अस्पताल के आईसीयू (ICU) यानी इंटेंसिव केयर यूनिट में रहना मुश्किल हो सकता है. तार, ट्यूब, बीप करते मॉनिटर, कई तरह के शोर के साथ मन में एक डर लगा रहता है कि बीमारी से उबर पाएंगे या नहीं.
गंभीर रूप से बीमार मरीज, जो मौत का नजदीक से अनुभव करते हैं, उनके स्वास्थ्य पर ये अनुभव स्थायी प्रभाव छोड़ सकता है. वेंटिलेटर का हटना, वापस घर आना और फिर बीमारी से निजात पाना, ये सफर लंबा हो सकता है.
COVID-19 के गंभीर मरीज जिन्हें मल्टिपल ऑर्गन फेल्योर या एक्यूट रेस्पिरेटरी डिस्ट्रेस सिंड्रोम (ARDS) होता है, उन्हें ICU में एडमिट किया जाता है. करीब 5% गंभीर मामले होते हैं, जिसमें मरीज को वेंटिलेटर या आईसीयू में रखने की जरूरत होती है.
फिट ने इस बारे में स्पेशलिस्ट से बात की और जाना कि मरीजों को इस दौरान कैसी स्थिति से गुजरना पड़ता है और इससे होने वाले नुकसान को कैसे कम किया जा सकता है.
‘पोस्ट-इंटेंसिव केयर सिंड्रोम’- 2010 में ये शब्द चलन में आया, जो आईसीयू से छुट्टी मिलने के बाद मरीजों में लंबे समय तक देखने को मिलता है.
फिट के साथ बातचीत में, क्रिटिकल केयर स्पेशलिस्ट डॉ सुमित रे कहते हैं, ''आप जितने लंबे समय तक आईसीयू में रहेंगे, आपको लंबे वक्त तक दिखने वाले असर का रिस्क होगा और आपको वापस सामान्य होने में भी ज्यादा समय लगेगा. आईसीयू में रहने के निगेटिव असर उन मरीजों में देखे गए हैं, जिनमें सेप्सिस था, जो ARDS के साथ वेंटिलेटर पर थे, जो लोग लंबे समय तक लाइफ सपोर्ट पर रहे या सदमे में चले गए थे, या जो ब्लड प्रेशर मेंटेन करने के लिए दवा पर थे. ”
जसलोक हॉस्पिटल एंड रिसर्च सेंटर के क्रिटिकल केयर कंसल्टेंट डॉ श्रुति टंडन इस बारे में कहती हैं- “गंभीर बीमारी में शरीर में प्रतिक्रिया होती है, जिससे न्यूरोमस्कुलर कमजोरी हो सकती है. बीमारी से लड़ने के लिए साइटोकाइन्स की जरूरत होती है, जो प्रोटीन से बनते हैं. चूंकि हमारे शरीर में प्रोटीन का भंडार नहीं होता है, इसलिए मांसपेशियों को बनाने के लिए इस्तेमाल होने वाले प्रोटीन साइटोकाइन्स बनाने लगते हैं. इससे कई मरीजों के मांसपेशियों में कमजोरी आ जाती है जो महीनों, सालों तक जारी रह सकती है.”
एक स्टडी बताती है कि आईसीयू में बिताया हर दिन मरीज की मांसपेशियों की ताकत को आने वाले महीनों, सालों में 3 से 11% तक कम करता है.
डॉ सुमित रे कहते हैं, "कई मरीजों पर इसका मनोवैज्ञानिक प्रभाव पोस्ट-ट्रॉमेटिक स्ट्रेस डिसऑर्डर (PTSD) जैसा दिखता है."
जॉन हॉपकिंस की एक स्टडी में पाया गया कि आईसीयू से निकले करीब एक चौथाई लोग PTSD से जूझते रहे.
याददाश्त पर असर, कंसन्ट्रेशन, खुद से एक्टिवली काम न करना, प्रॉब्लम सॉल्विंग, सिंपल मैथमेटिकल वर्क इन सब पर आईसीयू में रहने और दर्द से राहत देने वाली दवाइयों का प्रभाव पड़ता है.
'आईसीयू डिलीरियम' जिसके बारे में कम बातें होती हैं. इसकी वजह से भ्रम, मानसिक उन्माद, भूलने जैसी दिक्कतें होती हैं.
इसके अलावा, उन लोगों के मानसिक स्वास्थ्य पर प्रभाव उन मरीजों से भी ज्यादा होता है, जो उनकी देखभाल करते हैं. इसे पोस्ट-इंटेंसिव केयर सिंड्रोम-फैमिली (PICS-F) कहते हैं. थकान, चिंता, तनाव परिवार के सदस्यों में देखने को मिलता है.
PICS को रोकने में मदद करने के लिए एक आम तरीका 'ABCDEF' है:
A,B- Awakening and Breathing Coordination- मरीजों को बेहोशी और मेकैनिकल वेंटिलेशन से फ्री करना.
C- Choosing drugs to reduce risk of delirium- डिलीरियम का रिस्क घटाने वाली दवाइओं का चुनाव.
