें स्थान और समयावधिक के आधार पर ''द्वितीय प्राइमरी ट्यूमर'' या ''लोकल रेकरेन्स’’ कहा जाता है।
आरंभिक अवस्था में निदान और समुचित उपचार से पुरावृत्ति (repetition) का जोखिम कम करने में मदद मिलती है। साथ ही, जीवनशैली में बदलाव, तंबाकू और शराब का सेवन बंद करना, नियमित व्यायाम और सकारात्मक मानसिक सोच रखने से भी पुनरावृत्ति (repetition) का जोखिम काफी हद तक कम किया जा सकता है।
डॉक्टरों को मरीज़ों के साथ कैंसर की पुनरावृत्ति दरों, और पुनरावृत्ति के लक्षणों और इस प्रकार पुनरावृत्ति का जोखिम कम करने के लिए आचार-व्यवहारों तथा नियमित रूप से फौलो-अप या सरवीलेंस शैड्यूल के कारणों को समझाना चाहिए क्योंकि इस प्रकार की जानकारी से लैस होने के बाद मरीज़ों में कैंसर के दोबारा लौटने की आशंकाओं को कम करने में मदद मिलती है।
( कैंसर रेकरेंस पर यह लेख फोर्टिस मेमोरियल रिसर्च इंस्टीट्यूट, गुरुग्राम के सर्जिकल ओंकोलॉजी के डायरेक्टर, डॉ निरंजन नायक द्वारा फ़िट हिंदी के लिए लिखा गया है.)
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