D- Delirium management- डिलीरियम मैनेजमेंट.
E- Early mobility and Exercise- एक्सरसाइज और चलना-फिरना.
F- Family engagement- फैमिली-परिवार के साथ समय बिताना.
डॉ सुमित रे बताते हैं कि इस केयर के तहत लोगों के स्वास्थ्य पर पड़ने वाले गंभीर असर को कैसे कम किया जा सकता है.
अस्पताल में रहने के दौरान और बाद में अच्छी फिजियोथेरेपी और आईसीयू में थोड़ा सा हिलना-डुलना शारीरिक लक्षणों में मदद कर सकता है. मरीजों को उनकी हालत के आधार पर बेड से उठाकर कुर्सी पर बैठाना या उन्हें खड़ा करने की कोशिश करनी चाहिए. वो कहते हैं, "हमें ठीक संतुलन तक पहुंचने की जरूरत होती है क्योंकि हम किसी ऐसे व्यक्ति के लिए ये नहीं अपना सकते जो लाइफ सपोर्ट सिस्टम के सहारे हो."
मरीज के पोषण संबंधी जरूरत को पूरा किया जाना चाहिए लेकिन ये ख्याल रखना चाहिए कि हम उन्हें ज्यादा न खिला दें. मांसपेशियों को बनाने और मजबूत करने के लिए मरीजों को अच्छी मात्रा में प्रोटीन दी जाए. गंभीर रूप से बीमार मरीजों के लिए प्रति दिन 1.5-2 किलोग्राम प्रोटीन का लक्ष्य होना चाहिए.
जहां कहीं भी संभव हो, सिडेशन को अराउजैबिलिटी के साथ संतुलित करने की जरूरत है. NJEM की स्टडी के मुताबिक, सबसे अच्छा परिणाम तब मिलता है, जब बेहोश करने की क्रिया की निगरानी की जाती है और मरीज के आराम और सुरक्षा के लिए सिडेशन को कम से कम रखा जाता है.
आपकी पसंद की दवाएं भी मदद कर सकती हैं. कुछ दवाओं को दूसरों की तुलना में ज्यादा मानसिक स्वास्थ्य पर प्रभाव डालने के लिए जाना जाता है, इसलिए जब तक जरूरत न हो इसका इस्तेमाल करने की सलाह से बचना चाहिए.
मरीज के साथ एक डायरी रखने और उन्हें अपने अनुभवों को लिखने में मदद करने से भी उन्हें वापस पहले जैसे अनुभव में लौटने में मदद मिल सकती है.
दूसरी बात ये है कि आईसीयू को इस तरह से डिजाइन और जगह दी जाए कि धूप की कुछ मात्रा कमरे में आ सके. प्राकृतिक रोशनी त्वचा में मेलाटोनिन निकालने में मदद करता है, जो उनके मनोवैज्ञानिक स्वास्थ्य में मदद कर सकता है. अगर मरीज को जागने के साथ बाहर के नजारे देखने के लिहाज से बिस्तर मिल जाए तो उन्हें किसी भी नकारात्मकता या निराशा से बाहर निकालने में मदद मिलेगी.
कमरे में परिचित शोर, थोड़ा सामान्य माहौल, टेलीविजन से भी मदद मिल सकती है.
डॉक्टर और नर्सिंग स्टाफ मरीजों से कैसे बात करते हैं, ये भी बेहद अहम है. उन्हें लगातार मरीजों को सकारात्मक इनपुट देना चाहिए जैसे "आप बेहतर हो रहे हैं." सकारात्मक नजरिया स्थापित करना बहुत अहम है, भले ही जीवित रहने की संभावना बहुत ज्यादा न हो, क्योंकि अगर मरीज इससे बाहर निकल गए, तो फिर नकारात्मकता के निशान जिंदगी भर रह जाएंगे. ड. रे बताते हैं, "रोगी के प्रति नरम भाव रखना, उनकी मनोवैज्ञानिक जरूरतों का ख्याल रखना बेहद अहम है, लेकिन ये कुछ ऐसा है जो शायद ही कभी मेडिक्स को सिखाया जाता है. ये धीरे-धीरे हमारी प्रशिक्षण का हिस्सा बन रहा है.”
मरीजों को घर के करीब महसूस कराने और उन लोगों से नजदीकी जिनके बारे में वो सोचते हैं, जिन्हें जानते हैं, उनके लिए नियमित तौर पर फैमिली विजिट की इजाजत दें.
डॉ रे कहते हैं, "COVID-19 मरीजों के साथ बड़ी दिक्कत ये है कि यह मनोवैज्ञानिक रूप से विनाशकारी हो सकता है क्योंकि मरीजों को अपने करीबियों को देखने की इजाजत नहीं होती है. वे बीपिंग मॉनिटर, अनजान चेहरों के साथ एक अपरिचित वातावरण में रहते हैं जो अक्सर उनसे बात नहीं करते हैं, और वो एक बीमारी से प्रभावित हैं जिसके बारे में उन्हें ज्यादा जानकारी नहीं है. ये सब उन पर काफी गहरा असर डाल सकता है."
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